कार्बन को अधिशोषित करने वाले अणु की हुई खोज
इनको पिछले माह वर्ष 2018 में “सुपर-एटॉमिक क्लस्टर्स के अध्ययन एवं उनके अनुप्रयोग” पर शोध करने के लिए यूजीसी की स्टार्ट-अप ग्रांट भी प्रदान की गयी थी।
गोरखपुर: कार्बन-डाइऑक्साइड ग्रीन-हाउस गैसों का सबसे बड़ा घटक है। जिसका स्टोरेज न सिर्फ वैश्विक स्तर पर कार्बन संतुलन के लिए अपितु स्वस्थ पर्यावरण के लिए भी अनिवार्य है। हालांकि कार्बन-डाइऑक्साइड एक स्थायी अणु है। जिसका रिडक्शन बहुत मुश्किल से ही संभव है।
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ऋणात्मक इलेक्ट्रान-बंधुता के कारण इसका एकल-इलेक्ट्रान रिडक्शन तो लगभग असंभव ही है। नवीन शोध से एक ऐसे अणु का पता चला है। जो न सिर्फ कार्बन-डाइऑक्साइड का एकल-इलेक्ट्रान रिडक्शन कर सकता है, बल्कि एक साथ कम से कम छ: कार्बन-डाइऑक्साइड अणुओं को अधिशोषित भी कर सकता है। इस अणु का रासायनिक नाम हेक्सा-लीथियो-बेंजीन है। ये शोध गोरखपुर विश्वविद्यालय के भौतिकी विभाग के असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. अम्बरीश कुमार श्रीवास्तव ने किया है। आणुविक सिमुलेशन पर आधारित यह शोध यूएसए के प्रतिष्ठित ‘इंटरनेशनल जर्नल ऑफ़ क्वांटम केमिस्ट्री’ से हाल ही में प्रकाशित हुआ है।
क्या है हेक्सा-लीथियो-बेंजीन और कैसे कर सकता है ये कार्बन-डाइऑक्साइड को अधिशोषित?
हेक्सा-लीथियो-बेंजीन की संरचना बेंजीन जैसी ही है लेकिन इसमें लीथियम परमाणु दो-दो कार्बन से जुड़े होते हैं। यह अणु वैसे तो कोई नया नहीं है। परन्तु इसके बहुत सारे गुणधर्म अब भी अज्ञात ही हैं। जिनमे से एक है- सुपर-एटॉमिक प्रवृत्ति. गौरतलब है। हेक्सा-लीथियो-बेंजीन की सुपर-एटॉमिक प्रवृत्ति के बारे डॉ. श्रीवास्तव का ही शोधपत्र पिछले वर्ष जनवरी में यूके के जर्नल ‘मॉलिक्यूलर फिजिक्स’ से प्रकाशित हुआ था।
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बहराइच जिले में नानपारा कस्बे के निवासी डॉ. श्रीवास्तव के शोध के अनुसार हेक्सा-लीथियो-बेंजीन की आयनन-ऊर्जा एक लीथियम परमाणु (एटम) से भी कम होती है। जिसके फलस्वरूप उसका व्यवहार एक ‘सुपर-एटम’ की तरह होता है। जो कार्बन-डाइऑक्साइड को इलेक्ट्रान स्थानांतरित करके उसको अधिशोषित कर लेता है। यही नहीं, जैसे-जैसे कार्बन-डाइऑक्साइड के अणुओं की संख्या बढती है, उसकी अधिशोषण-ऊर्जा में भी वृद्धि होती जाती है।
क्या हो सकते हैं इस शोध के मायने?
आणुविक-स्तर पर किये गए इस अध्ययन के कई मायने हो सकते हैं। अगर प्रयोगशाला में इसका परीक्षण ठीक ढंग से कर लिया जाए तो इसकी मदद से ग्लोबल-वार्मिंग को नियंत्रित किया जा सकता है। यही नहीं, मानव-जीवन के लिए एक स्वच्छ एवं प्रदूषण रहित पर्यावरण की कल्पना भी साकार हो सकती है। ये विश्व भर के वैज्ञानिकों के शोध के लिए अपार संभावनाएं उत्पन्न करता है। कार्बन-डाइऑक्साइड के अधिशोषण के पश्चात् डॉ. श्रीवास्तव का अगला प्रयास इसके रूपांतरण की दिशा में है।
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सुपर-एटॉमिक क्लस्टर्स के क्षेत्र में डॉ. श्रीवास्तव ने शोध-कार्य वर्ष 2014 से लखनऊ विश्वविद्यालय में पीएचडी के दौरान शुरू किया, जिसको गोरखपुर विश्वविद्यालय में अपने नेशनल पोस्ट-डॉक्टरल शोध में भी जारी रखा| इनको पिछले माह वर्ष 2018 में “सुपर-एटॉमिक क्लस्टर्स के अध्ययन एवं उनके अनुप्रयोग” पर शोध करने के लिए यूजीसी की स्टार्ट-अप ग्रांट भी प्रदान की गयी थी।