गीता में केवल एक ऐसा अध्याय जिसे किसी के नाम पर रखा गया, भगवद्गीता - ( अध्याय - 1 / पुष्पिका -9 ( समापन )
Arjun Vishad Yog: केवल 'विषाद योग' नहीं कहा गया वरन् "अर्जुन विषाद योग" के नाम से अभिहित किया गया है। अब हम अर्जुन विषाद योग में डुबकी लगाते हैं। विषाद एक तरह से मनोविकार है, जो मनुष्य के चिंतन को अधोगामी बना डालता है।
Shrimad Bhagwat Geeta Adhyay 1 Pushpika Bhag 9: भगवद्गीता के 18 अध्यायों में केवल पहला अध्याय ही ऐसा है, जिसे किसी व्यक्ति के नाम पर रखा गया है। केवल 'विषाद योग' नहीं कहा गया वरन् "अर्जुन विषाद योग" के नाम से अभिहित किया गया है। अब हम अर्जुन विषाद योग में डुबकी लगाते हैं। विषाद एक तरह से मनोविकार है, जो मनुष्य के चिंतन को अधोगामी बना डालता है। विषाद से मन में मनुष्य को अपने जीवन से इतनी गहरी निराशा होने लगती है कि वह स्वयं को ही नष्ट करने की ठान लेता है।
वनपर्व के अंतर्गत दुर्योधन को विषाद हुआ था। जब उसे विषाद हुआ, तो उसने आमरण अनशन की घोषणा कर दी थी। दानवराज के समझाने - बुझाने के बाद दुर्योधन ने आमरण अनशन को खत्म किया था। दुर्योधन जैसे पराक्रमी व्यक्ति को भी विषाद नहीं छोड़ता है।
विषाद के बारे में धर्मव्याध वनपर्व के अंतर्गत कौशिक ब्राह्मण से कहते हैं -
न विषादे मन: कार्यं विषादो विषमुत्तमम्।
मारयत्यकृतप्रज्ञं बालं क्रुद्ध इवोरग:।।
न विषादोऽभिभवति विक्रमे समुपस्थिते।
तेजसा तस्य हीनस्य पुरुषार्थो न विद्यते।।
अर्थ - मन को विषाद की ओर न जाने दें। विषाद तो उग्र विष ( जहर ) है। वह क्रोध में भरे हुए सांप की भांति विवेकहीन अज्ञानी मनुष्य को मार डालता है। पराक्रम का अवसर उपस्थित होने पर जिसे विषाद घेर लेता है, उस तेजहीन पुरुष का कोई पुरुषार्थ सिद्ध नहीं होता। अर्जुन पर भी विषाद ने कैसा असर दिखाया है ? यही तो प्रथम अध्याय में वर्णित है। प्रथम अध्याय में अर्जुन की मनोदशा को देखकर हम विषाद के भयंकर नकारात्मक पहलू का प्रभाव देख रहे हैं। विषाद मनुष्य को कर्तव्य च्युत कर देता है।
संजय ने इस अध्याय में विषादमय अर्जुन की उक्ति एवं कृति का ही वर्णन किया है। कहीं भी इस अध्याय में यह नहीं वर्णित हुआ है कि अर्जुन विषाद के माध्यम से योग को प्राप्त हुआ। ऐसा प्रतीत होता है कि यहां अर्जुन का विषाद से ही योग ( मिलन ) हो गया है। विषाद के साथ अर्जुन एकाकार हो चुका है। लेकिन ऐसा विषाद भी भगवान के संपर्क में आने के बाद 'योग' बन जाता है। विषाद फिर जीवन का अवसाद नहीं रहता, वह तो प्रभु का प्रसाद बन जाता है। इसे हम परवर्ती अध्याय में ही जान पाते हैं।
प्रथम अध्याय के पहले 'अथ प्रथमोऽपाठ:' नहीं लिखा गया है, अपितु लिखा गया है - "अथ प्रथमोऽध्याय:"। यहां केवल भगवद्गीता का पाठ कर ही अपने को संतोष नहीं करना है वरन् भगवद्गीता का अध्ययन करना है। अध्ययन के विषय का जहां विवेचन हुआ है, वही अध्याय है। भगवद्गीता के अध्ययन करने से हम भगवान श्रीकृष्ण एवं भक्त अर्जुन के संवाद का साक्षात् साक्षी बनते हैं। यदि हम साक्षी बन पाते हैं, तभी यह अध्ययन सफल है।