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पहले से ज्यादा ताकतवर हुए एर्दोवान
अंकारा : तुर्की की जनता ने एक बार फिर रेसेप तैयप एर्दोवान को अपना राष्ट्रपति चुन लिया है। तुर्की में 24 जून को हुए राष्ट्रपति चुनाव में एर्दोवान की एकेपी पार्टी को 50 फीसदी से ज्यादा वोट मिले हैं। पिछले करीब दो साल से इमेरजेंसी झेल रहे तुर्की की जनता ने फिर से एर्दोगन पर ही विश्वास जताया है। ये चुनाव नवंबर 2019 में होने थे लेकिन एर्दोवान ने अचानक समय से पहले चुनाव कराने की घोषणा कर दी थी।
तुर्की राष्ट्रपति चुनाव में कुल 6 उम्मीदवार मैदान में थे। एर्दोवान को सबसे ज्यादा 52.5 फीसदी वोट मिले हैं, उसके बाद इंजे को 30.7 फीसदी, देमिर्तास को 8.4 फीसदी और एक्सेनर को 7.3 फीसदी ने लोगों ने वोट किया। उधर विपक्षी पार्टियों ने हार को स्वीकार करते हुए कहा है कि वे तुर्की में लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए अपनी लड़ाई को जारी रखेंगे। इस जीत के बाद एर्दोवान अब और ज्यादा ताकतवर हो जाएंगे।
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अब सरकारी अधिकारियों, मंत्रियों और उप-राष्ट्रपति की सीधी नियुक्ति होगी। एर्दोवान न सिर्फ अपने मुल्क के कानून सिस्टम में दखल देंगे, बल्कि उनके पास तुर्की में आपातकाल लगाने की भी शक्ति होगी। एर्दोवान की चुनौतियां भी कम नहीं हैं। पिछले करीब दो साल से आपातकाल झेल रहे तुर्की की अर्थव्यवस्था को बहुत नुकसान हुआ है। महंगाई से पार पाना राष्ट्रपति के लिए सबसे बड़ी चिंता में से एक है। वहीं, कुर्दिश आतंकियों के हमले और आतंकवाद भी सिरदर्द बना हुआ है। सीरिया में इस्लामिक स्टेट के आतंकियों से लडऩा और शरणार्थियों को वापस भेजना एर्दोवान की सबसे बड़ी चुनौती में से एक है।
एकछत्र साम्राज्य
इस्लामी और रूढि़वादी एकेपी पार्टी के 2002 में सत्ता में आने के बाद से तुर्की बहुत बदल गया है। बारह साल प्रधानमंत्री रहे एर्दोवान 2014 में राष्ट्रपति बने थे। अब तुर्की में पहली बार राष्ट्रपति शासन प्रणाली लागू की गई है जिसमें एर्दोवान के पास पहले से कहीं ज्यादा शक्तियां होंगी। तुर्की में प्रधानमंत्री पद खत्म कर दिया गया है। राष्ट्रपति ही अब कैबिनेट की नियुक्ति करेगा, उसके पास उपराष्ट्रपति नियुक्त करने का अधिकार होगा। कितने उपराष्ट्रपति नियुक्त करने हैं, यह राष्ट्रपति ही तय करेगा। मंत्रालयों के गठन और नियमन के लिए राष्ट्रपति अध्यादेश जारी करने में सक्षम होंगे। नौकरशाहों की नियुक्ति और उन्हें हटाने का फैसला भी राष्ट्रपति करेंगे। इसके लिए उन्हें संसद से मंजूरी लेने की जरूरत नहीं होगी। ये अध्यादेश मानवाधिकार या बुनियादी स्वतंत्रताओं और मौजूदा कानूनों को खत्म करने पर लागू नहीं होंगे। अगर राष्ट्रपति के अध्यादेश कानूनों में हस्तक्षेप करते हैं तो इस स्थिति में अदालतें फैसला करेंगी।
एर्दोवान की एकेपी पार्टी के 2002 में सत्ता में आने के बाद से तुर्की बहुत बदल गया है। तुर्की इन सालों में और ज्यादा रूढि़वादी और धर्मभीरू हो गया। जिस तुर्की में कभी बुरके और नकाब पर रोक थी वहां हेडस्कार्फ की बहस के साथ सड़कों पर ज्यादा महिलायें सिर ढंके दिखने लगी हैं। एकेपी के सत्ता में आने से पहले तुर्की की राजनीति में सेना का वर्चस्व था। देश की धर्मनिरपेक्षता की गारंटी की जिम्मेदारी उसकी थी। एर्दोवान के शासन में सेना लगातार कमजोर होती गई। लेकिन सत्ता में स्थिरता आई और आर्थिक हालात बेहतर हुए। एर्दोवान के उदय के साथ राजनीति में अक्खड़पन का भी उदय हुआ। खरी खरी बातें बोलने की उनकी आदत को लोगों ने ईमानदारी कह कर पसंद किया, लेकिन यही रूखी भाषा आम लोगों ने भी अपना ली। कमालवाद के दौरान तुर्की अलग थलग रहने वाला देश था। वह दूसरों के घरेलू मामलों में दखल नहीं देता था। लेकिन एर्दोवान के नेतृत्व में तुर्की ने मुस्लिम दुनिया का नेतृत्व करने की ठानी। सीरिया में दखलंदाजी इसी का नतीजा है।
जर्मनी में खुशियां
तुर्की में उनके समर्थकों में तो जीत का जश्न देखा ही गया, साथ ही जर्मनी में भी तुर्क मूल के लोगों को हाथ में तुर्की का झंडा लिए खुशी का इजहार करते देखा गया। जर्मनी में करीब 25 लाख तुर्क मूल के लोग रहते हैं। इनमें से करीब सात लाख के पास जर्मनी की नागरिकता है। 4 लाख 75 हजार ने इस चुनाव में हिस्सा लिया जो वोट देने के लिए योग्य लोगों का कुल 43 फीसदी था। जर्मनी और तुर्की की अगर तुलना की जाए, तो जहां तुर्की में एर्दोवान को 52.6 प्रतिशत वोट मिले, तो वहीं जर्मनी में 65.7 प्रतिशत। साथ ही संसदीय चुनावों में उनकी एकेपी पार्टी को तुर्की में 42.5 फीसदी वोट मिले हैं और जर्मनी में 56.3 फीसदी। विपक्ष के नेता मुहर्रम इंचे की सीएचपी पार्टी को जहां तुर्की में 31 फीसदी वोट मिले हैं, तो जर्मनी में महज 22 फीसदी ही।
इससे पहले अप्रैल 2017 में हुए जनमत संग्रह के दौरान भी जर्मनी में रहने वाले तुर्क मूल के लोगों में 63 फीसदी ने देश की व्यवस्था को बदलने की पक्ष में मत दिया था, जबकि तुर्की में 51 फीसदी लोगों ने 'हां में अपना मत दिया था। जर्मनी में मौजूद तुर्क मूल की इतनी बड़ी संख्या की वजह देश का इतिहास है। दरअसल 60 के दशक में बड़ी संख्या में तुर्की से लोगों को मजदूरी के लिए यहां बुलाया गया था। देश के पुनर्निर्माण में इन लोगों ने बड़ी भूमिका निभाई थी। हालांकि शुरुआत में इन्हें केवल दो साल के लिए ही बुलाया जाता था और परिवार को साथ में लाने की भी अनुमति नहीं होती थी लेकिन वक्त के साथ नियम कानून बदले और अधिकतर लोग जर्मनी में ही बस गए। आज जर्मनी में मौजूद विदेशियों का सबसे बड़ा तबका तुर्क मूक का ही है।