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Afghanistan-Taliban News: एक और महाशक्ति की कब्रगाह बना अफगानिस्तान
भारत के किस्से कहानियों में उस काबुलीवाले का जिक्र मिलता है, जिसके सीधेपन की दुहाई लोग दिया करते हैं।
Afghanistan-Taliban News: इतिहास हमेशा अपने आप को दोहराती है, यह कहावत हम वर्षों से सुनते हुए आए हैं। 15 अगस्त, 2021 को जब हम अपने स्वाधीनता के 74वीं वर्षगांठ के जश्न में मशगूल थे, ठीक उसी वक्त हमारे एक पड़ोसी देश में उपरोक्त कहावत वास्तविकता में तब्दील हो रही थी। अफगानिस्तान जो अपने रक्तरंजित अतीत के लिए जाना जाता रहा है, 20 साल बाद एकबार फिर उस बर्बर एवं मध्युगीन चरमपंथी संगठन जिसे तालिबान के नाम से जानते हैं के गिरफ्त में आ चुका है। अफगानिस्तान के भारत के साथ हजारों साल से सांस्कृतिक संबंध रहे हैं। महाभारत काल के गांधार राज्य से लेकर मुगल शासन के दौर तक यह देश कभी न कभी भारत का अंग भी रहा है।
भारत के किस्से कहानियों में उस काबुलीवाले का जिक्र मिलता है, जिसके सीधेपन की दुहाई लोग दिया करते हैं। आज वो काबुलीवाले काबुल की सड़कों पर संगीनों के साये में रहम की भीख मांगने को मजबूर हैं। हमें अक्सर मीडिया में ऐसी खबरें पढ़ने को मिलती रहती थीं, जिसमे किसी पंचायत द्वारा लड़कियों के जींस पहने और मोबाइल रखऩे पर रोक लगाने का आदेश जारी किया जाता था, मीडिया में इसे तालिबानी फरमान कहकर इसकी जमकर आलोचना होती थी।
मगर आज दृश्य इसके विपरीत है, दुनियाभर में मानवाधिकार, लैंगिक बराबरी समेत तमाम प्रगतिशील विचारों के ठेकेदार बनने का दंभ भरने वाला पश्चिमी जगत बिल्कुल निष्क्रिय हो चुका है और तालिबान की वैश्विक स्वीकार्यता का मार्ग प्रशस्त कर रहा है।
अफगानिस्तान हमेशा अपने भूगोल के कारण अभिशप्त रहा है। इस देश की भौगोलिक स्थिति इसकी सबसे बड़ी त्रासदी रही है। 19वीं सदी में रूसी सामाज्रय और ब्रिटिश साम्राज्य के बीच चलने वाला ग्रेट गेम हो या शीत युध्द के दौरान सोवियत रूस और अमेरिका के बीच प्राक्सी वार अफगानियों ने हमेशा परायों के लड़ाई में अपनी मातृभूमि को अपने हमवतनों के खून से रक्तरंजित होते हुए देखा है। 1988 में सोवियत रूस के अफगानिस्तान से बेआबरू होकर जाने के बाद अफगानियों में ये उम्मीद जगी थी, शायद अब शांति के फूल उनके आंगन में खिलेंगे और हिंदूकुश के खुबसूरत पहाड़ों से घिरा ये देश एकबार फिर वैश्विक फलक पर अपनी मजबूत आमद दर्ज करवाएगा।
लेकिन रूसियों के जाने के साथ ही वहां जबरदस्त गृहयुध्द छिड़ गया, कल तक एक दूसरे के साथ कंधे से कंधा मिलाकर लाल सेना से लड़ने वाले मुजाहिदीन अब एक दूसरे पर क्लाशिनकोव ताने हुए थे, इसी बीच देश में एक नए इस्लामिक छात्र संगठन का उदय हुआ, अपने आप को तालिब कहने वाला यह संगठऩ स्वयं को इस्लाम का सच्चा रहनुमा बताकर बड़ी संख्या में छात्र औऱ नौजवानों को अपने साथ लामबंद करने में सफल रहा।
मुजाहिदीनों की आपसी लड़ाई में पिस रहे अफगानों को इस संगठऩ से एक बार फिर नई उम्मीद दिखी, जनता के समर्थऩ के साथ – साथ पाकिस्तान से मिले जबरदस्त सैन्य एवं असैन्य सहयोग से तालिबान वर्ष 1996 को काबुल फतह करने में कामयाब रहा। यहां से अफगानिस्तान में बर्बर, दमनकारी और अत्याचार से भरपूर एक नए युग का सूत्रपात हुआ, जिसके बारे में हमने और आपने काफी कुछ देख औऱ सुन रखा है। इस बीच तकरीबन 5 साल बाद दुनिया को हिला देने वाली एक घटना घटी जिसे 9/11 के नाम से जाना जाता है।
अब तक अफगानिस्तान में हो रही बर्बरता से मुंह चुड़ाने वाला सुपरपावर अमेरिका अब अफगानिस्तान में बड़ी सैन्य कार्रवाई का मन बना चुका था, जिसे तत्कालिन अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश ने वार आन टेरर कहा था। ये कार्रवाई ठीक वैसे ही थी जैसे द्वितय विश्व युध्द के दौरान अमेरिका मित्र राष्टों के कई अनुरोध के बावजूद युध्द से अपने को दूर बनाए रखा, लेकिन पर्ल हार्बर पर जापानियों द्वारा हुए हमले के बाद वो भी इस युद्ध में कूदा उसके बाद के परिणाम जगजाहिर हैं। कहने का तात्पर्य ये कि अमेरिकी सरकारों के लिए हमेशा उनका हित सर्वोपरि रहा है, चाहे इसका जो भी अंजाम हो।
वियतनाम, अफगानिस्तान औऱ इराक इसके उदाहरण हैं। दुनिया ने देखा है कि आखिर किस तरह फर्जी आरोंपों के बदौलत इराक के तानाशाह सद्दाम हुसैन को अपदस्थ करने के बाद अमेरिका ने उस देश को गृह युध्द की आग में झुलसने को छोड़ दिया। जिसका नतीजा आईएस जैसे दुर्दांत औऱ वहशी चरमपंथी संगठन के उदय.के रूप में हुआ। जिसके विध्वंसक गतिविधियों का दंश आज भी उस क्षेत्र के लोग उठा रहे हैं। वर्तमान में अमेरिका ने अफगानिस्तान को भी उसी मुहाने पर छोड़ भाग खड़ा हुआ है। काबुल एयरपोर्ट पर आतंकी हमले ने बता दिया है कि आने वाले दिनों में अफगानिस्तान आईएस और अलकायदा जैसे तमाम खूंखार आतंकी संगठनों का सुरक्षित ठिकाना होगा। ऐसे में दुनिया में नए सिरे से आतंक की एक नई पौध के आगमन की राह प्रश्स्त हो चुकी है। इसके परिणाम कितने भयावह होगें, इसके अंदाजा लगाना भी मुश्किल है।
वहीं अफगानिस्तान मसले को लेकर अमेरिकी साख को जो बट्टा लगा है, उससे उबर पाना अमेरिकिय़ों के लिए आसान नहीं होगा। राष्ट्रपति जो बाइडन की लोकप्रियता काफी नीचे गिर चुकी है। अमेरिकी जनता उनके इस मसले के हैंडिल करने के तरीके से काफी नाखुश है। उन्हें एक लाचार औऱ कमजोर प्रेसिडेंट के तौर पर भी देखा जाने लगा है। शीत युध्द के दौर से आने वाले बाइडन बुजुर्ग होने के साथ साथ सियासत में काफी अनुभवी हैं, उन्हें पूवर्वर्ती ट्रंप के मुकाबले काफी समझदार औऱ सुलझे हुए व्यक्ति के तौर पर देखा जाता था। हालांकि हालिया घटनाक्रम ने उनके सहयोगियों को भी नाराज कर दिया है। नाटों के देश अमेरिका के इस एकतरफा फैसले और हड़बड़ी की आलोचना कर रहे हैं।
ब्रिटिश विदेश मंत्री डोमनिक राब ने अमेरिकी प्रशासन द्वारा अफगानिस्तान मसले पर नाटों के सहयोगियोँ से सलाह मशविरा न किए जाने को लेकर नाराजगी भी जाहिर की है। ऐसे में अमेरिका को लेकर अब उनके सहयोगियों में भी अविश्वास की भावना घर कर गई है। दरअसल, अमेरिका इससे पहले भी अपने सहयोगियों को अकेला छोड़ चुका है। सीरिया और इऱाक में आईएस के साथ लड़ाई में निर्णायक भूमिका अदा करने वाले कुर्दिश समूहों को अमेरिका ने युध्द के बाद अकेला छोड़ दिया। दरअसल कुर्द ईरान, ईराक, सीरिया और तुर्की में रहने वाली एक अल्पसंख्यक आबादी है।
जिनका इन देशों में दशकों से दमन होता आ रहा है, इनकी मांग इन देशों के कुर्द बहुल इलाके को अगल कर एक अलग कुर्दिस्तान राष्ट्र बनाने की रही है। दायश के सबसे भीषण अत्याचार का शिकार कुर्द समूह की महिलाएं सबसे अधिक हुई हैं। लिहाजा अंत में इन्होंने भी दायश के आतंकियों के खिलाफ हथियार उठाया और मजबूती से लड़े। उन दिनों कुर्दिश पेशमर्गा की महिला फाइटरों की हथियार के साथ सैन्य वर्दी में फोटो मीडिया में खूब सुर्खियां बटोर रही थीं। अमेरिका ने इन्हें इनकी लड़ाई में सहयोग करने का आश्वासन देकर दायश के साथ निर्णायक जंग में इनका जमकर इस्तेमाल किया। और आईएस के खात्मे के बाद इन्हें सीरिया औऱ तुर्की के भरोसे छोड़ कर चले गए। आज इन्हें तुर्की और सीरिया की सैन्य कारवाई से अकेले लड़ना पड़ रहा है।
1991 में सोवियत यूनियन के विघ़टन के बाद दुनिया की एकमात्र महाशक्ति कहलाने वाली यूएसए अब ढलान पर है। संयोग देखिए इस ढलान की शुरूआत भी उसी अफगानिस्तान से हुई जिसे साम्राज्यों का कब्रगाह कहा जाता है। जिस तरह 1988 में सोवियत यूनियन की हार ने उसके विघटन की पटकथा लिख दी थी, ठीक ऐसा ही कुछ अब संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ हो रहा है। अमेरिका स्थित ब्राउन यूनिवर्सिटी की शोध को माने तो अमेरिका ने 20 सालों में इस युध्द पर एक ट्रिलियन डॉलर खर्च किया। इस युध्द में करीब तीन लाख लोग मारे गए और 50 लाख अफगानी विस्थापित हुए।
ऐसे में अफगान युध्द अमेरिका के अब तक का सबसे महंगा मिशऩ साबित हुआ है। आज रूस अमेरिका की इस सबसे बड़ी विफलता पर ठीक उसी तरह जश्न मना रहा है, जैसे कभी अमेरिकी अफगानिस्तान में उनकी हार पर जश्न मना रहे थे। इतना ही नहीं रूस ने अमेरिका को नीचे दिखाने के लिए तालिबान का साथ देने का ऐलान भी कर चुका है।
कुल मिलाकर अमेरिका के जाने के बाद अफगानिस्तान एकबार फिर अस्थिरता के जद में जा चुका है। बारूद के ढेर पर बैठे इस देश में होने वाली तमाम गतिविधियों पर दुनियाभर की मीडिया अपनी नजरें गड़ाए हुए हैं, वहीं अफगानी एकबार फिर अपना सबकुछ छोड़कर दर दर की ठोकरें खाने को मजबूर हैं। नई दिल्ली स्थित अमेरिकी दूतावास के सामने हाथों में तख्तियां लिए प्रदर्शन कर रहे बेबस अफगानी छात्र इसकी बानगी है।