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Srimad Bhagavad Gita: विरोध में पाप भी नहीं दिखता, भगवद्गीता-(अध्याय-1 /श्लोक संख्या-38)
Srimad Bhagavad Gita Adhyay 1 Sloka Shankya 38: जब सभी कौरव-पक्ष के लोग इंद्रप्रस्थ पहुंचे थे, तब युधिष्ठिर ने सभी लोगों को कुछ - न - कुछ जिम्मेवारी दी थी। दुर्योधन को भेंट में आए उपहारों को रखने का जिम्मा सौंपा गया था। दुर्योधन इस अपार धनराशि को देखकर चकित था।
Srimad Bhagavad Gita Adhyay 1 Sloka Shankya 38:
यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतस:।
कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम्।।
सरलार्थ - यद्यपि लोभ से भ्रष्टचित हुए ये लोग कुल के नाश से उत्पन्न दोष को और मित्रों से विरोध करने में पाप को भी नहीं देखते।
निहितार्थ - उपर्युक्त श्लोक की चर्चा करने के पहले हम सब युधिष्ठिर द्वारा संपन्न राजसूय - यज्ञ की ओर लौट चलें। जब सभी कौरव-पक्ष के लोग इंद्रप्रस्थ पहुंचे थे, तब युधिष्ठिर ने सभी लोगों को कुछ - न - कुछ जिम्मेवारी दी थी। दुर्योधन को भेंट में आए उपहारों को रखने का जिम्मा सौंपा गया था। दुर्योधन इस अपार धनराशि को देखकर चकित था। उसे पाने के लिए वह व्यग्र हो उठा था।
दुर्योधन ने धृतराष्ट्र को कहा था - मेरी धन-संपत्ति बहुत ही साधारण है। उनकी हीरों, रत्नों एवं मणि - माणिक्यों की इतनी राशि इकट्ठी हो गई है कि उनके ओर - छोर का पता ही नहीं चलता। शत्रु की लक्ष्मी को देखकर प्रसन्न नहीं होना चाहिए। धन बढ़ाने की अभिलाषा ही उन्नति का बीज है। पांडवो की राज्य - लक्ष्मी पाए बिना मैं निश्चिंत नहीं हो सकता। इस पर धृतराष्ट्र ने कहा था - वैर - विरोध तो कुल - नाश के लिए बिना लोहे का शस्त्र है। क्षत्रियों के क्षय का महान भयंकर समय निकट आता दीख रहा है।
अर्जुन जैसा सद्विचार कौरवों में से किसी के भीतर से क्यों नहीं उठ रहा ? इसका उत्तर देते हुए अर्जुन कहता है कि वे लोग लोभी हैं। लोभ - वृत्ति के कारण ही उन्हें यह सब नहीं दिख रहा है। इतना मिल गया और इतना मिल जाए - फिर ऐसा ही मिलता रहे -- ऐसे पद, पैसा और प्रतिष्ठा आदि की तरफ बढ़ती हुई वृत्ति का नाम लोभ है।
धृतराष्ट्रपुत्रों को अर्जुन लोभी बता रहा है। राज्य एवं धन के लोभ के कारण ही तो कौरवों ने द्यूत - क्रीड़ा ( जुआ खेलने ) के लिए पांडवों को बुलाया गया था। इस लोभ के कारण ही कौरव पांडवों को उनका राज्य वापस नहीं लौटा रहे हैं, जिसके फलस्वरूप महासंग्राम छिड़ने वाला है। लोभ छा जाने के कारण ही कौरवों को राज्य - ही - राज्य दिख रहा है। पर इससे होने वाले कुल के नाश से उत्पन्न भयंकर पाप दिख नहीं रहा है।
यजुर्वेद में उल्लेख है -
“मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे"
अर्थात् हम सब परस्पर मित्र की दृष्टि से देखें। मित्र के साथ द्वेष करना तथा उसका विरोध करना तो सर्वथा गलत है। मित्र के साथ तो मित्रता करनी चाहिए, शत्रुता नहीं। धृतराष्ट्र ने दुर्योधन को कहा था -
“मित्रद्रोहे तात महान अधर्म:"
अर्थात मित्रद्रोह से बड़ा अधर्म होता है। तब भी दुर्योधन सचेत नहीं हुआ था। मित्र के साथ वैर -भाव का क्या परिणाम होता है ? इसका प्रत्यक्ष उदाहरण तो महाभारत काल में ही द्रुपद एवं द्रोण का है। दोनों बचपन में मित्र थे। पर राज्य के कारण दोनों की मित्रता शत्रुता में बदल गई और दोनों मित्र कुरुक्षेत्र के मैदान में एक दूसरे के विरुद्ध शत्रु के रूप में खड़े हैं।