Best Bhagavad Gita Quotes: कर्म सन्यास योग, संन्यासी कर्ता भव से होता है मुक्त

Best Bhagavad Gita Quotes: गीता में भगवान अर्जुन से कहते हैं- जो पुरुष न किसी से द्वेष करता है और न किसी की आकांक्षा, वह सदा संन्यासी ही समझने योग्य है। क्योंकि, हे महाबाहो ! द्वन्द्वों से रहित पुरुष सहज ही बन्धन मुक्त हो जाता है॥

Update:2023-08-08 07:28 IST
Best Bhagavad Gita Quotes (Photo- Social Media)

Best Bhagavad Gita Quotes: अब विचारणीय विषय यह है कि हम द्वन्द्वों से मुक्त कैसे हों? सांख्य-योग और कर्म-योग में मेरी समझ से कोई अंतर नहीं है। यदि कोई अंतर है, तो वह मुझे समझ में नहीं आया है। मेरी समझ से हम निमित्त मात्र होकर नित्य नियमित रूप से भगवान का ध्यान करें और कर्ता भाव से मुक्त हो जाएँ, तो हम सन्यासी ही हैं।

गीता में भगवान अर्जुन से कहते हैं :-

ज्ञेयः स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति

निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते॥५:३॥

अर्थात् :- जो पुरुष न किसी से द्वेष करता है और न किसी की आकांक्षा, वह सदा संन्यासी ही समझने योग्य है। क्योंकि, हे महाबाहो ! द्वन्द्वों से रहित पुरुष सहज ही बन्धन मुक्त हो जाता है॥

हम किंचित् मात्र कोई भी कर्म नहीं करते हैं। देखते, सुनते, स्पर्श करते, सूंघते, खाते, चलते, सोते, और श्वास लेते हुए भगवान ही सारे कर्म कर रहे हैं। हम तो निमित्त, एक साक्षी मात्र हैं। राग-द्वेष और अहंकार से मुक्ति को वीतरागता कहते हैं। वीतराग व्यक्ति ही स्थितप्रज्ञ हो सकता है। सभी प्राणियों की आत्मा ही हमारी आत्मा है। आत्मा के साथ एकत्व ध्यान साधना में ही हो सकता है। अपने अन्तःकरण को आत्मा में लगाए रखें। हमारी आत्मा ही सारी सृष्टि की आत्मा है।

भगवान कहते हैं :-

ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति य:

लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा ॥५:१०॥

अर्थात् :- जो पुरुष सब कर्म ब्रह्म में अर्पण करके और आसक्ति को त्याग कर करता है, वह पुरुष कमल के पत्ते के सदृश पाप से लिप्त नहीं होता॥

हमारे में अज्ञान का नाश होगा तभी भगवान हम में प्रकट और व्यक्त होंगे। हमारा लक्ष्य ब्रह्म यानि भगवत्-प्राप्ति है। निरंतर ब्रह्म-चिंतन से हम कर्मफलों से मुक्त हो जाते हैं। समत्व भाव का आना स्वयं के सिद्ध होने का आरंभ है। भगवान कहते है कि अक्षय सुख की प्राप्ति ब्रह्म के ध्यान में समाहित चित्त वाले पुरुष को ही होती है.

स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते।( ५:२१)

अर्थात् :- बाह्य विषयों में आसक्तिरहित अन्त:करण वाला पुरुष आत्मा में ही सुख प्राप्त करता है; ब्रह्म के ध्यान में समाहित चित्त वाला पुरुष अक्षय सुख प्राप्त करता है।

भगवान कहते हैं :-

ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते।

आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः॥५:२२॥

अर्थात् :- हे कौन्तेय ( इन्द्रिय तथा विषयों के ) संयोग से उत्पन्न होने वाले जो भोग हैं वे दु:ख के ही हेतु हैं, क्योंकि वे आदि-अन्त वाले हैं। बुद्धिमान् पुरुष उनमें नहीं रमता। इस शरीर के शांत होने से पूर्व ही हम इंद्रिय सुख की कामनाओं और क्रोध से मुक्त हो जाएँ, तो हमारा कल्याण होगा। आत्म-ज्ञान में ही वास्तविक सुख है।

बाह्य पदार्थों को बाहर ही छोड़कर और नेत्रों की दृष्टि को भ्रूमध्य में स्थिर कर, नासिका में विचरनेवाले प्राण और अपान वायु को अजपा-जप ( हंसःयोग ) द्वारा स्थिर करेंगे तो भगवान हमें आगे का मार्ग अवश्य दिखायेंगे।

कई बाते ऐसी हैं जो सार्वजनिक मंचों पर नहीं बताई जातीं। उनकी चर्चा गुरु-परंपरा के भीतर ही की जा सकती हैं। अपने मन को पूर्ण प्रेम यानि भक्ति से भगवान में लगा कर अन्य विषयों का चिंतन न करें। यही भगवान के ध्यान का आरंभ है, जो हमें जीवनमुक्त और सन्यासी बना देगा।

भगवान ने जैसी बुद्धि और जैसी प्रेरणा मुझे दी, वैसा ही यहाँ लिख दिया। भगवान से प्रार्थना करता हूँ-

वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्कः प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च।

नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते॥

नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व।

अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः॥

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