फिर याद आए 'गंगापुत्र'
करीब 30 साल पहले 90 के दशक में जब इस पौराणिक महाकाव्य महाभारत को टीवी यानी दूरदर्शन पर उतारा गया था उस समय उसके निर्माताओं को यह यकीन नहीं था कि उनकी यह रचना अपने कीर्तिमानों का वह मिनार खड़ा करेगी जिसकी बराबरी करना किसी के लिए संभव नहीं होगा।
दुर्गेश मिश्र
गाजीपुर : करीब 30 साल पहले 90 के दशक में जब इस पौराणिक महाकाव्य महाभारत को टीवी यानी दूरदर्शन पर उतारा गया था उस समय उसके निर्माताओं को यह यकीन नहीं था कि उनकी यह रचना अपने कीर्तिमानों का वह मिनार खड़ा करेगी जिसकी बराबरी करना किसी के लिए संभव नहीं होगा।
महाभारत धारावाहिक को लोकप्रियता के सोपान तक पहुंचाने में पूरी टीम ने मेहनत की थी। महाभारत की इसी टीम में से एक थे डॉ: राही मासूम रजा।
यह डॉ: राही मासूम रजा की लेखनी का ही जादू था कि उस समय महाभारत के संवाद लोगों को कंठस्थ हो गए थे। महाभारत की पटकथा लिखते समय राही ने धारावाहिक के मांग के अनुसार एक ऐसी संस्कृतनिष्ठ लेखन शैली का हाथ पकड़ा जो थोड़ी कठिन थी। लेकिन यह उनकी कलम और सशक्त लेखनी का ही कमाल था कि इस संस्कतनिष्ठ जटिल हिंदी को इतना सुगम बनार कर प्रस्तुत किया कि महाभारत के डायलाग बच्चे-बच्चे जुबान से सुनने को मिलने लगा था।
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एक बार फिर समय का चक्र घूमा है और लोग महाभारत लिखने वाले कलियुग के 'वेदव्यास' डॉक्टर राही मासूम रजा को याद करने लगे हैं। इसके साथ ही राही साहब की जन्मभूमि गाजीपुर और गंगौली का नाम दोबारा चर्चा में आ गया है।
खुद को गंगा पुत्र कहते थे डॉक्टर राही
गाजीपुर के गंगौली में 1927 में जन्मे राही खुद को गंगा किनारे वाला या ' गंगापुत्र' कहा करते थे। गाजीपुर शहर के बरबरहना मोहल्ले में राही बचपन से तरुणाई तक रहे। उनकी रगों में इसी गंगा का पानी लहू बन कर प्रवाहित होता था। तभी तो उनकी रचनाओं में गाजीपुर और गंगौली का जिक्र बारबार आता था। चाहे वह नीम का पेड़ हो, ओस की बूंद हो, कटरा बी आरजू हो, सीन 75 हो या कालजयी रचना ' आधागांव' हो।
फिर से राही को याद करने का मौका मिला है
उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार में पूर्व मंत्री रही गंगौली निवासी सादाब फातिमा कहती हैं राही जितना गाजीपुर के हैं उनता ही अलीगढ़ के भी। क्योंकि वह अलीगढ़ में रहते हुए ही साहित्य साधना की थी।
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मेघदूत से महादेव को संदेश
तीन सौ से अधिक फिल्मों की पटकथा लिखने वाले राही जानते थे कि सामाजिक कुरीतियों का निवारण हमारी अपनी संस्कृति से ही निकल कर आएगी। इसीलिए न उनसे तुलसी छूट पाए और न कालिदास और इसीलिए वे कालिदास के मेघदूत से महादेव को संदेश पहुंचाने की बात करते हैं। प्रेमचंद जी ने सृजन और साहित्य पर बात करते हुए कहा था, "सीमा के उल्लंघन में ही सीमा की मर्यादा है।" विभाजन से आहत रज़ा साहब हमेशा मिली-जुली संस्कृति के पैरोकार रहे हैं। राही का 'आधा गांव' हो या 'नीम का पेड़'। उनकी रह रचना में विभाजन का दर्द साफ झलकता था।