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ईरान में 39 साल बाद फिर बदलाव का बवाल, सत्ता समर्थक व विरोधी आमने सामने
ईरान में सरकार व सत्ता समर्थक व विरोधी आमने सामने हैं। दिसंबर के आखिरी हफ्ते से देश में चल रही उथलपुथल और हिंसा में 21 लोग मारे जा चुके हैं जबकि सैकड़ों लोग गिरफ्तार किये गये हैं। सत्ता विरोधी प्रदर्शनकारी आर्थिक नीतियों व मौलवियों का विरोध कर रहे हैं वहीं जवाबी हमले में विरोधियों को ‘देशद्रोही’ करार दे कर उन्हें फांसी देने की मांग की जा रही है।
ईरान में हो रहे प्रदर्शनों ने विश्व समुदाय को अचंभित कर रखा है। प्रदर्शन का कोई नेता नहीं है, इनके संदेश मिश्रित हैं और इनका फैलाव जबर्दस्त है। इन प्रदर्शनों के मायने बहुत बड़े हैं क्योंकि ये इस इस्लामिक रिपब्लिक में गहरे समाये गुस्से को दर्शा रहे हैं। इन प्रदर्शनों का संदेश कुल मिला कर यही है कि इस्लामिक क्रांति के 39 साल के सफर में देश की आर्थिक और राजनीतिक प्रगति शून्य रही है।
ईरानी राष्ट्रपति हसन रूहानी ने पिछले दो साल जो बड़े कदम उठाये हैं उससे कट्टरपंथी बेहद नाराज हैं। रूहानी ने ईरान की एटमी डील को अंतिम रूप दिया, कट्टरपंथियों की बजाये सुधारवादियों का साथ दिया, आईएमएफ की सलाह मानते हुये नयी आर्थिक नीति लागू की और सबसे बड़ी बात ये कि देश में व्याप्त उच्च स्तरीय भ्रष्टाचार से निपटने के लिये कदम उठाये। रूहानी ने जो बीज बोये हैं उनके फल फिलहाल अभी तो नहीं तो नहीं मिले हैं लेकिन इनसे लोगों में नाराजगी जरूर बढ़ी है। लेकिन हैरत की बात है कि प्रदर्शनों का निशाना रूहानी नहीं हैं।
शुरुआत में प्रदर्शनों का निशाना महंगाई थी लेकिन जल्द ही ये सरकार के खिलाफ मुड़ गयी और सबसे हैरत की बाते ये कि ईरान के सुप्रीम लीडर अयातोल्ला अली खमैनी के खिलाफ जबर्दस्त नाराजगी रही है। यहां तक कि ३० दिसंबर जो कि ‘सुप्रीम लीडर के साथ एकजुटता’ दिवस के रूप में मनाया जाता है उस दिन प्रदर्शनकारियों ने राष्ट्रध्वज जलाया और खमैनी के फोटो फाड़ डाले। लोगों का गुस्सा मौलवियों की सत्ता, इनके दमनात्मक रवैये और ईरान के बजाये सीरिया, इराक और फलस्तीन पर फोकस किये जाने को ले कर था।
मौलवियों का दावा है कि ईरान में उथलपुथल विदेशी ताकतों द्वारा प्रायोजित है जो चाहती हैं कि ईरान में अराजकता फैल जाये। लेकिन असलियत ये है कि प्रदर्शनों का सिलसिला धार्मिक कट्टरपंथियों द्वारा ही शुरू किया गया है। शुरुआत हुई ईरान के दूसरे सबसे बड़े शहर मशाद से जहां मौलवियों ने अंडे की बढ़ती कीमतों पर लोगों की नाराजगी को आग देना शुरू किया और अपने अनुयायियों को उकसाया कि वे २८ दिसंबर को प्रदर्शन आयोजित करें।
मांग की गयी कि राष्ट्रपति रूहानी इस्तीफा दें और नए चुनाव कराए जाएं। हालांकि रूहानी पिछले ही साल राष्ट्रपति चुने गये थे। शायद मौलवियों को भी अंदाजा नहीं रहा होगा कि अंडे की कमतों पर बवाल किस दिशा में मुड़ जायेगा। क्योंकि प्रदर्शनों का सिलसिला तेजी से अन्य शहरों में न सिर्फ फैल गया बल्कि इनकी ध्वनि भी बदल गयी। प्रदर्शनकारियों की मांग में जुड़ गया कि न सिर्फ रूहानी बल्कि सत्तासीन मौलवी और इस्लामिक आर्म्ड गार्ड्स के उनके सशस्त्र रक्षक भी इस्तीफा दें।
प्रदर्शनकारियों के नारों में अब ये भी शामिल हो गया कि ‘जनता भिखारी है लेकिन मुल्ला भगवान की तरह रह रहे हैं’ और ‘रूढि़वादी और सुधारवादी दोनों नहीं चलेंगे।’ सबसे बड़ी बात ये रही है कि मौलवियों के दावों के विपरीत प्रदर्शनकारियों का कोई नेतृत्व नहीं है।
असल में रूहानी के चुने जाने के बाद से देश में निराशा बढ़ती ही जा रही है। चुनाव के पहले रूहानी एक मुक्त, सुधारवादी और जन-भागीदारी वाले शासन की वकालत करते आये थे लेकिन जब उनकी सरकार बनी तो कैबिनेट में न तो कोई महिला थी और न कोई सुन्नी। अन्य अल्पसंख्यकों को भी नाममात्र का प्रतिनिधित्व दिया गया था। चुनाव में रूहानी को महिलाओं के खूब वोट मिले थे लेकिन महिलाओं पर लगे प्रतिबंध सरकार बनने पर भी जारी रखे गये।
बहरहाल, जो कुछ भी हो रहा है वह दबी-ढंकी आर्थिक समस्याओं का फूट कर बाहर आना कहा जा सकता है। इसमें राजनीतिक कारण ज्यादा नहीं हैं। ताजा प्रदर्शनों से पहले फैक्ट्रियों के मजदूरों ने बकाया वेतन का भुगतान न होने पर हड़ताल कर दी थी जबकि पेंशनरों ने पेंशन बढ़ाने की मांग को लेकर रैली निकाली थी।
असल में जनता यह जानना चाह रही है कि देश का धन यमन, लेबनान, गाजा के लड़ाका गुटों और सीरिया के तानाशाह को क्यों दिया जा रहा है जबकि खुद ईरान के ग्रामीण प्रांत विकास के नजरिये से नजरअंदाज किये जा रहे हैं। ईरान में बेरोजगारी दर १२ फीसदी से ज्यादा है। वैसे, मौलवी भी चुप नहीं बैठे हैं। इन्होंने सरकार के पक्ष में जवाबी प्रदर्शन का आह्वान किया और ८ जनवरी को कई शहरों में लोग सडक़ों पर उमड़ पड़े। इन प्रदर्शनों में अमेरिका, इजरायल और ब्रिटेन के खिलाफ नारेबाजी की गयी।
इंटरनेट ठप
वर्तमान हालात में एक बड़ी बात साबित हुयी है कि इस्लामिक गार्ड्स सता की रीढ़ हैं। आंदोलन को काबू में करने के लिये अधिकारियों ने मैसेजिंग एप (खास कर टेलीग्राम) स्विच ऑफ कर दिये और वीपीएन (वर्चुअल प्राइवेट नेटवर्क) भी ठप कर दिये जिससे लोगों में संदेशों का आदान-प्रदान रुक गया। इस्लामिक गार्ड्स वर्तमान स्थितियों मेन अपने लिये राजनीतिक लाभ लेने की फिराक में है।
इस्लामिक गार्ड्स लोगों को यह बताना नहीं भूलता कि राष्ट्रपति रूहानी के शासन में जीवन स्तर गिरा है जबकि महमूद अहमदीनेजाद के समय में हालात बढिय़ा थे। बता दें कि अहमदीनेजाद को गार्ड्स का समर्थन था। ईरान में जो हो रहा है उससे राष्ट्रपति रूहानी कमजोर जरूर पड़े हैं। प्रदर्शनों से रूहानी की छवि खराब हुयी है और ईरान के सुप्रीम लीडर अयातोल्ला अली खमैनी का उत्तराधिकारी बनने का उनका ख्वाब टूट भी सकता है।
दमन का डर
बहरहाल, अभी तक प्रदर्शनों में छात्रों की बड़ी हिस्सेदारी रही है। लेकिन मध्यम वर्ग और सुधारवादी आगे की कतार में नहीं हैं। लोगों में यह डर भी है कि कहीं २००९ जैसा हश्र न हो जाये जब राष्ट्रपति चुनाव में धांधली के आरोप लगाते हुए प्रदर्शन हुये थे जिसे निर्दयतापूर्वक दबा दिया गया था। चिंता यह भी है कि कहीं ये आंदोलन हाथ से बाहर न निकल जाये जैसा कि कुछ शहरों में हुआ भी और जहां पुलिस फायरिंग में मौतें हुयीं। सत्ता विरोधी प्रदर्शनों का कोई स्पष्ट नेता नहीं है। विपक्ष के नेता लंबे समय से खामोश हैं या फिर निर्वासन में भेज दिए गए हैं।
यहां तक कि जो लोग निर्वासित जीवन जी रहे हैं, उनमें से भी कोई ऐसा नहीं है जिसके समर्थक बड़ी तादाद में हों। कुछ प्रदर्शनकारी पुरानी राजशाही को बहाल करने की मांग कर रहे हैं और अमरीका में निर्वासन में रह रहे पूर्व शाह के बेटे रजा पहलवी ने प्रदर्शनकारियों के समर्थन में बयान भी जारी किया है। लेकिन हर किसी की तरह वे भी उतने ही अंधेरे में हैं, किसी को फिलहाल ये नहीं मालूम है कि इन विरोध प्रदर्शनों की दशा और दिशा क्या होने वाली है।
मौलवियों पर रूहानी का निशाना
ईरान के राष्ट्रपति हसन रूहानी ने अपने कट्टïरपंथी विरोधियों पर निशाना साधते हुए कहा है कि ईरानी युवासिर्फ अर्थव्यवस्था से ही नाराज नहीं हैं बल्कि उन्हें देश के ‘क्रांतिकारी उच्च वर्ग’ के विचार और उनकी लाइफ स्टाइल अब और पसंद नहीं हैं।
६९ वर्षीय रूहानी ने देश में सोशल मीडिया पर लगे प्रतिबंध हटाये जाने का आह्वान किया और कहा कि जनता की मांगें आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक हैं। उन्होंने कहा कि ‘हम एक विशेष लाइफस्टाइल अपनाएं और अपने से दो पीढ़ी कम उम्र वाले युवा वर्ग से उसी लाइफस्टाइल अपनाने को कहें, यह संभव नहीं है। जिंदगी और दुनिया के बारे में युवा पीढ़ी के विचार हमसे एकदम अलग हैं।
सुप्रीम लीडर चलाता है देश
ईरान में सुप्रीम लीडर की ही देश में चलती है। यह व्यवस्था १९७९ की क्रांति के बाद से ही। सुप्रीम लीडर ही देश की सशस्त्र सेनाओं का कमांडर इन चीफ होता है, वो ही न्यायपालिका का प्रमुख होता है। महत्वपूर्ण मंत्रियों का चयन उसकी सहमति से होता है और वो ही देश की विदेश नीति के बारे में अंतिम निर्णय लेता है। ऐसे में समझा जा सकता है कि ईरान के राष्ट्रपति के पास बहुत कम अधिकार या शक्तियां होती हैं।
वर्तमान में ईरान के सुप्रीम लीडर हैं ७८ वर्षीय अयातोल्ला अली खमैनी। इनके पहले सुप्रीम लीडर थे रुहोल्ला खुमैनी। ईरान में शासन की इस व्यवस्था को अन्य शिया देशों के शीर्ष धर्म गुरु पसंद नहीं करते हैं। इराक के ही मुख्य अयातोल्ला अली अल सिस्तानी ही ईरान मॉडल की आलोचना करते हैं।
इस्लामिक रिवोल्यूशनरी गार्ड्स
ईरान के प्रशासनिक ढाँचे के अनुसार सामान्य परिस्थितियों में ‘आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरा’ होने पर इससे निपटने का जिम्मा पुलिस, खुफिया तंत्र का होता है. लेकिन स्थिति गंभीर होने पर इससे निपटने की जिम्मेदारी रिवॉल्यूशनरी गार्ड को दे दी जाती है। साल 1979 की ईरानी क्रांति के बाद मुल्क में रिवॉल्यूशनरी गार्ड का गठन किया गया था। ये ईरान के सुप्रीम लीडर अयातुल्ला खुमैनी का फैसला था।
रिवॉल्यूशनरी गार्ड का म$कसद नई हुकूमत की हिफाजत और आर्मी के साथ सत्ता संतुलन बनाना था। ईरान में शाह के पतन के बाद हुकूमत में आई सरकार को ये लगा कि उन्हें एक ऐसी फौज की जरूरत है जो नए निजाम और क्रांति के मकसद की हिफाजत कर सके। ईरान के मौलवियों ने एक नए कानून का मसौदा तैयार किया जिसमें रेगुलर आर्मी को देश की सरहद और आंतरिक सुरक्षा का जिम्मा दिया गया और रीवॉल्यूशनरी गार्ड को निजाम की हिफाजत का काम दिया गया।
लेकिन वक्त के साथ-साथ रिवाल्यूशनरी गार्ड ईरान की फौजी, सियासी और आर्थिक ताकत बन गई। रिवाल्यूशनरी गार्ड के मौजूदा कमांडर-इन-चीफ मोहम्मद अली जाफरी ने हर उस काम को बखूबी अंजाम दिया है जो ईरानी के सुप्रीम लीडर ने उन्हें सौंपा।
माना जाता है कि गार्ड में फिलहाल सवा लाख जवान हैं। इनमें जमीनी जंग लडऩे वाले सैनिक, नौसैना, हवाई दस्ते हैं और ईरान के रणनीतिक हथियारों की निगरानी का काम भी इन्हीं के जिम्मे हैं। इसके इतर ‘बासिज’ एक वॉलंटियर फोर्स है जिसमें करीब 90 हजार पुरुष व स्त्रियां शामिल हैं। इतना ही नहीं बासिज फोर्स जरूरत पडऩे पर दस लाख वॉलंटियर्स को इकट्ठा करने का माद्दा भी रखती है।
बासिज का पहला काम देश के भीतर सरकार विरोधी गतिविधियों से निपटना है। साल 2009 में जब अहमदीनेजाद के राष्ट्रपति चुनाव जीतने की खबर आई तो सडक़ों पर विरोध भडक़ उठा था और बासिज फोर्स ने दूसरे उम्मीदवार मीर हसन मुसावी के समर्थकों को दबाने के लिए पूरी ताकत झोंक दी। इसके बाद कुद्स फोर्स है जो गार्ड की स्पेशल आर्मी है। यह विदेशी जमीन पर संवेदनशील मिशन को अंजाम देता है। हिजबुल्ला और इराक के शिया लड़ाकों जैसे ईरान के करीबी सशस्त्र गुटों हथियार और ट्रेनिंग देने का काम भी इसी फोर्स का ही है।
माना जाता है कि रिवॉल्यूशनरी गार्ड ईरान की अर्थव्यवस्था के एक तिहाई हिस्से को नियंत्रित करता है। अलग-अलग क्षेत्रों में काम कर रही कई चैरिटी संस्थानों और कंपनियों पर उसका नियंत्रण है। बहरहाल, रिवाल्यूशनरी गार्ड्स ने सरकार विरोधी प्रदर्शनकारियों को इस सिलसिले में चेताया भी है कि अगर राजनीतिक विरोध जारी रहा तो उन्हें कड़ी कार्रवाई का सामना करना होगा।