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बदल चुकी है भारत की फलस्तीन पॉलिसी, अब इजरायल से है दोस्ताना
भारत का रुख अब पहले की तरह फलस्तीन समर्थक नहीं रह गया है। भारत का रुख यही है कि इजरायल और फलस्तीन के बीच जारी संघर्ष, हिंसा और हमले खत्म होने चाहिए।
लखनऊ: इजरायल और फलस्तीन के बीच जारी संघर्ष में भारत का रुख दोनों पक्षों में कुछ हद तक तटस्थ है। भारत का रुख यही है कि हिंसा और हमले खत्म होने चाहिए। दरअसल, भारत का रुख अब पहले की तरह फलस्तीन समर्थक नहीं रह गया है। कांग्रेस और यूपीए के शासनकाल के दौरान भारत का झुकाव और मित्रता फलस्तीन के साथ थी। लेकिन अब हालात बदल चुके हैं और भारत की घनिष्टता इजरायल के साथ ही।
रुख बदलने के पीछे कई फैक्टर
- सोवियत संघ (अब रूस) का एन्टी इजरायल रुख। इसकी वजह अमेरिका और इजरायल कक घनिष्ठता। दशकों तक भारत साम्यवादी प्रभाव में रहा और सोवियत संघ से पक्की दोस्ती रही सो लाजमी था कि फलस्तीन का भी साथ दिया जाए। अब रूस का भारत पर कोई प्रभाव नहीं है और भारत की दोस्ती अमेरिका से ज्यादा घनिष्ठ है।
- भारत तेल के लिए अरब देशों पर निर्भर था। इजरायल के साथ देने पर अरब देश नाराज हो जाते। अब कई अरब देश खुद इजरायल से संबंध बना चुके हैं। सऊदी अरब तक अमेरिका के गहरे प्रभाव में है। इसके अलावा तेल के लिए मिडिल ईस्ट पर भारत पूरी तरह निर्भर नहीं है।
- मुस्लिम फैक्टर के चलते भी भारत का झुकाव फलस्तीन की तरफ रहा लेकिन जैसे जैसे अरब देश, मिस्र आदि इजरायल के मित्रवत हो गए तो भारत का मुस्लिम फैक्टर भी कमजोर हो गया।
- व्यवसायिक पहलू भी बहुत महत्वपूर्ण है। वैश्वीकरण और विश्व व्यापार बढ़ने के साथ उन देशों का महत्व ज्यादा है जो व्यापार, तकनीक और धन से मजबूत हैं। सो ऐसे में फलस्तीन कहीं से भी इजरायल के सामने खड़ा नहीं हो सकता।
धीरे धीरे बदली नीति
फलस्तीन और फलस्तीन नेशनल ऑथोरिटी के प्रति भारत की नीति रातोंरात नहीं बदली है बल्कि धीरे धीरे इसमें शिफ्ट आया है। इस बदलाव से फलस्तीनियों की निराशा 2015 में ही सामने आ गई थी जब राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी फलस्तीन गए थे। वहां की अल क़ुद्स यूनिवर्सिटी में जब मुखर्जी को सम्मानित किया जा रहा था तब छात्रों ने शोर मचाते हुई नारे लगाए थे कि " आपको हमारी बात सुननी होगी।"
भारत ही पहला गैर अरब देश था जिसने फलस्तीन लिबरेशन आर्गेनाईजेशन यानी पीएलओ को मान्यता दी थी। आज हमास फलस्तीनियों के लिए लड़ रहा है लेकिन दशकों पहले पीएलओ ही फलस्तीनियों का इकलौता वैधानिक प्रतिनिधि था।
2015 में ही भारत ने संयुक्तराष्ट्र मानवाधिकार कॉउंसिल में इजरायल के खिलाफ एक प्रस्ताव पर वोटिंग के समय भारत अनुपस्थित रहा। इससे से भी फलस्तीनियों को बहुत निराशा हुई। ये प्रस्ताव ठीक आज जैसी स्थिति में आया था। हुआ ये था कि 2014 में गाज़ा में इजरायल के खिलाफ विद्रोह भड़क उठा जिसे दबाने के लिए इजरायल ने एक लाख सैनिक उतार दिए थे।
इसके बाद प्रधामनंत्री मोदी की इजरायल यात्रा बहुत महत्वपूर्ण रही। किसी भारतीय पीएम की यह पहली यात्रा थी। नेतन्याहू और मोदी के बीच गर्मजोशी, दोनों देशों के बीच विभिन्न समझौतों से इस मित्रता पर पक्की मुहर लग चुकी है।
मौजूदा माहौल में भारत मुख्यतः तटस्थ है लेकिन अगर किसी का पक्ष लेने की बात आती है तो निश्चित ही इजरायल के ही पक्ष में बात जाएगी। इजरायल के खिलाफ संयुक्तराष्ट्र में प्रस्ताव लाने की कोशिशें हो रहीं हैं जिनको अमेरिका जमकर रोके हुए है। अगर प्रस्ताव आता भी है तो 2015 को दोहराए जाने पर कोई हैरानी नहीं होनी चाहिए।