लोकसभा परिसीमन के खिलाफ लड़ाई में इंडिया गुट में एकता नहीं, राहुल, अखिलेश और तेजस्वी, क्या हैं चुप्पी के कारण
Loksabha Delimitation: देश की सियासत में इन दिनों लोकसभा सीटों के परिसीमन का मुद्दा गरमाया हुआ है। सीटों के घटने की आशंका को देखते हुए तमिलनाडु के मुख्यमंत्री और द्रमुक नेता एमके स्टालिन ने जोरदार लड़ाई छेड़ रखी है।;
Loksabha Delimitation: देश की सियासत में इन दिनों लोकसभा सीटों के परिसीमन का मुद्दा गरमाया हुआ है। सीटों के घटने की आशंका को देखते हुए तमिलनाडु के मुख्यमंत्री और द्रमुक नेता एमके स्टालिन ने जोरदार लड़ाई छेड़ रखी है। तमिलनाडु में सर्वदलीय बैठक के बाद पार्टी सांसदों की बैठक में लोकसभा में भी इस मुद्दे पर लड़ाई लड़ने का फैसला किया गया है। द्रमुक सांसदों की बैठक में इस मुद्दे पर अन्य राज्यों से भी समर्थन जुटाने का संकल्प लिया गया है।
वैसे इस मुद्दे को लेकर विपक्षी दलों के गठबंधन इंडिया में एकजुटता नहीं दिख रही है। विपक्षी गठबंधन के बड़े नेता अभी तक खुलकर इस मुद्दे पर सामने नहीं आए हैं। कांग्रेस नेता राहुल गांधी, सपा मुखिया अखिलेश यादव, राजद नेता तेजस्वी यादव, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन का अभी तक कोई बयान सामने नहीं आया है। ऐसे में सवाल उठने लगा है कि क्या इन नेताओं की ओर से स्टालिन के इस अभियान को समर्थन मिलेगा?
द्रमुक ओर से इंडिया गुट में समन्वय की कोशिश
दरअसल परिसीमन के बाद कई राज्यों में लोकसभा की सीटें घटने की आशंका जताई जा रही है। हालांकि गृह मंत्री अमित शाह ने कहा है कि दक्षिण के राज्यों की सीटें नहीं घटेंगी,फिर भी द्रमुक संतुष्ट नहीं है। द्रमुक की ओर से कर्नाटक, केरल, तेलंगाना, पंजाब, आंध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल और ओडिशा आदि राज्यों से समर्थन जुटाने का संकल्प लिया गया है। जानकारों का मानना है कि परिसीमन के बाद इन सभी राज्यों में लोकसभा की सीटें घट सकती हैं।
डीएमके इस मुद्दे पर केंद्र सरकार के खिलाफ आर-पार की लड़ाई लड़ने के मूड में दिख रही है और इसके लिए इंडिया गुट में शामिल होने वालों के साथ समन्वय स्थापित करने का फैसला किया गया है। इस मामले में सबसे बड़ा सवाल यह है कि इंडिया गुट में शामिल अन्य दलों का समर्थन हासिल करने में डीएमके को कहां तक कामयाबी मिलेगी। अब इस मुद्दे पर बीजेपी से ज्यादा मुश्किल स्थिति विपक्षी गठबंधन में दिख रही है। उत्तर भारत के प्रमुख विपक्षी नेता इस मुद्दे पर पूरी तरह चुप्पी साधे हुए हैं।
राहुल,अखिलेश और तेजस्वी ने साथ रखी है चुप्पी
परिसीमन के खिलाफ इस लड़ाई में उत्तर भारत के नेताओं का द्रमुक को खुलकर समर्थन मिलता हुआ नहीं दिख रहा है। भाजपा के खिलाफ खुलकर लड़ाई लड़ने वाले कांग्रेस नेता राहुल गांधी, सपा मुखिया अखिलेश यादव, राजद नेता तेजस्वी यादव और झामुमो नेता व झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन इस मुद्दे पर चुप्पी साधे हुए हैं। सियासी जानकारों का कहना है कि सबसे बड़ा सवाल यह है कि ये सभी नेता क्या 1971 की जनगणना को लोकसभा सीटों का आधार मानने के लिए तैयार हो जाएंगे?
माना जा रहा है कि परिसीमन के बाद उत्तर भारत के कई राज्यों में लोकसभा सीटें बढ़ जाएंगी और संसद में इन राज्यों की ताकत बढ़ेगी। ऐसे में इन नेताओं की चुप्पी का कारण आसानी से समझा जा सकता है। उत्तर भारत के कई राज्यों में सीटें बढ़ने से क्षेत्रीय क्षत्रपों की दिल्ली में पूछ और बढ़ जाएगी। ऐसे में इन नेताओं ने अभी तक इस मुद्दे से पूरी तरह किनारा कर रखा है। द्रमुक के इस अभियान में इन नेताओं के शामिल होने की उम्मीद भी नहीं है।
राहुल के लिए अभियान का समर्थन मुश्किल
कांग्रेस नेता राहुल गांधी इन दिनों अपने सभी कार्यक्रमों में जातीय जनगणना का मुद्दा जरूर उठाते हैं और इसके साथ ही वे जिसकी जितनी संख्या भारी,उसकी उतनी हिस्सेदारी की बात भी करते हैं। केंद्र सरकार की नीतियों,बजट निर्माण और राम मंदिर के उद्घाटन तक का जिक्र करते हुए वे इस सवाल को उठाना नहीं भूलते कि इसमें ओबीसी और दलितों की कितने प्रतिशत हिस्सेदारी रही है।
अपने इस अभियान के कारण राहुल गांधी का द्रमुक को समर्थन मिलना काफी मुश्किल माना जा रहा है। राहुल गांधी की ओर से यदि दक्षिण के राज्यों का इस मुद्दे पर समर्थन किया गया तो वे अपने ही अभियान से दूर होते हुए मान जाएंगे। इसके साथ ही राजनीतिक दृष्टि से काफी अहम माने जाने वाले उत्तर भारत में भी कांग्रेस पहले ही काफी कमजोर स्थिति में दिख रही है। द्रमुक को समर्थन देने के बाद कांग्रेस की हालत और पतली हो सकती है।
मुस्लिम समीकरण भी आ रहा आड़े
हिंदी भाषी क्षेत्रों में संसदीय सीटें बढ़ने के बाद उनका दायरा सिकुड़ जाएगा। निर्वाचन क्षेत्रों का आकार घटने के बाद सबसे ज्यादा फायदा अल्पसंख्यक समुदायों के इलाके में रहने वाले लोगों का होने वाला है। बड़ी संसदीय सीटों का हिस्सा होने पर मुसलमानों की भागीदारी घट जाती है मगर संसदीय सीटों के छोटा होने के बाद मुस्लिम उम्मीदवारों के चुने जाने की संभावना काफी बढ़ जाएगी।
उत्तर प्रदेश, बिहार पश्चिम बंगाल और झारखंड जैसे राज्यों में इसका बड़ा असर दिखेगा। इन सभी राज्यों से संसद में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व बढ़ेगा। अल्पसंख्यकों को अपना कोर वोट बैंक मानने वाली समाजवादी पार्टी,राजद और टीएमसी जैसे सियासी दल इसका विरोध कैसे कर सकते हैं। कांग्रेस भी मुसलमानों को लुभाने की कोशिश में जुटी हुई है। ऐसे में कांग्रेस के लिए भी इस मुद्दे पर उलझन की स्थिति पैदा होगी।
द्रमुक की दलीलों में नहीं है कोई दम
वैसे द्रमुक और तमिलनाडु सरकार की ओर से राज्य में प्रजनन दर कम होने की दलील दी जा रही है। तमिलनाडु के अलावा आंध्र प्रदेश और कर्नाटक में प्रजनन दर 1.7 से 1.8 के बीच बनी हुई है। उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, मणिपुर और मेघालय में प्रजनन दर 2.1 से ऊपर है। देश में बिहार अकेला ऐसा राज्य है जहां प्रजनन दर करीब तीन बनी हुई है। देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में प्रजनन दर 2.35 है और इसमें लगातार कमी दर्ज की जा रही है।
वैसे कुछ राज्यों को छोड़कर लगभग सभी राज्यों में प्रजनन दर में कमी आ रही है। ऐसे में तमिलनाडु सरकार की ओर से दी जा रही इस दलील में दम नहीं है कि तमाम राज्यों ने जनसंख्या नियंत्रण की दिशा में अच्छा काम नहीं किया है।
द्रमुक की ओर से दक्षिण के राज्यों को विशेष सहूलियत दिए जाने की मांग की जा रही है मगर इस तरह का कदम उठाने से कई तरीके के विवाद पैदा हो सकते हैं जिन्हें सुलझाना आसान नहीं होगा। ऐसे में उत्तर भारत के राजनीतिक दलों और नेताओं की ओर से डीएमके और दक्षिण भारत की अन्य पार्टियों का साथ देना मुश्किल माना जा रहा है।