हजारों साल पुरानी पांडुलिपियों में छुपा है वैदिक रहस्य, जानें कहां हैं संरक्षित
गोरखपुर: पांडुलिपि का नाम आते ही प्राचीन लिपियों के बारे में तमाम तरह की जिज्ञासाएं लोगों के दिमाग में घर कर जाती है। इन जिज्ञासाओं को शांत करने लिए अधिकतर लोग इंटरनेट का सहारा लेते हैं।
पांडुलिपियों को देखकर और उसके बारे में विषेशज्ञों से सटीक जानकारी लेकर पांडुलिपियों से संबंधित किसी भी तरह के जिज्ञासा को शांत करना हो तो अपने शहर में पांडुलिपियों का एक ऐसा अद्भूत संसार है जहां मौजूद लगभग पांच हजार पांडुलिपियां आपकी जिज्ञासाओं को शांत कर सकती है।
शहर के अधियारीबाग स्थित नागार्जुन बौद्ध प्रतिष्ठान में 1978 ई़ से पांडुलिपियों का संरक्षण किया जा रहा है। यहां 46 सौ से अधिक पांडुलिपियां संरक्षित करके रखी गई है। साथ ही 16 हजार से अधिक किताबें इस संग्रहालय को विशेष बनाती है।
यहां 200 से 1000 वर्ष पूर्व की पांडुलिपियां यहां पहुंचने वाले लोगों को रोमांचित करती है। लेकिन निराशा की बात यह है कि जानकारी के अभाव में बहुत कम ही लोग यहां पहुंच पाते हैं। प्रतिष्ठान के प्रधान संरक्षक तिब्बती धर्मगुरु दलाई लामा है। पांडुलिपियों को संरक्षित करने का जिम्मा पांडुलिपि संरक्षण कर्ता डा़ रामचंदर मिश्र की है। 40 वर्ष पुराने इस संग्रहालय की देखरेख प्रतिष्ठान के महामंत्री प्रो़ करुणेश शुक्ल करते हैं।
संग्रहालय में मौजूद हैं विशेष पांडुलिपि
नागार्जुन बौद्ध प्रतिष्ठान में अत्यंत ही प्राचीन पांडुलिपियां रखी गई है। जिसमें महाभारत, गीता, पुराण, वेद, आयुर्वेद, महाकाव्य, रामायण, व्याकरण, तंत्र, ज्यातिष आदि शामिल हैं। जिनकी संख्या 46 सौ से अधिक हैं। साथ ही प्राचीन से आधुनिक काल तक के 16 हजार किताबें भी संग्रहालय में रखी गई हैं।
दो बार आ चुके हैं दलाई लामा
राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन के अंर्तगत संचालित नागार्जुन बौद्ध प्रतिष्ठान प्रतिवर्ष वार्षिक समारोह का आयोजन किया जाता है। जिसमें सेमिनार भी आयोजित होते हैं। संस्थान के सेमिनार में दो बार तिब्बती धर्मगुरु दलाई लामा आ चुके हैं। उनका पहला आगमन 1981 में हुआ था। दूसरी बार दलाई लामा 1998 में प्रतिष्ठान के सेमिनार में भाग लेने के लिए आए थे।
क्या है पांडुलिपि
पांडुलिपि का मूल अर्थ है हाथ से लिखी गई किसी रचना का शुरुआती प्रारूप। पांडुलिपि दरअसल हस्तलेख ही है। हस्तलेख यानी हाथ से लिखा हुआ प्रारूप। पांडुलिपि हिन्दी की तत्सम शब्दावली का हिस्सा है। संस्कृत के पांडु और लिपि से मिल कर बना है पांडुलिपि। पांडु का अर्थ होता है पीला या सफेद अथवा पीली आभा वाली सफ़ेदी। वैसे पांडुलिपि में किसी सतह को सफेदी से पोत कर लिखने का भाव है।
इतिहास से प्राचीनकाल में ऋषि-मुनि जब विचार-मीमांसा करते थे तो उनके भाष्य को किसी जमाने में भूमि को गोबर से पोत कर उस पर खड़िया मिट्टी से लिपिबद्ध किया जाता था। कालान्तर में यह काम दीवारों पर होने लगा। उसके बाद लकड़ी की पाटियों का चलन हुआ।
मिट्टी से पुते काष्ठ-फलक पर लिखा जाने लगा। उसके बाद ताड़पत्र पर लिखने का चलन हुआ और तब भी पुस्तकाकार प्रारूप का नाम पांडुलिपि रहा और फिर जब कागज का दौर आया, तब भी हस्तलिखित मसौदा ही पांडुलिपि कहलाता रहा।