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Afghanistan-Taliban Crisis: न किसी की जीत, न किसी की हार, 2014 में ही खत्म हो गया था अफगानिस्तान में अमेरिका का अभियान

Afghanistan-Taliban Crisis: 9/11 हमलों के बाद अमेरिका के नेतृत्व में आतंकवाद के खिलाफ ग्लोबल युद्ध के एक हिस्से के रूप में अफगानिस्तान पर धावा बोला गया था।

Neel Mani Lal
Written By Neel Mani LalPublished By Dharmendra Singh
Published on: 30 Aug 2021 1:10 PM GMT (Updated on: 31 Aug 2021 11:40 AM GMT)
Taliban-US
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अमेरिकी राष्ट्रपति जो बिडेन और तालिबानी नेता (फाइल फोटो: सोशल मीडिया)

Afghanistan-Taliban Crisis: अफगानिस्तान में जो कुछ चल रहा है उसे आमतौर पर अमेरिका की हार और तालिबान की जीत के रूप में पेश किया जा रहा है। जबकि ये दोनों ही बातें एकदम गलत हैं। अफगानिस्तान में न किसी की हार हुई है और न किसी की जीत।

9/11 हमलों के बाद अमेरिका के नेतृत्व में आतंकवाद के खिलाफ ग्लोबल युद्ध के एक हिस्से के रूप में अफगानिस्तान पर धावा बोला गया था। इस कार्रवाई का उद्देश्य 9/11 के साजिशकर्ताओं को खत्म करना था। यह मान लिया गया कि इस उद्देश्य को पूरा कर लिया गया है। इसलिए 2014 में अभियान समाप्ति का ऐलान कर दिया गया और धीरे धीरे सेनाओं की वापसी शुरू हो गई। चूंकि अफगानिस्तान से अमेरिका और सहयोगी देशों की सेनाओं की वापसी 2014 से ही तय थी। इसलिए ऐसे में अमेरिका की वापसी को हार कहना उचित नहीं है।
तालिबान को तो लौटना ही था
दूसरी ओर, तालिबान की जीत इसलिए नहीं हुई, क्योंकि उसने किसी को हराया नहीं है। उसे अफगानिस्तान एक शांति समझौते के तहत सौंप दिया गया है। जहां तक अफगानिस्तान की अशरफ गनी सरकार की बात है तो उनकी सेना ने कोई प्रतिकार नहीं किया। तालिबान के सामने से खुद ही हट गए, इसलिए इसे तालिबान की जीत नहीं कहा जा सकता, क्योंकि उसे किसी से लड़ना नहीं पड़ा।
तालिबान को तो सत्ता में आना ही था और इसीलिए दोहा में अमेरिका ने उससे समझौता किया गया था। समझौते में तय था कि अमेरिका 1 मई, 2021 तक पूरी तरह से अफगानिस्तान से हट जाएगा। इस काम में तालिबान कोई रोड़े नहीं अटकायेगा। इस समझौते की नींव भी कई साल पहले पड़ चुकी थी। तालिबान की सत्ता में वापसी तय थी। यह वापसी कुछ जल्दी हो गई, बस यह एक नई बात रही।

ऑपरेशन एंड्यूरिंग फ्रीडम
अफगानिस्तान में अमेरिका की मौजूदगी की जहां तक बात है तो ये 7 अक्टूबर, 2001 को अमेरिकी सरकार द्वारा शुरू किए गए 'ऑपरेशन एंड्यूरिंग फ्रीडम' (ओईएफ) के तहत की गई थी। ऑपरेशन एंड्यूरिंग फ्रीडम 11 सितंबर, 2001 को अमेरिका पर हुए आतंकी हमले के जवाब में शुरू किया गया था। यह आतंकवाद के खिलाफ एक ग्लोबल युद्ध था।
7 अक्टूबर, 2001 को अमेरिकी प्रेसिडेंट जॉर्ज डब्लू बुश ने घोषणा की थी कि अफगानिस्तान में अल कायदा और तालिबान पर हवाई हमले किये गए हैं। ओईएफ को मूलतः अफगानिस्तान में लड़ाई के रूप में जाना जाता है। लेकिन असलियत में इस अभियान के अंतर्गत सोमालिया, किर्गिस्तान, सहारा मरुस्थल और जॉर्जिया में भी आतंकवाद के खिलाफ कार्रवाई की गई थी।
ऑपरेशन एंड्यूरिंग फ्रीडम वस्तुतः संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद द्वारा स्वीकृत अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा सहायता बल (आईएसएएफ) के अभियान का नाम था। आईएसएएफ विभिन्न देशों की सेनाओं का संयुक्त बल था, जिसे 28 दिसंबर, 2014 को समाप्त कर दिया गया।
अफगानिस्तान में सैन्य कार्रवाई 2014 इसलिए समाप्त कर दी गई थी, क्योंकि इस कार्रवाई के उद्देश्य पूरे हो गए थे। इसमें अफगानिस्तान में तालिबान के नेता मुल्ला उमर, अल कायदा नेता ओसामा बिन लादेन समेत ढेरों आतंकी सरगनाओं और कमांडरों का सफाया शामिल था।

13 साल बाद खत्म हुआ अभियान

ऑपरेशन एंड्यूरिंग फ्रीडम 13 साल तक चला और 28 दिसंबर, 2014 को प्रेसिडेंट बराक ओबामा ने अफगानिस्तान में इस कार्रवाई की समाप्ति की घोषणा की। इसके बाद अफगानिस्तान में अमेरिका की सेनाओं की जो भी कार्रवाई हुई वह एक अलग अभियान के तहत की गई थी जिसे 'ऑपरेशन फ्रीडम्स सेंटिनल' नाम दिया गया। 1 जनवरी, 2015 को शुरू हुए ऑपरेशन फ्रीडम्स सेंटिनल के दो हिस्से थे-आतंकवाद के खिलाफ कार्रवाई और स्थानीय प्रशासन का सपोर्ट।
ऑपरेशन फ्रीडम्स सेंटिनल दरअसल रेज़ोल्यूट सपोर्ट मिशन का हिस्सा था जो कि नाटो देशों का अफगानिस्तान में संयुक्त अभियान था। 2014 में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव संख्या 2189 के तहत रेज़ोल्यूट सपोर्ट मिशन शुरू किया गया।
जिसका उद्देश्य अफगान सुरक्षा बलों को सलाह मशविरा और प्रशिक्षण देना था ताकि वे देश में सुरक्षा व्यवस्था बरकरार रख सकें। ये काम भी अमेरिका और अफगानिस्तान सरकार के बीच रक्षा सहयोग समझौते के तहत किया गया। मूल रूप से यह 1 जनवरी, 2015 से 2024 के अंत तक या उसके भी आगे चलना था। यह कहा गया था कि कोई भी पक्ष दो साल की एडवांस नोटिस देकर इस समझौते को खत्म कर सकता है।

तालिबान से शांति समझौता
रेज़ोल्यूट सपोर्ट मिशन के तहत नाटो के 36 सदस्यों और अन्य सहयोगी देशों के 16 हजार सैनिक 2017 में अफगानिस्तान में थे। ये सैनिकों की पीक संख्या थी जो बाद में लगातार घटती गई। रेज़ोल्यूट सपोर्ट मिशन में सबसे ज्यादा फोर्स अमेरिका की थी जबकि उसके बाद इटली, जर्मनी और तुर्की की सेनाएं थीं। चूंकि रेज़ोल्यूट सपोर्ट मिशन एक अस्थायी व्यवस्था थी इसलिए इसके तहत तैनात सुरक्षाबलों की संख्या लगातार कम होती रही और सैनिक वापस जाते रहे। 31 दिसंबर, 2016 के बाद अफगानिस्तान में अमेरिका के 8400 सैनिक ही मौजूद थे जो काबुल, जलालाबाद, बगराम और कंधार के ठिकानों में तैनात थे।
2021 की शुरुआत में करीब 10 हजार सैनिक ही अफगानिस्तान में बचे थे। 14 अप्रैल, 2021 को नाटो ने घोषणा की कि 1 मई, 20221 तक सुरक्षा बलों की काफी हद तक वापसी हो जाएगी। इसके बाद 12 जुलाई, 2021 को रेज़ोल्यूट सपोर्ट मिशन औपचारिक रूप से समाप्त कर दिया गया।
जब ये मिशन चल रहा था तब भी अफगानिस्तान पूरी तरह अफगान सुरक्षाबलों के कंट्रोल में नहीं था। 30 अप्रैल, 2018 को अमेरिकी कांग्रेस को स्पेशल इंस्पेक्टर जनरल फ़ॉर अफगानिस्तान रिकंस्ट्रक्शन की रिपोर्ट में बताया गया था कि अफगानिस्तान के 14.5 फीसदी जिले विद्रोहियों (तालिबान) के कंट्रोल में हैं, जबकि 29.2 फीसदी जिलों पर नियंत्रण का संघर्ष जारी है। यानी 2018 में ही तालिबान ने अपने पैर फैलाने शुरू कर दिए थे। अमेरिका को पता था कि क्या होने वाला है, इसीलिए तालिबान से शांति समझौता कर लिया ।


Vidushi Mishra

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