जर्मनी के स्कूलों में बच्चों को पहले दिन मिलते हैं ढेरों उपहार

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Published on: 22 Feb 2019 7:01 AM GMT
जर्मनी के स्कूलों में बच्चों को पहले दिन मिलते हैं ढेरों उपहार
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जर्मनी के स्कूलों में बच्चों को पहले दिन मिलते हैं ढेरों उपहार

बर्लिन। जर्मनी में बच्चे छह साल की उम्र से स्कूल जाना शुरू करते हैं। उससे पहले तक वे किंडरगार्टन जा सकते हैं। 6 से 15 की उम्र तक स्कूल जाना अनिवार्य है। बच्चों को स्कूल न भेजने पर माता पिता या अभिभावकों को सजा हो सकती है। होम स्कूलिंग यानी बिना स्कूल के घर से ही पढ़ाई करने पर मनाही है। वैसे, हर राज्य के नियम थोड़े बहुत अलग हैं।

स्कूल का पहला दिन बच्चों के लिए खास होता है। सभी बच्चों को टॉफी, चॉकलेट, पेन, पेंसिल और अन्य काम की चीजों से भरा एक उपहार मिलता है। अगले दिन संजीदगी से पढ़ाई शुरू होती है। अधिकतर राज्यों में बच्चे चार साल तक प्राइमरी स्कूल में जाते हैं यानी पहली से चौथी कक्षा तक लेकिन बर्लिन में प्राथमिक शिक्षा छह साल तक चलती है।

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चौथी क्लास के बाद बच्चों का स्कूल बदलता है। वे किस स्कूल में जाएंगे ये इस पर निर्भर करता है कि उनके टीचर ने उनके लिए क्या तय किया है। हालांकि नॉर्थ राइन वेस्टफेलिया राज्य में माता पिता टीचर की सिफारिश को नजरअंदाज कर सकते हैं। बच्चा किस तरह के स्कूल में जाता है, इससे तय होता है कि वह आगे चल कर यूनिवर्सिटी की डिग्री लेगा या फिर वोकेशनल कोर्स करेगा।

माध्यमिक स्कूल में बच्चे यूनिवर्सिटी जाने की तैयारी करते हैं। 12वीं (और कुछ मामलों में 13वीं) क्लास के बाद एक खास किस्म की परीक्षा देनी होती है, जिससे यूनिवर्सिटी में दाखिले की योग्यता तय होती है। इस स्कूल में बच्चों को विज्ञान, गणित, दर्शनशास्त्र और खेल, सब विषय पढऩे होते हैं।

जो बच्चे माध्यमिक स्कूल या जिमनेजियम (जर्मन में गिमनाजियम) में दाखिला नहीं ले पाते या नहीं लेना चाहते उनके लिए ‘रेआलशूले’ का विकल्प होता है। पांचवीं से दसवीं क्लास तक ये लगभग दूसरे स्कूल वाले ही विषय पढ़ते हैं लेकिन स्तर में थोड़ा अंतर होता है। बाद में अगर ये बच्चे चाहें तो यूनिवर्सिटी में दाखिले की परीक्षा भी दे सकते हैं। इसे ‘आबीटूयर’ या फिर स्कूल लीविंग एग्जाम कहा जाता है।

एक अन्य विकल्प है ‘हाउप्टशूले।’ इन बच्चों को भी शुरुआत में लगभग वही विषय पढ़ाए जाते हैं लेकिन बेहद धीमी गति से। यहां से निकलने वाले बच्चे आगे चल कर वोकेशनल ट्रेनिंग करते हैं। जर्मनी में वोकेशनल ट्रेनिंग पर काफी जोर दिया जाता है। हालांकि बाद में अपना मन बदलने वाले छात्रों के लिए ‘आबीटूयर’ का रास्ता यहां बंद नहीं होता है।

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कुछ स्कूल ऐसे होते हैं जो पहले तीनों विकल्पों को एक साथ ले कर चलते हैं। इन्हें ‘गेजाम्टशूले’ कहा जाता है। 1960 और 70 के दशक में जर्मनी में इनका चलन बढ़ा। यहां छात्र चाहें तो 13वीं तक पढ़ाई करें या फिर 9वीं या 10वीं के बाद ही किसी तरह की ट्रेनिंग ले कर नौकरी करना शुरू कर सकते हैं। इस स्कूल की मांग इतनी है कि 2018 में कोलोन शहर को एक हजार अर्जियां खारिज करनी पड़ी थीं। जर्मन शब्द शूले का मतलब होता है स्कूल। इतने तरह के स्कूल हैं कि कई बार यहां रहने वाले लोगों के लिए भी ये उलझन का सबब बन जाते हैं।

वोकेशनल स्कूल

इन्हें ‘बेरूफ्सशूले’ कहा जाता है यानी वह स्कूल जहां कोई पेशा सीखा जा सके। अकसर ये स्कूल इंडस्ट्री या ट्रेड यूनियन के साथ मिल कर काम करते हैं। ऐसे में बच्चे ‘रेआलशूले’ या ‘हाउप्टशूले’ से निकलने के बाद पेशेवर ट्रेनिंग ले सकते हैं। वे किसी फैक्ट्री में काम करना सीख सकते हैं या फिर हेयर ड्रेसर या मेक अप आर्टिस्ट भी बन सकते हैं।

वक्त भी तय नहीं

किसी स्कूल की 12 बजे ही छुट्टी हो जाती है, तो कोई 4 बजे तक खुला रहता है। किसी में डे बोर्डिंग का विकल्प होता है, तो किसी में नहीं होता। ऐसे में कामकाजी माता पिता के लिए दिक्कतें बढ़ जाती हैं। डे बोर्डिंग में बच्चों को खाना भी मिल जाता है और वे वहीं बैठ कर अपना होमवर्क भी पूरा कर सकते हैं। इसके लिए अतिरिक्त शुल्क लगता है। अधिकतर स्कूलों की फीस न के बराबर होती है।

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सीमा शर्मा लगभग ०६ वर्षों से डिजाइनिंग वर्क कर रही हैं। प्रिटिंग प्रेस में २ वर्ष का अनुभव। 'निष्पक्ष प्रतिदिनÓ हिन्दी दैनिक में दो साल पेज मेकिंग का कार्य किया। श्रीटाइम्स में साप्ताहिक मैगजीन में डिजाइन के पद पर दो साल तक कार्य किया। इसके अलावा जॉब वर्क का अनुभव है।

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