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Coronavirus Impact on Economy: कोरोना, आर्थिक मंदी और लोगों को बाजार बनाने का अंतहीन सिलसिला

Coronavirus Impact on Economy: जब दुनिया भर में कोरोना की स्थिति विस्फोटक बनी हुई थी, लोग मच्छर मक्खी के मानिंद टपक रहे थे। भारत में बिरला ही आप को कोई ऐसा सौभाग्यशाली व्यक्ति हाथ लगे जिसके घर में से, परिवार में से, रिश्तेदारों में से, मुहल्ले में से या साथ काम करने वालों में से कोई न कोई साथ न छोड़ गया हो।

Yogesh Mishra
Written By Yogesh Mishra
Published on: 4 Dec 2022 8:50 PM IST
Coronavirus Impact on Economy
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Coronavirus Impact on Economy (Photo - Social Media)

Coronavirus Impact on Economy: ज़िंदगी से हम सबसे ज़्यादा सीख तब लेते हैं,जब किसी बुरे वक़्त से गुज़रते हैं। बुरे वक़्त में ही हमें ज़िंदगी, समय, रिश्तों और अपनों की क़ीमत पता चलती है । इन सबका अहसास बीते साल कोरोना कि सांघातिक लहर में हुआ। इस लहर ने हमेशा चलते रहने वाले पैरों में बेड़ियाँ डाल दीं। लोग परेशान रहे। क्योंकि जीवन का हिस्सा कहे जाने वाले गति पर आफ़त चलने तक विराम लगा रहा।

वह इंसानी दिमाग़ की परख का समय रहा। जो लोग यह कहते थक रहे थे कि काम के अलावा समय ही नहीं मिलता, उन सब को हद में रहने की हिदायत थी। अपनों को पहचानने का समय था। अपनों के बिना जीने की आदत डालने की नसीहत थी। प्रकृति अपने निपट अल्हड़ स्वरूप में थी। प्रदूषण के सारे मानदंड धरातलीय मानदंड छू रहे थे । पर प्रकृति इठला या इतरा नहीं रही थी।


जब दुनिया भर में कोरोना की स्थिति विस्फोटक बनी हुई थी, लोग मच्छर मक्खी के मानिंद टपक रहे थे। भारत में बिरला ही आप को कोई ऐसा सौभाग्यशाली व्यक्ति हाथ लगे जिसके घर में से, परिवार में से, रिश्तेदारों में से, मुहल्ले में से या साथ काम करने वालों में से कोई न कोई साथ न छोड़ गया हो।


पर एक तबलिगी जमात रही, जिसके लोग कहते मिले कि मरने के लिए मस्जिदों से अच्छी जगह क्या हो सकती है ? तबलिगी जमात के मौलाना सादिक़ ने कहा,"अगर तुम्हारे तजुर्बे में यह बात है कि कोरोना से मौत आ सकती है । तो मस्जिद में आना बंद मत करो, क्योंकि मरने के लिए इससे अच्छी जगह और कौन से हो सकती है ? इस मौलाना के मुताबिक़ कोरोना कोई बीमारी नहीं ,दूसरे धर्म के लोगों की साज़िश है, मस्जिदें बंद करवाने के लिए।" साद द्वारा समझाया जा रहा था कि धर्म पहले हैं, देश और समाज उसके बाद। आज़ादी के समय हिंदू मुसलमान के बीच दंगे हुए।दोनों धर्मों के काफ़ी लोग मारे गए । इसकी ज़िम्मेदार मुस्लिम लीग रही। कोरोना के दौर में हिंदू और मुसलमान के बीच विभाजक रेखा खींची तो इसका श्रेय तबलिगी जमात को गया।


तबलिगी जमात सुन्नी इस्लाम की देवबंदी शाखा की मुहिम है । इसके दुनिया भर में 8 करोड़ से अधिक अनुयायी हैं। अलक़ायदा से लेकर तालिबान जैसे संगठनों के लिए भर्तियों में यह अहम भूमिका निभाती है । हरकत-उल- मुजाहिद्दीन और हरकत-उल-जिहाद- ए- इस्लामी जैसे अपने ख़ुद के संगठनों के लिए भी उसने ही आपूर्ति की है।

ग्यारह सितंबर, 2001 को अमेरिका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के जुड़वां टावरों पर हुए आतंकी हमले के बाद भी 2018 तक इराक़ और अफ़ग़ानिस्तान में चलाए गए अभियानों में अमरीका ने भले ही 7000 जवान खोये। पर दुश्मन को नेस्तनाबूद करके ही अमेरिका माना ।अमेरिका ने अफ़ग़ानिस्तान में एक लाख सैनिक भेजे थे । जबकि नाटो सदस्यों ने केवल 30 हज़ार । द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद वियतनाम इकलौता ऐसा देश है जिसने बीस साल तक युद्ध में अमेरिका का मुक़ाबला करते हुए 58 हज़ार अमेरिकी सैनिकों की लाश ताबूत में भरकर वापस अमेरिका भेज दी।अमेरिकी राजदूत ग्राहम मार्टिन को 30 अप्रैल,1975 को सांइगान स्थित अपने दूतावास की छत से हेलीकॉप्टरों से भागने पर मजबूर होना पड़ा। प्रमुख अर्थशास्त्री जोसेफ स्टिग्लिटज और लिंडा बेंम्स ने अपनी किताब में लिखा है कि इराक़ के ख़िलाफ़ युद्ध में अमेरिका को 30 खरब डॉलर ख़र्च करने पड़े। हालाँकि अमेरिका इस्लामिक स्टेट के संस्थापक अबू बकर बगदादी को मार गिराने में सफल हुआ ।


ऐसे में मौलाना को कोई कैसे बताये कि जिन संक्रमित तबलिगियों की मौत हो रही है, उसमें से कोई मस्जिद में नहीं मर रहा ।तबलिगीयों की इस करतूत से भी ज़्यादा आश्चर्य और क्षोभ की बात यह है कि कई लोग मौलाना के समर्थन में खड़े हुए। बॉलीवुड के जावेद अख़्तर लेफ़्ट लिबरल्स के चहेते, खुद को पंथनिरपेक्षता का झंडाबरदार मानते हैं । उन्हें लगा है कि इस देश में पंथनिरपेक्षता उन जैसे लोगों के कंधों पर ही टिकी है । यह देश संविधान से चलता है शरिया से नहीं । इससे भी ज़्यादा चिंता की बात यह है कि इस पर तथा कथित पंथनिरपेक्ष बिरादरी के किसी सदस्य की कोई प्रतिक्रिया नहीं आयी । उनके मुँह सिले हुए रहे, जो दूरदर्शन पर महाभारत और रामायण धारावाहिक दिखाने पर विलाप करते हैं। क्या फ़तवे से समाज चलाने की बात करना धर्मनिरपेक्षता है ?


कुछ दिन पहले हाथ में तिरंगा लेकर संविधान की प्रस्तावना पढ़ने वाले संविधान, क़ानून और सरकार की नहीं फ़तवों की बात करते दिखे ! हालाँकि केरल के राज्यपाल आरिफ़ मोहम्मद ख़ान ने क़ुरान के आयात का हवाला दिया। बताया कि खुदा भी कहता है कि जब परिस्थितियां अनुकूल न हो तो मस्जिद न जाए, घर पर ही नमाज़ पढ़ें। जब मक्का मदीना की मस्जिदों में नमाज़ और तरावी नहीं हो रही है, तो फिर ऐसे काम बिलकुल नहीं करना चाहिए। इतिहास गवाह है कि पूर्व में कम से कम 40 ऐसे मौक़े आए हैं, जब मकान, उमराह और नमाज़ बंद करनी पड़ी। मुस्लिम विद्वान भी मुसलमानों को यह नहीं समझा पाये कि उनका भी हिन्दुओं के प्रति कुछ फ़र्ज़ बनता है। देश की तहज़ीब बनाए रखने की ज़िम्मेदारी उनकी भी उतनी ही है जितनी हिंदुओं की। 4 नवंबर, 1947 को दिल्ली में मुसलमानों को संबोधित करते हुए मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने कहा था-वे शपथ लें कि यह देश हमारा है और इसके भविष्य का निर्णय तब तक अपूर्ण रहेगा जब तक हम उसमें शिरकत नहीं करेंगे।किसी का भी कोई ख़्याल नहीं रखा गया।


कोरोना की मार ने रोजी-रोटी छीनी। तो घर लौटने के सिवाय चारा कोई नहीं दिखा। ट्रेन और बस सेवा बंद होने के कारण भूखे प्यासे बच्चों, औरतों , युवाओं और बूढ़ों की 40 लोगों की टोली श्रावस्ती जिले के इकौना बाजार के लिए निकली थी। साथ रहने वाले 80 साल के बुजुर्ग सालिग को भी तो नहीं छोड़ा जा सकता था।सालिग बीमार थे। चल फिर नहीं सकते। उनके एक हाथ और पैर को लकवा मार गया है। टोली में शामिल युवाओं ने कपड़े का एक झूला बनाया। उसे बांस में फंसाकर कंधों पर टांग लिया।जिस किसी ने सालिग को कंधे पर ले जा रहे इन युवाओं को देखा उनकी आंखें भर आईं। लोगों को श्रवण कुमार की कथा याद आ गई।


लखनऊ पहुंचे गोमतीनगर के सिनेपोलिस मॉल के पास बैठे लोगों की इस टोली में शामिल हर सदस्य के चेहरे पर थकान झलक रही थी। भूख, प्यास चेहरे की लकीरों में पढ़ी जा रही थी। देश भर में पलायन के मंजर ने भारत पाकिस्तान बँटवारे के दिन की याद दिला दी। अंतर केवल यह था कि इसमें कत्ले आम नहीं था। हालाँकि इसे पलायन भी नहीं कह सकते थे। क्योंकि पलायन तब होता है जब लोग आँखों में आशाओं की चमक लेकर रोजी की तलाश में गाँव से महानगर की तरफ़ निकलते हैं । यहाँ तो सब उल्टा हो रहा था।

इसी बीच इस टोली पर सीनियर आईपीएस अफसर नवनीत सिकेरा और स्थानीय थाने के प्रभारी श्याम बाबू शुक्ला की नजर पड़ी। सिकेरा ने जब टोली में शामिल लोगों से बातचीत की तो उन्होंने अपनी दर्द भरी दास्तान सुनाई। बुजुर्ग सालिग तो फफक फफक कर रोने लगे। सिकेरा ने पहले तो टोली के सदस्यों के खाने-पीने का इंतजाम किया। फिर उत्तर प्रदेश सड़क परिवहन निगम के एमडी राजशेखर से बातचीत करके इन लोगों को सरकारी बस से श्रावस्ती भेजने का इंतजाम किया।

टोली में शामिल जगराम का कहना था कि वह दिल्ली में दिहाड़ी मजदूर है। कोरोना वायरस के कारण जनता कर्फ्यू का ऐलान होने के बाद उसके ठेकेदार ने उसे पैसा भी नहीं दिया और काम लेने से मना कर दिया। जगराम ने बताया कि उसके जैसे तमाम अन्य लोगों के पास भी पैसे का कोई इंतजाम नहीं था। घर लौटने का कोई साधन भी नहीं था। लिहाजा वह पैदल ही दिल्ली से श्रावस्ती के लिए कूच कर गए।


जगराम ने सफर की दर्द भरी दास्तां बताते हुए कहा कि रास्ते में कहीं ट्रक तो कहीं टेंपो पर कुछ कुछ देर का सहारा लिया। बंदी के कारण पैसे भी ज्यादा देने पड़े। टोली में शामिल कोई भी सदस्य बुजुर्ग सालिग का अपना बेटा नहीं था। कोई उनका भांजा था, तो कोई बहनोई, तो कोई साला । मगर किसी ने सालिग को बेटे की कमी का एहसास नहीं होने दिया। इस बाबत पूछने पर बुजुर्ग सालिग की आंखें भर आई। उन्होंने कहा कि इतना तो शायद अपना बेटा भी होता तो नहीं करता।

दुनियाभर में 2.7 अरब कामकाजी लोगों को इसका खामियाजा भुगतना पड़ा। ये वैश्विक कामकाजी आबादी का तक़रीबन 81 फ़ीसदी हिस्सा है। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन ने एक अनुमान में कहा था कि चालू तिमाही में कोरोना संकट से 19.5 करोड़ लोगों की छँटनी की आशंका रही। 40 फ़ीसदी परम्परागत नौकरियां ख़त्म हुईं। ऑटोमेशन की रफ़्तार तेज हुई।


कोरोना के संक्रमण के साथ ही विकास के इंजन में ब्रेक लग गया। दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था में कोरोना काल के शुरुआती तीन महीनों में पिछले साल की तुलना में 6.8 फ़ीसदी की गिरावट आयी। ऐसे में निर्यात केंद्रित अपनी अर्थव्यवस्था को खड़ा करना चीन के लिए बड़ी चुनौती रहा।चीनी माल के प्रति वैश्विक उत्सुकता और माँग कम हुई। अर्थव्यवस्था को खड़ा करने की कोशिश के बावजूद चीन को अपनी कई फैक्टिरियां बंद करनी पड़ी।

1976 के बाद चीनी अर्थव्यवस्था के ध्वस्त हो जाने का पहला आधिकारिक एलान हुआ। 1976 में चीन अपनी सांस्कृतिक क्रांति के अंतिम दौर में था । चीन ने हाईवे और रेलवे के अपने विराट और आधुनिक नेटवर्क एंटरप्रेन्योरशिप में अपने लोगों की कुशलता साबित की थी।

दरअसल चीन की अर्थव्यवस्था इतनी विशाल और जटिल हो गई है कि 2008 की तरह इसे दोबारा गति देने की कोशिश कर पाना मुश्किल है । तब चीन ने पाँच खरब डॉलर का निवेश कर अपनी अर्थव्यवस्था को रफ़्तार दी थी । लेकिन अब स्थिति यह है कि वर्षों से आसान कर्ज देते जाने के कारण सरकार और सार्वजनिक कंपनियां तक भारी कर्ज़ में फँस गईं।


नव उदारवादी ग्लोबल नीतियों के चलते जिन अमेरिकी यूरोपीय बहुराष्ट्रीय निगमों ने चीन के सस्ते श्रम को देखा , वहां अपनी फैक्ट्रियां लगायी । वहाँ के माल को दुनिया में बेच कर अकूत संपत्ति कमाई और चीन से ही कमाई ।

द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अमेरिका और यूरोप के देशों ने पिछड़े देशों को अपनी कॉलोनी बनाने का काम छोड़ दिया । अब चीन और वो चाहते हैं कि दुनिया को अपना बाज़ार बनाया जाये।आपके देश में बैल्ट रोड कॉरिडोर बनाया जाये। ताकि उसका माल आपके देश के बाज़ारों में बिकने बेखटके आ जा सके।चीनी नव साम्राज्यवाद का नक़्शा इन दिनों अमेरिकी यूरोपीय नव साम्राज्यवाद से टकराता दिख रहा है।


भारत के रिज़र्व बैंक को मानना पड़ा कि 2020-2021 के वित्तीय वर्ष में सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर नकारात्मक रही। नेशनल काउंसिल ऑफ़ अप्लाइड इकोनॉमिक रिसर्च का मानना रहा कि अर्थव्यवस्था 12.5 फ़ीसदी सिकुड़ेंगी।गोल्डमैन सॉक्स और नोमुरा के विशेषज्ञों ने भी अर्थव्यवस्था के पाँच फ़ीसदी सिकुडने की बात कही। बर्न स्टीन के अर्थशास्त्रियों ने इस बाबत सात फ़ीसदी का आंकड़ा दिया। पिछले छह दशकों में इससे पहले चार बार अर्थव्यवस्था सिकुड़ चुकी है। आख़िरी बार अर्थव्यवस्था 1979-1980 में सिकुड़ी थी। इसकी दर 5.24 फ़ीसदी थी। महामारी के प्रकोप के बावजूद कृषि क्षेत्र में 3 फ़ीसदी से अधिक की वृद्धि आंकी गई है । आगामी फ़सल का रक़बा पिछले वर्ष के मुक़ाबले 38 फ़ीसदी अधिक आंका गया ।

निजी एजेंसी सीएमआईई द्वारा मार्च में जारी बेरोज़गारी के आंकड़ों के अनुसार देश में शहरी बेरोज़गारी की दर 30 प्रतिशत और ग्रामीण बेरोज़गारी 20.2 फ़ीसदी है।सरकार को जीडीपी के एक प्रतिशत के क़रीब का राहत पैकेज जारी करना पड़ा।


जूम, गूगल क्लासरूम, माइक्रोसॉफ्ट टीम, स्काइप जैसे प्लेटफ़ॉर्म के साथ साथ यूट्यूब वाट्सएप पर ऑनलाइन पढ़ाई का दौर जारी रहा। विभिन्न भाषाओं में ऑनलाइन लर्निंग मॉड्यूल्स विकसित किये गये। आईआईटी और आईआईएम सहित कई भारतीय संस्थान ऑनलाइन मोड में शिक्षा देते रहे। विश्वविद्यालयों और शैक्षणिक संस्थाओं ने सामाजिक दूरी सुनिश्चित करने के लिए छात्रों को घर बैठे ऑनलाइन कक्षाओं में भाग लेने की अनुमति दी। शिक्षा आधुनिक इतिहास के सबसे महत्वपूर्ण बदलाव से गुजरी। केपीएमजी और गूगल द्वारा किए गए एक अध्ययन "ऑनलाइन एजुकेशन इन इंडिया :2021" के मुताबिक़ भारत में ऑनलाइन शिक्षा का बाज़ार इक्कीसवाँ सदी तक बढ़कर लगभग 1.96 अरब डॉलर होने की उम्मीद जता दी गई।कहा गया ऑन लाइन शिक्षा सही रोज़गार के क्षेत्र में सम्बंधित कुछ सर्टिफ़िकेट कोर्स शुरू करने के लिए अच्छा माध्यम है ।कई आईआईएम और आईआईटी ने लघु और मध्यम अवधि के विभिन्न ऑनलाइन पाठ्यक्रमों की शुरुआत की। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने ऑन लाइन शिक्षा की दिशा में कई सकारात्मक बदलाव किये। निश्चित दिन और तय अवधि के बजाय छात्र तो तब ऑन लाइन शिक्षा का लाभ ले सकते हैं, जब उन्हें इसकी ज़रूरत महसूस होती है । इस पहल के एक हिस्से के रूप में कई शैक्षणिक संस्थान ऑनलाइन पाठ्यक्रम प्रदान करने लगे। 1.3 अरब से अधिक की आबादी हाई स्पीड इंटरनेट की उपलब्धता, स्मार्टफ़ोन का उपयोग और तकनीकी रूप से संचालित कार्य बल के साथ देश में ऑनलाइन शिक्षा प्रणाली से लाभ प्राप्त करने की संभावनाएं टटोली गईं। विभिन्न भाषाओं में लगातार बढ़ती जानकारियां इंटरनेट पर उपलब्ध कराई गयीं। जिन्हें भारत में अनेक लोगों ने ऑनलाइन पसंद किया।


पर इस पर गौर नहीं फ़रमाया गया कि ऑनलाइन शिक्षण में विद्यार्थी ज्ञान हासिल कर लेगा। लेकिन उसका ज्ञान जगत, मनो जगत एकदम यांत्रिक होगा। एक ऐसे समय जब इंटरनेट और वर्चुअल वर्ल्ड में ही बच्चे जीना चाहते हों। तब उन्हें इन्हीं माध्यमों के सहारे छोड़ दिया जाए यह उचित नहीं रहा। हाँ यह ज़रूर हो सकता है कि ऑनलाइन डिग्री रोज़गार पाने में कारगर हो। लेकिन यह मत भूलिए कि मल्टी टास्किंग के इस दौर में किताबी और सैद्धांतिक ज्ञान ही ज़िंदगी की किसी कठिन घड़ी में आपको पार लगा सकता है। व्यवहारिक विज्ञान और सोशल स्किल भी जीवन के तमाम क्षणों में काम आने वाले होते हैं। यह भी विचार करने का प्रश्न है कि यूरोप और अमेरिका जहाँ पूरा का पूरा समाज आदमी के रोज़मर्रा की ज़रूरतें ऑनलाइन संचालित हो रही हैं। ऑनलाइन शिक्षण,ओपन शिक्षा के माध्यम से विश्वविद्यालय सस्ती और ज़्यादा छात्रों को जोड़ने की रणनीति पर काम किया। एशियाई देशों के छात्र अब यूरोप और अमेरिका पर न जाने से कतराने लगे ।


भारत में उच्च शिक्षा के तीन मॉडल है। पहला, ITI और आईआईएम।दूसरा JNU और BHU मॉडल इसमें हैदराबाद यूनिवर्सिटी, पंजाब विश्वविद्यालय जैसे उत्कृष्ट आवासीय विश्वविद्यालय आते हैं । तीसरा अशोक विश्वविद्यालय , अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय,शिव नागर विश्वविद्यालय जैसे निजी संस्थान हैं।


अमेरिका में कोलंबिया यूनिवर्सिटी ने 1912-1917 तक न्यूयॉर्क राज्य की अर्थव्यवस्था में 5780 लाख डॉलर का इज़ाफ़ा किया ।20 हज़ार लोगों को रोज़गार दिया। इसी तरह प्रिंस्टन यूनिवर्सिटी अमेरिका के न्यूजर्सी राज्य की अर्थव्यवस्था में हर साल 1.58 अरब डॉलर का योगदान करती है।हज़ारों लोगों को नौकरी दे रखा है । इंग्लैंड की अर्थव्यवस्था में उसके विश्वविद्यालय लगभग 95 अरब डॉलर का योगदान करते हैं । जो देश के GDP क़रीब 1.2 प्रतिशत है ।यह इन विश्वविद्यालयों को फ़ीस और दान से मिलती है । फ़ीस की राशि का बड़ा हिस्सा अंतरराष्ट्रीय छात्रों से प्राप्त होता है, जिसमें चीन भारत और दक्षिण एशिया के छात्र होते है। हमारे पास ये अवसर नहीं है।

भले ही हावर्ड एमाइटी, स्टैनफ़ोर्ड आदि के कोर्स ऑनलाइन उपलब्ध हों फिर भी विद्यार्थियों की इच्छा क्लास रूम में पढ़ने की होती है।कक्षा में छात्र के सामने सिर्फ ज्ञान नहीं उड़ेला जाता। बल्कि छात्र और शिक्षक के बीच में चरित्र निर्माण की भी एक निरंतर प्रक्रिया चलती रहती है । शिक्षक के आचरण का छात्र पर गहरा और गंभीर प्रभाव पड़ता है। भारतीय चिंतन परंपरा के हिसाब से हमारी शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति और चरित्र निर्माण व समाज कल्याण और ज्ञान का उत्तरोत्तर विकास है । जो ऑनलाइन एजुकेशन में संभव नहीं है। ऑनलाइन शिक्षा के लिए आज भी विदेशी एप्प पर हमारी निर्भरता है ?


सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने कहा था कि आज़ादी के फ़ौरन बाद शिक्षा के लिए गठित आयोग में स्कूली और विश्वविद्यालय बच्चों को नैतिक मूल्य पढ़ाना अनिवार्य किया जाए । उनकी अध्यक्षता में बने विश्वविद्यालय शिक्षा आयोगों के प्रतिवेदन में भी कहा गया है कि यदि हम अपनी शिक्षा संस्थानों से आध्यात्मिक प्रशिक्षण को निकाल देंगे तो ऐतिहासिक विकास के विरुद्ध काम करेंगे।पर हम उनके इस कहें पर आगे नहीं बढ़ पाये।


भारत में कोरोना वायरस के 40 लाख से ज्यादा जानें गईं। सीमा पर चीन के साथ विस्फोटक स्थिति रही। लेकिन महीनों से टीवी चैनलों पर एक ही स्टोरी छाई रही कि किस तरह एक बॉलीवुड ऐक्ट्रेस ने अपने एक्स-बॉयफ्रेंड को पॉट (गांजे) और ब्लैक मैजिक से सुसाइड करने को मजबूर कर दिया। महामारी के कारण अंतहीन लॉकडाउन और धडाम होती अर्थव्यवस्था के सामने भारतीय सुशांत सिंह राजपूत की मौत के बाद महीनों टीवी पर इस केस की खबरों पर आंखे गड़ाए बैठे रहे। मीडिया ने देश को इस वेदना और संवेदना के मुहाने पर खड़ा कर दिया ।

इसे नए जैविक युद्ध का ट्रायल रन भी कहा गया। तीसरे विश्वयुद्ध का आरंभ भी बताया गया। जिसके एक सिरे पर अमेरिका और दूसरे सिरे पर चीन है ।कुछ लोगों ने सोशल मीडिया पर यह बताया कि अमेरिका ने इस वायरस को चीन में इसलिए विकसित कराया था कि पहला शिकार चीन बन सके।कहा गया कि चीन की शरारत है। कहा गया कि मानव निर्मित है। इबोला, स्पैनिश फ़्लू आदि की याद दिलाई गई। वर्ष 2008 में जींस और शोधकर्ताओं की टीम ने 335 बीमारियों की पहचान की जो 1060 और 2004 के बीच उभरीं।इनमें से कम से कम साठ फ़ीसदी बीमारियां जानवरों से आयी थीं।19,62 में इबोला नामक एक घातक वायरस ने 37 संक्रमित ग्रामीणों में से 21 की जान ले ली। इनमें वे लोग भी शामिल थे, जो पास के जंगल से एक चिंपांजी को ले गए थे।उसे काट कर खाया था। कुत्तों ने चिम्पांज़ियों को मार डाला था ।चिम्पांजी को काटने पकाने और खाने वालों को कुछ ही घंटों में तेज बुख़ार आया । कुछ लोग तुरंत मर गए । तीस लोग बच गए । इनमें नए नेस्टो बेमेटिसक भी था। उसने कहा कि हम जंगल से प्यार करते थे। लेकिन अब हम डरने लगे हैं । सितंबर , 2019 में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने ' ए वर्ल्ड एट रिस्क' नाम की अपनी रिपोर्ट में 'ऐक्स' नाम की बीमारी के बारे में चेतावनी देते हुए लिखा था कि यह दुनिया तेज़ी से फैलने वाली घातक बीमारियों के लिए तैयार नहीं है। वर्ष 1918 के स्पेनिश फ़्लू के आतंक को याद करते हुए उसने चेताया कि वैसे ही एक महामारी से दुनिया भर में 5-8 करोड़ मौत हो सकती है।


संक्रामक रोग पर्यावरण परिवर्तन और मानव व्यवहार से जुड़े हैं।यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन में पारिस्थितिकी और जैव विविधता पीठ की प्रमुख केट जींस उभरते पशु जनित संक्रामक रोगों को वैश्विक स्वास्थ्य सुरक्षा और अर्थव्यवस्थाओं के लिए महत्वपूर्ण ख़तरा बता चुकी हैं। मनुष्यों द्वारा जैव विविधता के विनाश के कारण नए वायरस पैदा होते हैं ।ताइवान ने विश्व स्वास्थ्य संगठन को इस वायरस के संक्रमण को रोकने के लिए आगाह भी किया था। संगठन पर चीन की राजनीति पकड़ इतनी ज़्यादा हैं कि ताइवान की चेतावनी अनदेखी कर दी गई ।

कोरोना के बाद हमने अनजान और नए मानदंड वाले युग में प्रवेश किया। सोशल डिस्टेंसिंग की ज़रूरत को देखते हुए कठिन हुई सामूहिक राजनीति की अनदेखी करते हुए हमने पंचायत से लेकर विधानसभा चुनाव तक कराये। लोकतंत्र के चरित्र में बदलाव का नया मंजर दिखा । जहां सरकार व नेताओं को लोक की नहीं तंत्र की चिंता ज़्यादा दिखी। राजनीतिक संकीर्णता तो पहले ही देश पर हावी थी । संकट के दौर में धार्मिक और क्षेत्रीय संकीर्णता भी मानवीय मूल्यों और जीवन पर भारी पड़ी।

इस काल खंड में भूखे को भोजन कराने की इच्छा जितने व्यापक पैमाने पर समाज में दिखी। वैसी कभी नहीं देखी गई। पर दूसरी ओर कर्मचारियों को निकालना शुरू हुआ। जिनने निकाला नहीं उनने तनख़्वाहें काटीं । लोगों के मन में स्लो डाउन का भय बैठ गया। जिनके काम मंद हुए हैं, उन्हें ठप्प होने का भय सताने लगा। पूरी दुनिया के आशंकित लोग घर बैठ गये। इस तरह वैश्विक अर्थव्यवस्था ढह गई। लोगों ने जीवित रहने के लिए बुनियादी ज़रूरतों के अलावा कुछ भी ख़रीदने से परहेज़ किया । लोग बाहर नहीं गये तो पैसे खर्च होने का सवाल कहाँ बनता है।


यह सत्य उजागर हुआ कि हमारे अर्थशास्त्र के पाठ्यक्रम में स्वदेशी और स्वावलंबन का समावेश नहीं है। हमारे ढांचे को रोज़गार देने की कमी है। गांवों स्वावलंबी नहीं बन सके है। देश गाँवों में बसता है, यह केवल एक मिथ बै। हक़ीक़त यह है कि गाँव शहरों पर आश्रित है। उदारवादी अर्थव्यवस्था में जैसे जैसे ज़िंदगी की आपाधापी बढ़ती गई परिवार में बच्चों को संस्कारित करने की ज़िम्मेदारी से पीछा छुड़ा लिया गया। हम उपभोक्तावादी संस्कृति में जीने लगे। आधुनिकता के नाम पर उच्च शृंखलता नज़र आने लगी हैं । वैश्विक आपूर्ति शृंखला के समीकरण बदले। भूमण्डलीय की प्रक्रिया को आघात लगा।

इन प्रवृत्तियों के चलते दिमाग़ में कुछ काल्पनिक बिम्ब उभरे। यह भी ज़िंदगी की तुलनात्मक अनुभूति का एक हिस्सा है । प्रकोप ख़त्म होने के बाद लोगों की सोच में फ़र्क आया। अफ़वाह व ' ज्ञान' सोशल मीडिया पर अपनी ज़िम्मेदारी निभाते दिखे। सोशल मीडिया पर बॉयज लाकर रूम और गर्ल्स लाकर रूम के चैट के खुलासे ने ख़ुलासे एक बिलकुल अलग स्थिति पैदा की। हम अब तक हर समस्या को राज्य के ज़िम्मे सौंप निश्चिंत हो जाते थे । लेकिन अब यह चिंता हमारी होनी चाहिए। कई शब्दों के अर्थ बदल गये।

अफ़वाहों का बाज़ार दंगों से भी तेज गति से लगता, पसरता रहा। जीवन के क्षण भंगुर होने की धारणा पुख़्ता हुई। हम सोच रहे थे कि जब हम बाहर निकलेंगे तब क्या हम वैसे ही निकलेंगे जैसा कि घरों के अंदर रहे ? महादेवी वर्मा कह गई है -स्वार्थमय सबको बनाया है करतार ने। हमारे समाज के नव उदारवादी मुक्त मार्केट का अंतस स्वार्थमय है। वही स्वार्थ हमे घोंट रहा है, हम सोच रहे हैं कि हम बाज़ार से प्राप्त वस्तुओं का उपभोग कर रहे हैं।किंतु बात बिलकुल विपरीत है।



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Anant kumar shukla

Anant kumar shukla

Content Writer

अनंत कुमार शुक्ल - मूल रूप से जौनपुर से हूं। लेकिन विगत 20 सालों से लखनऊ में रह रहा हूं। BBAU से पत्रकारिता में पोस्ट ग्रेजुएशन (MJMC) की पढ़ाई। UNI (यूनिवार्ता) से शुरू हुआ सफर शुरू हुआ। राजनीति, शिक्षा, हेल्थ व समसामयिक घटनाओं से संबंधित ख़बरों में बेहद रुचि। लखनऊ में न्यूज़ एजेंसी, टीवी और पोर्टल में रिपोर्टिंग और डेस्क अनुभव है। प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक और डिजिटल मीडिया प्लेटफॉर्म पर काम किया। रिपोर्टिंग और नई चीजों को जानना और उजागर करने का शौक।

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