Bhagavad Gita adhyay First: भगवद्गीता-अध्याय -1 श्लोक (संजय उवाच)

Bhagavad Gita adhyay First: हम सभी जानते हैं की अर्जुन ने धृतराष्ट्र पक्ष को गंधर्वों से बचाया था। विराट पर्व के अंतर्गत अर्जुन ने छद्म वेश में रहते हुए भी धृतराष्ट्र पक्ष के लोगों के छक्के छुड़ा दिए थे। वही अर्जुन अपने भाइयों व हितैषियों के साथ धृष्टद्युम्न के सेनापतित्व में कुरुक्षेत्र में खड़ा था।

Update:2023-07-06 22:18 IST
Bhagavad Gita adhyay First (Pic: Social Media)

दृष्ट्वा तु पांडवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा ।

भीआचार्यमुपसंगम्य राजा वचनमब्रवीत ।।

सरलार्थ - पांडवों की सेना को देखकर राजा दुर्योधन ने आचार्य (द्रोण) के निकट जाकर यह वचन कहा।

निहितार्थ - युद्ध के प्रथम दिन पांडव सेना की वज्र -व्यूह के अनुसार रचना हुई थी। व्यूह की रचना इस प्रकार की जाती है ताकि अपने पक्ष के न्यूनतम सैनिक हताहत हों और शत्रु - पक्ष को भयभीत कर उसका मनोबल तोड़ा जा सके। इस दृष्टि से पांडवों की व्यूह - रचना सफल साबित हुई थी। दुर्योधन को केवल सेना नहीं वरन् वज्र - व्यूह से सुसज्जित सेना दिख रही है। दुर्योधन युद्ध करने पर आमादा है, अतः उसी दृष्टि से उसे ऐसा दिखाई दे रहा है - यह बात संजय धृतराष्ट्र को बता रहे हैं।

हम सभी जानते हैं की अर्जुन ने धृतराष्ट्र पक्ष को गंधर्वों से बचाया था। विराट पर्व के अंतर्गत अर्जुन ने छद्म वेश में रहते हुए भी धृतराष्ट्र पक्ष के लोगों के छक्के छुड़ा दिए थे। वही अर्जुन अपने भाइयों व हितैषियों के साथ धृष्टद्युम्न के सेनापतित्व में कुरुक्षेत्र में खड़ा था। युद्ध की प्रस्तुति में पांडवों को देखकर दुर्योधन तनिक विचलित हुआ तथा विचार किया कि ऐसे समय मुझे तत्काल क्या करना चाहिए ?

दुर्योधन को तुरंत ध्यान में आया कि जब पांडव जुए में अपना इंद्रप्रस्थ राज्य गंवा चुके थे तब दुर्योधन ने इंद्रप्रस्थ राज्य को आचार्य द्रोण को सौंप दिया था। दुर्योधन आम प्रजाजन के बीच अपनी छवि सुधारने की कोशिश की थी कि उसने पांडवों का राज्य नहीं लिया तथा आचार्य द्रोण को अपना कृतज्ञ भी बना लिया। अतः इस विचार का ख्याल आते ही दुर्योधन आचार्य द्रोण के पास इसका एहसास दिलाने के लिए गया कि यदि पांडव युद्ध में जीत जाएंगे, तो इंद्रप्रस्थ राज्य आपके हाथ से निकलकर पांडवों के पास चला जाएगा। इस को ध्यान में रखकर दुर्योधन आचार्य द्रोण के निकट गया।

द्रोण एक ' आचार्य ' के रूप में हस्तिनापुर में नियुक्त किए गए थे। महाभारत - काल के पहले तक आचार्य स्वयं वनों में आश्रम में रहा करते थे और वहीं राजकुमारों को शिक्षा - दीक्षा दी जाती थी। महाभारत - काल में आचार्य आश्रम छोड़कर राजकुमारों को शिक्षा देने राजप्रासाद में आ गए थे। एक तरह से आचार्य पद का यह आदर्शगत अवमूल्यन था। यदि धृतराष्ट्र - पांडु पुत्रों को वाल्मीकि या विश्वामित्र की तरह आश्रम में शिक्षा - दीक्षा दी गई होती, तो इतना बड़ा अनर्थ नहीं होता। आचार्य होने के नाते द्रोण को तो किसी भी पक्ष का साथ नहीं देना चाहिए था, लेकिन उन्होंने अन्याय, असत्य और अत्याचार का पक्ष ही नहीं लिया वरन् उसकी ओर से युद्ध करने भी पहुंच गए थे। राजसत्ता के समक्ष आचार्य द्रोण अपनी वफादारी प्रकट कर रहे थे।

अर्जुन को सर्वश्रेष्ठ धनुर्धारी बनाने के लिए द्रोणाचार्य ने एकलव्य का अंगूठा तक कटवा दिया था। अर्जुन के प्रति द्रोण का प्रेम पुनः न जाग जाय, इस नाते दुर्योधन द्रोणाचार्य के निकट गया।

संजय ने ' राजा ' शब्द का प्रथम बार प्रयोग दुर्योधन के लिए किया है। कहा गया है -

रंजिताश्च प्रजा: सर्वास्तेन राजेति शब्दयते।

अर्थात् सारी प्रजा को प्रसन्न रखने के कारण राजा कहलाता है। संजय जानते हैं कि पांडवों के वनगमन के पश्चात दुर्योधन ने सारी प्रजा को खुश रखा था। कोई भी विद्रोह अथवा असंतोष उसके विरुद्ध नहीं हुआ था, तभी तो दुर्योधन के पक्ष में ग्यारह अक्षौहिणी सेना युद्ध करने पहुंच गई थी।

यहां द्रोण एक आचार्य यानी गुरु की भूमिका में हैं तथा दुर्योधन एक शिष्य की भूमिका में है। शिष्य का ही गुरु के निकट जाना उचित ही नहीं वरन् शिष्य का कर्तव्य है - इस बात को ध्यान में रखते हुए स्वयं राजा होते हुए भी दुर्योधन सर्वप्रथम अपने गुरु द्रोणाचार्य की ओर अग्रसर हुआ। पांडव सेना की ओर देखकर उसने द्रोणाचार्य को जो कहा, वह तीसरे श्लोक से लेकर ग्यारहवें श्लोक तक में उल्लेखित है।

(श्री भगवद्गीता शास्त्र फेसबुकपेज से साभार)

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