Srimad Bhagavad Gita: कुल रक्षा के मोहपाश में अर्जुन, भगवद्गीता-(अध्याय-1/श्लोक संख्या-39)

Srimad Bhagavad Gita Adhyay 1 Sloka Shankya 39: इसके पहले अर्जुन युद्ध न करने के अनेक तर्क प्रस्तुत कर चुका है। अब अर्जुन यह बताना चाह रहा है कि कम - से - कम "कुल" की रक्षा के लिए तो खून - खराबा नहीं होना चाहिए। अर्जुन की दृष्टि अब कुल पर अटक गई है। कुल - रक्षा का मोह अर्जुन को सताने लगा है क्योंकि कुल तो आखिर कुरुवंश का ही है।

Update: 2023-04-11 15:57 GMT
Srimad Bhagavad Gita Adhyay 1 Sloka Shankya 39 (Pic: Social Media)

Srimad Bhagavad Gita Adhyay 1 Sloka Shankya 39:

कथं न ज्ञेयमस्माभि: पापादस्मान्निवर्तितुम।

कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन।

सरलार्थ - हे जनार्दन ! कुल के नाश से उत्पन्न दोष को जानने वाले हम लोगों को इस पाप से हटने के लिए क्यों नहीं विचार करना चाहिए ?

निहितार्थ - इसके पहले अर्जुन युद्ध न करने के अनेक तर्क प्रस्तुत कर चुका है। अब अर्जुन यह बताना चाह रहा है कि कम - से - कम "कुल" की रक्षा के लिए तो खून - खराबा नहीं होना चाहिए। अर्जुन की दृष्टि अब कुल पर अटक गई है। कुल - रक्षा का मोह अर्जुन को सताने लगा है क्योंकि कुल तो आखिर कुरुवंश का ही है। त्रेतायुग में "रघुकुल" का महत्व था। उसके वंशधर "रघुकुल रीत सदा चली आइ। प्राण जाए पर वचन न जाइ।।" का पालन करते थे।

द्वापर युग में "कुरु-कुल" की महत्ता थी। इस कुल का नामकरण जिन "कुरु" के नाम पर हुआ था, वे बड़े ही प्रतापी एवं धर्मात्मा थे। उन्होंने जहां तपस्या की थी, वह क्षेत्र कुरुक्षेत्र के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसी कुल के पूर्वज भरत थे, जिनके नाम पर हमारा देश भारत कहलाया। इसी कुल में हस्ती नाम के राजा हुए थे, जिनकी बसाई नगरी हस्तिनापुर कहलाई। उसी हस्तिनापुर के महाराज धृतराष्ट्र हैं। द्वापर -युग को पारकर कलयुग में प्रवेश करने के बीच दोनों युगों के संधि-काल में कुल के प्रति सोच विकृत हो चुकी थी।

धृतराष्ट्र के पुत्र तो पांडवों को कुरुकुल का वंशधर मानने को तैयार ही नहीं थे। पांडवों को कुरुवंश का वंशज स्वीकार करने पर उन्हें राज्य देना पड़ता। अर्जुन धृतराष्ट्र के पापी, अत्याचारी पुत्रों के अन्याय को भूल कर उन्हें कुरुकुल का अंग मानकर उनके प्रति दया एवं करुणा प्रकट कर रहा है। यह स्मरण रखना आवश्यक है कि एक ही कुल कुरुकुल दो हिस्सों में बांट कर मरने - मारने को आतुर है। युद्ध के परिणाम स्वरूप कुल का विनाश होगा। कुल के विनाश से उत्पन्न दोषों को कौरव पक्ष नहीं देख पा रहा है क्योंकि वे लोग लोभान्ध हैं।

धृतराष्ट्र केवल जन्मांध ही नहीं हैं, पुत्र मोहान्ध भी हैं। अर्थात् पुत्र-मोह में अंधे हैं। उनकी धर्मपत्नी गांधारी अपने नेत्रों में पट्टी बांध अन्धी बनकर न्याय - अन्याय के बीच अंतर नहीं कर पा रही है और दुर्योधन तो सत्ता के अहंकार एवं स्वार्थ के मद में अंधा है। सभी अंधे ही हैं। कहने के लिए तो चर्मचक्षु थे, पर वे अन्याय, अधर्म को कहां देख पा रहे थे - चाहे वे भीष्म हों या आचार्य द्रोण।

कहीं - न - कहीं सूक्ष्म - भाव से वे सभी लोभ के वशीभूत थे। अतः उन सब को कुलक्षय से उत्पन्न होने वाले दोष नहीं दिख रहे थे। अर्जुन कहता है कि जनार्दन ! हम सब तो उन दोषों को जानते हैं। अत: हमें विचारशील होने के कारण युद्ध जैसे पापमय कृत्य से क्यों नहीं हटना चाहिए ? पापमय युद्ध से पापमय परिणाम ही तो आएगा। इस प्रकार हम देख रहे हैं कि अब अर्जुन के लिए "कुरुकुल" की सुरक्षा ही सर्वोपरि हो गई है।

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