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अफगानिस्तान में तालिबान का बढ़ा कंट्रोल, अब भारत पर टिकीं सबकी निगाहें

Afghanistan Taliban: अफगानिस्तान के साथ वैसे तो भारत के पारंपरिक रूप से अच्छे रिश्ते रहे हैं लेकिन तालिबान से दूरी ही बना कर रखी है।

Neel Mani Lal
Written By Neel Mani LalPublished By Shivani
Published on: 17 July 2021 10:54 AM IST
Afghanistan Taliban
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प्रतिकात्मक तस्वीर, फोटो क्रेडिट: सोशल मीडिया 

Afghanistan Taliban: अमेरिका को अच्छी तरह पता था कि उसकी सेनाओं के अफगानिस्तान से हटने के बाद क्या होने वाला है। लेकिन सब कुछ इतना जल्दी हो जाएगा, इसका उसे अंदाज़ा नहीं रह होगा। भारत, चीन, पाकिस्तान को भी अंदाजा नहीं था कि इतनी जल्दी तालिबान के कंट्रोल हो जाएगा। अब तालिबान ने अफगानिस्तान के 85 फीसदी से ज्यादा हिस्से पर कंट्रोल कर लिया है और इसमें अंतरराष्ट्रीय सीमाओं पर बने चेकपोस्ट शामिल हैं।

अफगानिस्तान के साथ वैसे तो भारत के पारंपरिक रूप से अच्छे रिश्ते रहे हैं लेकिन तालिबान से दूरी ही बना कर रखी है। अफगानिस्तान में अमेरिका की मौजूदगी के दौरान भारत ने बहुत निवेश किया है और ढेरों प्रोजेक्ट जारी हैं। अब तालिबान की वापसी में भारत की क्या भूमिका होगी, इस पर सबकी निगाहें लगी हुईं हैं। जहां तक तालिबान की बात है तो उसने भारत को काबुल यानी अफगानिस्तान की अशरफ गनी सरकार से दूर रहने की ताकीद की है। तालिबान के संदेश साफ है कि उसके खिलाफ किसी भी मोर्चे के साथ भारत को खड़ा नहीं होना चाहिये।

क्या फिर बनेगा नॉर्दर्न अलायन्स

जब अफगानिस्तान में तालिबान का शासन था तब उसके खिलाफ 'नॉर्दर्न अलायन्स' लगातार मोर्चा लेता रहा। नॉर्दर्न अलायन्स का नेतृत्व ताजिक और अन्य अफगानी अल्पसंख्यक जातीय समूह करते थे। इस अलायन्स यानी गठबंधन की स्थापना 1996 में हुई थी और शुरुआत से ही भारत, रूस और ईरान का इसे सपोर्ट था। अफगानिस्तान के उत्तरी भाग में ये गठबंधन तालिबान से मोर्चा लेता रहा था। 2001 में जब हामिद करजई की सरकार सत्ता में आई तब ये गठबंधन समाप्त हो गया था।अब देखना ये है कि क्या तालिबान के खिलाफ नॉर्दर्न अलायन्स को फिर खड़ा किया जाएगा और भारत क्या उसका समर्थन करेगा? हाल में विदेश मंत्री जयशंकर की ईरान और रूस यात्रा से इन अटकलों को बल मिला है। शंघाई कोऑपरेशन कॉउंसिल की बैठक से भी यही संकेत मिले हैं।

अमेरिका का रुख
डोनाल्ड ट्रम्प जब अमेरिका के प्रेसिडेंट थे तब उन्होंने कई बार कहा था कि भारत, अफगानिस्तान में अपनी भूमिका बढ़ाए और अमेरिकी सेनाओं के हटने के बाद मुख्य भूमिका में रहे। अमेरिका ने तालिबान के साथ दोहा में एक समझौता किया था जिसके तहत ये तय हुआ कि तालिबान आतंकी गुटों को सपोर्ट नहीं करेगा और अफगानिस्तान की सरजमीं का इस्तेमाल अमेरिका के खिलाफ किसी गतिविधि में लिए नहीं किया जाएगा। समझौते के तहत 1 सितंबर 2021 तक अमेरिका की समस्त सेना अफगानिस्तान से हट जाएगी। अब बिडेन प्रशासन ने तो अफगानिस्तान से पूरी तरह हाथ झाड़ लिया है, लेकिन अफगानिस्तान में स्थिति बिगड़ने पर नाटो देश चुपचाप भी बैठने वाले नहीं हैं।
भारत ने अमेरिका के रहते अफगानिस्तान में अपनी भूमिका बढ़ाई भी थी और भारी भरकम निवेश अफगानिस्तान में किया था। भारत की मौजूदगी पाकिस्तान को कभी पसंद नहीं आई। अब पाकिस्तान भारत के खिलाफ तालिबान को भड़काने में लग गया है और दुष्प्रचार कर रहा है कि भारत अफगान सुरक्षा बलों को मदद कर रहा है।

बहरहाल, अब फिर अफगानिस्तान पुरानी स्थिति में है सो भारत ख़ुद को एक अजीब स्थिति में पा रहा है। तालिबान को भारत ने आधिकारिक तौर पर कभी मान्यता नहीं दी थी। लेकिन बदली परिस्थितियों में भारत तालिबान के साथ बैक-चैनल से वार्ता भी कर रहा है। जून में जब भारत के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने कहा कि भारत अफ़ग़ानिस्तान में "अलग-अलग स्टेकहोल्डरों" के संपर्क में है। विदेश मंत्रालय ने तालिबान के साथ किसी वार्ता की पुष्टि नहीं की लेकिन उन रिपोर्टों से इनकार भी नहीं किया, जिनमें कहा गया था कि भारत तालिबान के कुछ गुटों के साथ बातचीत कर रहा है।
भारत के अब तक तालिबान के साथ सीधी बातचीत शुरू न करने की बड़ी वजह ये रही है कि भारत अफ़ग़ानिस्तान में भारतीय मिशनों पर हुए हमलों में तालिबान को मददगार और ज़िम्मेदार मानता था। इसके अलावा भारत का तालिबान के साथ बात न करने का एक और बड़ा कारण ये भी रहा है कि ऐसा करने से अफ़ग़ान सरकार के साथ उसके रिश्तों में दिक्क़त आ सकती थी जो ऐतिहासिक रूप से काफ़ी मधुर रहे हैं।

दिक्कतें काफी हैं

अफगान सुरक्षा बलों के खिलाफ लड़ाई में तालिबान के साथ लश्कर-ए-तैयबा भी लगा हुआ है। माना जाता है कि लश्कर के 7 हजार आतंकी वहां लड़ाई में शामिल हैं। अब स्थिति ये है कि तालिबान जम्मू-कश्मीर में नियंत्रण रेखा से सिर्फ 400 किमी दूर है। अफगानिस्तान में पूरा कंट्रोल करने के बाद वह आसानी से अपने आतंकवादियों को जम्मू-कश्मीर भेज सकेगा और पाकिस्तान की मदद भी कर सकेगा।

यही वजह है कि तालिबान के मजबूत होने से पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान काफी खुश हैं। तालिबान के राज में जहाँ अफ़ग़ानिस्तान पर भारत की पकड़ कमज़ोर हो सकती है, वहीं पाकिस्तान का दबदबा कई गुना बढ़ सकता है। पाकिस्तानी फ़ौज के प्रवक्ता मेजर जनरल बाबर इफ्तिखार हाल ही में कह चुके हैं कि अफ़ग़ानिस्तान में भारत का निवेश डूबता दिख रहा है। पाकिस्तान ये दावा करता रहा है कि भारत के अफ़ग़ानिस्तान में क़दम रखने का 'असली मक़सद पाकिस्तान को नुक़सान पहुँचाना था।'

चीन भी बनेगा सिरदर्द

पाकिस्तान के अलावा चीन भी भारत के लिये चुनौती बन सकता है। क्योंकि जहां तालिबान पर पाकिस्तान का प्रभाव है, वहीं चीन मौजूदा वक़्त में अफगानिस्तान के लिये सबसे बड़ा निवेशक है। इस समय अफगानिस्तान में चीन के कई बड़े प्रोजेक्ट चल रहे हैं और तालिबान जानता है कि अगर उसे अपनी स्थिति मजबूत रखना है तो उसे सबसे ज्यादा चीनी फंड्स की जरूरत होगी। इसी वजह से तालिबान ने ऐलान किया है कि वो अफगानिस्तान में चीनी परियोजनाओं को हाथ नहीं लगायेगा।

भारत का निवेश

पिछले कई वर्षों में अफ़ग़ानिस्तान में इन्फ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं और संस्थानों के पुनर्निर्माण में भारत तीन अरब डॉलर से अधिक का निवेश कर चुका है। भारत सरकार के अनुसार अफ़ग़ानिस्तान के सभी 34 प्रांतों में भारत की 400 से अधिक परियोजनाएं चल रही हैं। अफ़ग़ानिस्तान के संसद भवन का निर्माण भारत ने किया है और अफ़ग़ानिस्तान के साथ मिलकर भारत ने एक बड़ा बाँध भी बनाया है। शिक्षा और तकनीक के क्षेत्रों में भी भारत लगातार अफ़ग़ानिस्तान को मदद करता रहा है।

2011 में भारत-अफगानिस्तान ने रणनीतिक साझेदारी समझौता किया था, जिसके तहते भारत, अफगानिस्तान को उसके इंफ्रास्ट्रक्चर और संस्थाओं के पुननिर्माण में मदद कर रहा था। भारत ने वहां महत्वपूर्ण सड़कें बनवाई हैं, डैम बनवाए हैं, बिजली लाइनें बिछाईं, स्कूल और अस्पताल बनाए हैं। कुल मिलाकर इस सहायता को अगर आंकड़ों में अनुमान लगाएं तो यह 3 अरब डॉलर से ज्यादा बैठता है। दोनों देशों की मित्रता के चलते इन वर्षों में द्वपक्षीय व्यापार भी 1 अरब डॉलर का हो चुका है। विदेश मंत्री एस जयशंकर ने पिछले साल नवंबर में जिनेवा में अफगानिस्तान कॉन्फ्रेंस में कहा था, 'आज अफगानिस्तान का कोई भी हिस्सा नहीं है, जहां भारत के 400 से ज्यादा प्रोजेक्ट ना हों, ये अफगानिस्तान के सभी 34 प्रांतों में हैं। '


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Shivani

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