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OMG: 'याबा' की गिरफ्त में बांग्लादेशी, जानिए कौन इसका सबसे बड़ा उत्पादक?
ढाका: 'याबा' का नाम शायद बहुत लोगों ने नहीं सुना होगा, लेकिन बांग्लादेश और म्यांमार के लोग इससे भली-भांति वाकिफ हैं। याबा होती तो छोटी सी गुलाबी रंग की गोली है, लेकिन इसके खतरे बहुत ज्यादा हैं। इतने ज्यादा कि बांग्लादेश इसकी महामारी से जूझ रहा है।
याबा असल में मेटाम्फेटामाइन नामक एक बेहद खतरनाक ड्रग की गोली है। समझा जाता है कि एशिया के बहुत से देश इस नशे की महामारी की चपेट में हैं। अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा पर प्प्रतिष्ठित पत्रिका 'जेन्स इंटेलीजेंस रिव्यू के अनुसार म्यांमार के ड्रग्स गिरोह जानबूझकर बांग्लादेश में याबा को बड़े पैमाने पर फैला रहे हैं। याबा की तस्करी के लिए तरह-तरह के इन्सेन्टिव तक दिए जा रहे हैं।
म्यांमार दुनिया में याबा का सबसे बड़ा उत्पादक देश है। म्यांमार के सीमावर्ती इलाकों में सशस्त्र गिरोह सक्रिय हैं, जिनके सदस्यों की संख्या दसियों हजार में बताई जाती है। इन गिरोहों ने याबा बनाने और उसके निर्यात का बेहद मुनाफे वाला धंधा पकड़ लिया है। इन गिरोहों में 'यूनाइटेड वा सा स्टेट आर्मी' (यूडब्लूएसए) सबसे बड़ा है जो चीन और थाई सीमा पर बड़े इलाकों पर नियंत्रण जमाए हुए है। इन्हीं इलाकों में याबा निर्माताओं ने अपनी लैब बना रखी हैं। यूडब्लूएसए इनसे 'टैक्स' की वसूली करता है।
पहले म्यंमार, थाईलैंड और लाओस के बीच के सीमावर्ती इलाके में हेरोइन सबसे मुनाफे वाली ड्रग होती थी। इस इलाके को गोल्डेन ट्रेंगिल कहा जाता था, लेकिन समय बीतने के साथ हेरोइन के दशकों पुराने धंधे की जगह याबा ने ले ली। अस्सी के दशक में थाईलैंड में मेटाम्फेटामाइन जैसी एक ड्रग 'यामा' काफी लोकप्रिय होने लगी। असल में इस ड्रग को वे लोग लेते थे जिन्हें रात भर अलर्ट रहते हुए काम करना होता था। जब थाई सरकार ने पारंपरिक एम्फेटामाइन ड्रग पर बैन लगा दिया तो यामा का बाजार गरम हो गया। ट्रक ड्राइवर व स्टूडेंट्स में इसका चलन बढ़ गया। 1996 में थाई पुलिस ने इस ड्रग को नाम दिया 'याबा' यानी पागलपन की ड्रग।
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थाईलैंड में कार्रवाई के बाद नया बाजार तलाशा
थाईलैंड में इस ड्रग का इतना ज्यादा विस्तार हो गया कि 2003 में प्रधानमंत्री शिनवात्रा ने याबा के धंधे के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया और साल भर में ड्रग के धंधेबाज और इसके इस्तेमालकर्ता मिलाकर ढाई हजार लोग पुलिस के हाथों मारे गए। याबा के खिलाफ लड़ाई में कोई कोर्ट कचहरी या मुकदमा नहीं होता था बल्कि सीधे मौत के घाट उतार दिया जाता था।
इसके बाद याबा के धंधेबाजों ने नये बाजार तलाशने शुरू कर दिये और बांगलादेश में इसका व्यापार शुरू हो गया। आज यह हाल है कि बांग्लादेश के नशा मुक्ति केंद्रों में लाए जाने वाले लोगों में 70 फीसदी याबा के नशेड़ी होते हैं। बांग्लादेश-म्यांमार सीमा पर याबा की तस्करी में उछाल पांच साल पहले देखा गया था।
2008 में बांग्लादेश ने 36 हजार गोलियां जब्त की थीं, लेकिन साल भर बाद इनकी तादाद डेढ़ लाख पहुंच गई। 2012 में तो करीब बीस लाख गोलियां जब्त की गईं। थाई अधिकारियों का मानना है कि जो माल जब्त किया जा रहा है, वह तो कुल तस्करी का दस फीसदी ही है। बांग्लादेश के पास संसाधन की कमी और व्यापक भ्रष्टाचार इसका प्रमुख कारण है। एक अनुमान के अनुसार बांग्लादेश में रोजाना कम से कम 25 लाख गोलियों का सेवन किया जाता है और यह संख्या बढ़ती ही जा रही है।
सस्ता प्रोडक्शन
याबा को बनाना सस्ता है सो मुनाफा अच्छा खासा होता है। समझा जाता है कि उत्तरी म्यांमार स्थित किसी लैब में एक गोली बनाने की लागत 5 से 6 रुपए पड़ती है। सीमा तक आते-आते इसका दाम पांच गुना बढ़ जाता है और सीमा पार करते ही 12 से 15 गुना बढ़ जाता है। राजधानी ढाका पहुंचते-पहुंचते याबा की एक गोली का दाम 400 रुपए तक पहुंच जाता है। याबा में मेटाम्फेटामाइन और कैफीन का मिश्रण होता है और यह वनीला जैसे फ्लेवर में आती है। नशेबाज इसे अल्युमिनियम फाइल पर रखकर गर्म करके इसका धुंआ लेते हैं।
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पहले डलवाई जाती है लत
बांग्लादेशी नशा मुक्ति केंद्रों के मुताबिक नशे के धंधेबाज मुफ्त में या बेहद सस्ते में याबा बांटते हैं। इससे मांग पनपती है और फिर बाजार में इसकी जड़ें जम जाती हैं। बांग्लादेश इस नशे का बहुत बढिय़ा बाजार भी है। 15 करोड़ की आबादी वाला यह देश बेहद गरीब है और इस मुस्लिम बहुल देश में अल्कोहल पर प्रतिबंध है।
अस्सी के दशक तक यहां भांग-गांजा के अलावा किसी अन्य मादक पदार्थ का सेवन नहीं किया जाता था। लेकिन चंद वर्ष बाद जनरल इरशाद के सैन्य शासनकाल में यहां गांजा-भांग पर प्रतिबंध लगा दिया गया। इसके बाद पहले हेरोइन ने फिर याबा ने नशे के बाजार पर कब्जा कर लिया।
आज भी बांग्लादेश में हेरोइन आसानी से और सस्ते में उपलब्ध हो जाती है, लेकिन याबा की तुलना में हेरोइन को लो-क्लास माना जाता है। बताया जाता है कि याबा का इस्तेमाल अच्छे खासे लोग ऊर्जा और काम करने की क्षमता बढ़ाने के लिए करते हैं।
याबा के धंधे में रोहिंग्या हैं शामिल
बांग्लादेश के सुरक्षाबल जानते हैं कि म्यांमार से भाग कर आ रहे रोहिंग्या लोगों में बहुत से ऐसे हैं, जो याबा की तस्करी से जुड़े हुए हैं। सीमावर्ती शरणार्थी शिविरों में रह रहे रोहिंग्या लोग यही कारोबार करते पकड़े भी गए हैं। बांग्लादेश की रैपिड एक्शन बटालियन के अधिकारी बताते हैं कि रोहिंग्या लोग समुद्री रास्ते से याबा की तस्करी करते हैं। अधिकारियों का कहना है कि देश में याबा के बढ़ते इस्तेमाल के पीछे म्यांमार से भागकर आ रहे रोहिंग्या शरणार्थी हैं। लेकिन इन शरणार्थियों का कहना है कि चूंकि उनके पास कोई काम धंधा है नहीं सो युवा लोग नशे के कारोबार में पड़ते चले जा रहे हैं।