पुलिस या सेना में भर्ती होने के लिए करते हैं तैयारी, तो सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को जरूर पढ़ें   

सर्वोच्च अदालत ने अपने एक फैसले में रिहा हो जाने और सम्मानजनक आरोप मुक्त के बीच का अंतर समझाया है। साथ ही, कोर्ट ने कहा कि वह कैंडिडेट जो पुलिस या सुरक्षा बल में जाने का इच्छुक है

Report :  aman
Published By :  Divyanshu Rao
Update:2021-10-07 23:32 IST

पुलिस और आर्मी भर्ती की तस्वीर (फोटो:सोशल मीडिया)

नई दिल्ली: एक डिटर्जेंट पाउडर का ऐड आता है जिसका पंचलाइन है, 'दाग अच्छे हैं', लेकिन व्यावहारिक जिंदगी में ऐसा कुछ नहीं होता। अगर किसी शख्स पर कोई दाग लगा हो तो, उसे कोई अपने पास बैठने देने तक से गुरेज करता है, नौकरी की तो छोड़िए। यहां बात हो रही है सुप्रीम कोर्ट की उस टिप्पणी की, जिसमें कहा गया कि संदेह का लाभ मिल जाने या गवाह के पलट जाने से आरोप तो खत्म हो जाता है। लेकिन दाग नहीं धुलता।

सर्वोच्च अदालत ने अपने एक फैसले में रिहा हो जाने और सम्मानजनक आरोप मुक्त के बीच का अंतर समझाया है। साथ ही, कोर्ट ने कहा कि वह कैंडिडेट जो पुलिस या सुरक्षा बल में जाने का इच्छुक है, उसे बेहद ईमानदार और बेदाग चरित्र का होना चाहिए। और जो ऐसा है वही इस क्षेत्र में जाने का हकदार है।

'बरी' को ऐसे किया परिभाषित 

सुप्रीम कोर्ट में एक मामले की सुनवाई करते हुए जस्टिस इंदिरा बनर्जी और जस्टिस जे.के. माहेश्वरी की पीठ ने 'माननीय' और 'मात्र' बरी होने के अंतर को बताया। उन्होंने कहा, "दोनों ही शब्दावली न्यायिक घोषणाओं से निकलती हैं। ये दोनों शब्द आपराधिक कानूनों में जगह नहीं पाते। जस्टिस ने आगे कहा, कि एक सम्मानजनक 'बरी' वह है, जहां अदालतें रिकॉर्ड करती हैं कि व्यक्ति को झूठा फंसाया गया है। जबकि उसे अपराध से जोड़ने के लिए कोई सबूत नहीं है। बावजूद इसके, पर्याप्त सबूतों की कमी, संदेह का लाभ और अभियोजन पक्ष के गवाहों के मुकर जाने सहित अन्य कारणों से एक व्यक्ति को बरी कर दिया जाता है। 

सीआईएसएफ से जुड़ा था मामला 

सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने आगे कहा, अगर कोई शख्स जो पुलिस में शामिल होना चाहता है, उसका ईमानदार और बेदाग चरित्र होना आवश्यक है। क्रिमिनल बैकग्राउंड वाले कैंडिडेट इसके लिए अयोग्य हैं। जस्टिस इंदिरा बनर्जी और न्यायमूर्ति जे.के. माहेश्वरी की पीठ ने केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल (सीआईएसएफ) में कांस्टेबल के पद पर एक व्यक्ति की नियुक्ति को रद्द करते हुए यह टिप्पणी की थी।

सीआईएसएफ के जवानों की तस्वीर (फोटो:सोशल मीडिया)

क्या था मामला? 

दरअसल, इस मामले में मध्य प्रदेश हाईकोर्ट के उस आदेश को चुनौती दी गई थी, जिसमें उच्च न्यायालय ने एक व्यक्ति को अपहरण के एक मामले में बरी किए जाने के मद्देनजर उसे सीआईएसएफ में कांस्टेबल पद के लिए प्रशिक्षण में शामिल होने की अनुमति दी थी। सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने मध्य प्रदेश हाईकोर्ट के उस फैसले को पलटते हुए कहा, कि यह सम्मानजनक बरी नहीं है। क्योंकि अभियोजन पक्ष ने आरोप लगाया था, कि आरोपियों ने गवाहों के खिलाफ शारीरिक हिंसा की थी, जो बाद में अपने बयान से पलट गए। 

कोर्ट के फैसले का ये हिस्सा अहम 

फैसला लिखते हुए सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस माहेश्वरी ने कहा, 'यदि कोई व्यक्ति नैतिक अधमता से जुड़े अपराध के आरोप से या क्योंकि गवाहों के मुकर जाने के कारण उसे संदेह का लाभ देते हुए बरी कर दिया जाता है, तो यह उसे स्वचालित रूप से रोजगार के लिए हकदार नहीं होगा, वह भी अनुशासित बल।' इस पूरे मामले की सुनवाई के दौरान सर्वोच्च अदालत ने कहा, कि गृह मंत्रालय ने फरवरी 2012 में उन उम्मीदवारों के मामलों पर विचार करने के लिए दिशानिर्देश जारी किए थे, जिनके खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज किए गए थे या अदालतों द्वारा मुकदमा चलाया गया था।

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