नंदा देवी में छिपा मौत का रहस्य, कुदरती सौंदर्य के साथ खतरनाक भी

Update:2018-02-23 15:01 IST

वर्षा सिंह

देहरादून। भारत की दूसरी सबसे ऊंची पर्वत श्रृंखला नंदा देवी अपने कुदरती सौंदर्य के लिए मशहूर है। यहां के ग्लेशियर ट्रैकिंग के लिए खतरनाक और रोमांचक हैं। पौराणिक रूप से नंदा देवी उत्तराखंड की प्रमुख देवियों में से एक हैं। चीन की सरहद को देखते हुए सामरिक दृष्टि से भी नंदा देवी बेहद संवेदनशील है। इसके साथ ही नंदा देवी के ग्लेशियरों में 50 से अधिक वर्षों से छिपा वो रहस्य भी है, जो मानव इतिहास की बड़ी चूक में से एक माना जाता है। यहां गायब हुए चार किलो प्लूटोनियम को ढूंढने में अब तक सफलता नहीं मिली है।

1962 में चीन के हमले के बाद भारत अपने इस पड़ोसी देश के प्रति आशंकाओं से घिरा हुआ था। उधर अमेरिका चीन के बढ़ते प्रभुत्व को देखकर परेशान था। 1964 में चीन ने लोपनूर के पास परमाणु परीक्षण कर वियतनाम में उलझे अमेरिका की चिंताएं भी बढ़ा रखी थी। इसलिए अमेरिकी गुप्तचर एजेंसी सीआईए ने चीन की बढ़ती ताकत पर निगरानी की योजना बनाई। इसके लिए अमेरिका ने भारत को साथ लिया। अमेरिका ने भारत के सामने नंदा देवी में परमाणु डिवाइस लगाने का प्रस्ताव रखा जिस पर तत्कालीन भारत सरकार ने हामी भर दी। दुनिया के चुनिंदा पर्वतारोहियों की मदद से 20 अक्टूबर 1965 को नंदा देवी की चोटियों पर फ्रिज के आकार के डिवाइस लगाने का काम शुरू किया गया। 8 सदस्यों का दल इस अभियान के लिए रवाना हुआ था।

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इस दल के साथ 33 भूटिया और 9 शेरपा भी थे। इस अभियान दल में आईबी के चीफ बीएन मलिक, एविएशन रिसर्च सेंटर के निदेशक, सीआईए विशेषज्ञ कैनथ कानवो, एवरेस्ट विजेता एमएस कोहली, पर्वतारोही हरीश रावत और टॉम फॉरेस्ट थे। हिमालय में आरोहण से जुड़ी किताब 'हिमालयन हैंडबुक में पर्वतारोहण इतिहासकार जयदीप सरकार ने लिखा है कि इस अभियान का उद्देश्य परमाणु ऊर्जा से चलने वाले एक जासूसी उपकरण को स्थापित करना था। यह एक तरह की लिसनिंग डिवाइस थी जो कि प्लूटोनियम से ऊर्जा लेती थी। इस अभियान में प्लूटोनियम जैसे खतरनाक नाभिकीय तत्व की पूरी तरह उपेक्षा की गई।

उस समय में सैटेलाइट और डिजिटल उपकरण नहीं हुआ करते थे। रेडियो उपकरण लगी हुई मिसाइलें संदेश भेजा करती थीं। न्यूयॉक की थंडर्स माउथ प्रेस द्वारा 2006 में प्रकाशित पीट ताकेदा की पुस्तक एनआईऑन टॉप ऑफ द वल्र्ड में इस अभियान से जुड़ी खतरनाक बातें पढऩे को मिलती हैं। हिमालय की कठिन परिस्थितियों के कारण यह असम्भव था कि इस रिसीवर की कोई देखभाल कर पाता। चूंकि रिसीवर की बैटरियां लगातार बदली जानी होती थीं। सीआईए ने इसका समाधान खोज निकाला। अमेरिकी अंतरिक्ष अभियानों में इस्तेमाल होने वाले रेडियोसोटोपिक थर्मल जेनेरेटर यानी आरटीजी के इस्तेमाल का निणय ले लिया गया।

इस मिशन में शामिल एवरेस्ट फतह करने वाले पहले भारतीय मोहन सिंह कोहली के मुताबिक उन्हें यह कहकर ऑपरेशन ब्लू माउंटेन नामक इस अभियान पर भेजा गया कि उन्हें मुल्क के लिए जरूरी काम करना है। इस अभियान के प्रशिक्षण के लिए उन्हें बकायदा अमेरिका भेजा गया। वहां अलास्का में बर्फ की पहाडिय़ों पर चढऩे की ट्रेनिंग दी गई। कोहली बताते हैं कि एक अक्टूबर से पूरी टीम ने नंदा देवी की चोटियों के लिए चढ़ाई शुरू की थी। 14 अक्टूबर को वे नंदा देवी के आखिरी बेस कैंप में पहुंचे। उनके पास प्लूटोनियम की सात कैप्सूल थीं जिन्हें अच्छी तरह सुरक्षित रखा गया था। लेकिन नंदा देवी की चोटी पर आए बर्फीले तूफान को देखते हुए अभियान दल ने प्लूटोनियम को वहीं पत्थर से सुरक्षित करके बांध दिया। इस दल ने 1966 में एक बार फिर नंदा देवी की चोटियों पर चढ़ाई की।

कोहली कहते हैं कि जिस जगह उन्होंने प्लूटोनियम को बांधा था, वहां उन्हें इधर-उधर कुछ रस्सियां लटकी हुई मिलीं। दल को समझ में आ गया था कि कुछ बड़ी गड़बड़ हो गई है, बड़ा खतरा उनके सामने था। इस प्लूटोनियम को लेकर अमेरिकियों ने कहा कि यदि वो फट गया तो नंदा देवी के ग्लेशियर से निकलने वाली नदी ऋषि गंगा में गिर जाएगा। ऐसा हुआ तो कई करोड़ की जन हानि होगी। खतरे को भांपते हुए 1967, 1968 और 1969 में खोजी दल भी वहां भेजे गए, लेकिन हिमालय में गायब हुए चार किलो प्लूटोनियम को ढूंढऩे में कोई सफलता नहीं मिली। अमेरिका ने नागासाकी पर जो परमाणु बम बरसाया था वो पांच किलो का था। यानी उससे मात्र एक किलो कम प्लूटोनियम कितनी तबाही मचाने की ताकत रखता है, यह सोचकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं।

बर्फ के कारण मशीन ने काम करना बंद किया

समुद्र तल से करीब 25 हजार फीट की ऊंचाई पर नंदा देवी की चोटियों पर सीआईए अपने खतरनाक मंसूबे को पूरा करने के इरादे से पहुंचा था। इससे पहले कंचनजंगा की चोटियों को इस काम के लिए चुना गया था, लेकिन वहां सीधी चढ़ाई की वजह से ये मुमकिन न हो सका। इसके बाद नंदा देवी की चोटियों को अमेरिकी जासूसी के यंत्र को स्थापित करने के लिए चुना गया। प्लूटोनियम से लैस न्यूक्लियर डिवाइस का क्या हुआ? क्या वह बर्फ के तूफान में दब गयी? डिवाइस में प्लूटोनियम 238 और 239 था जो रेडियोधर्मी विकिरण पैदा करता है।

वैज्ञानिकों के मुताबिक प्लूटोनियम का असर 75 वर्षों तक रहता है। नंदा देवी की चोटियों में एक रहस्य दफन होकर रह गया। हालांकि अमेरिका इस अभियान के असफल रहने के बाद भी चुप नहीं बैठा। 1966 में नंदा देवी के पास ही 22,500 फीट की ऊंचाई पर एक और चोटी नंदा कोट पर उसने अपना जासूसी उपकरण सफलतापूर्वक स्थापित कर दिया। कुछ महीनों बाद इस उपकरण से सिग्नल आने बंद हो गए। बर्फ के चलते मशीन ने काम करना ठप कर दिया। इस बार अच्छी बात यह थी कि उस उपकरण को वापस लाया जा सकता था।

पीएम के आश्वासन पर भी डिवाइस की खोज नहीं

नंदा देवी की चोटियों पर दफन हुए इस रहस्य की चर्चा अंतर्राष्टï्रीय स्तर पर 1978 में हुई। सेन फ्रांसिस्को से प्रकाशित पत्रिका आउट साइड ने सीआईए के एक जासूस के हवाले से नंदा देवी कैपर नाम से अपनी रिपोर्ट में इस घटना का जिक्र किया। इस रिपोर्ट में तिब्बत में चीन की ओर से जासूसी के मकसद से नंदा देवी में परमाणु ऊर्जा से चलने वाले न्यूक्लियर डिवाइस की विस्तार से जानकारी दी गई। 1978 में यह मामला संसद में भी उठा। तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने डिवाइस खोजने का आश्वासन दिया। तत्कालीन विदेश मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने दावा किया था कि डिवाइस एक साल के अंदर खोज ली जाएगी और खतरा टल जाएगा, लेकिन सरकार के आश्वासन के बाद भी इस दिशा में कुछ ठोस कदम नहीं उठाए गए।

नमूनों की जांच में मिला विकिरण

बाद में नंदा देवी के ग्लेशियर्स में खोए प्लूटोनियम मुद्दा भी भुला दिया गया। 2006 में एक बार फिर यह मुद्दा तब उठा जब अमेरिकी पर्वतारोही पीट ताकेदा ने नंदा देवी क्षेत्र से लिए नमूनों की जांच करवाई। जांच में प्लूटोनियम 238 और 239 का विकिरण पाया गया। ये दोनों तत्व 1965 में नंदा देवी की चोटियों पर रखे गए डिवाइस में मौजूद तत्वों में शामिल थे। 4 अगस्त 2009 में आई इस रिपोर्ट की जानकारी भारत सरकार को भी दी गई। तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कोपेनहेगन में नंदा देवी विकिरण का मुद्दा नहीं उठाया। उन्होंने उस समय पौड़ी-गढ़वाल सांसद सतपाल महाराज को चिट्ठी लिखी और इस मामले से जुड़ी जानकारी जुटाने को कहा। वर्ष 2012 में कांग्रेस से सांसद सतपाल महाराज ने लोकसभा में इस मुद्दे को उठाया।

उन्होंने भारत सरकार से इस मामले की फिर से जांच कराने की मांग की।

इसके बावजूद नंदा देवी की चोटी पर रेडियो विकिरण की जांच के लिए कोई कार्रवाई नहीं की गयी। नंदा देवी शिखर से निकलने वाली ऋषि गंगा अलकनंदा की सहायक नदी है। इसके पानी की मॉनीटरिंग भी नहीं की गयी। अलकनंदा और भागीरथी ही गंगा बनकर हिमालय से गंगा सागर तक करोड़ लोगों की पानी की जरुरतों को पूरा करती हैं।

अब न्यूक्लियर डिवाइस को ढूंढना नामुमकिन

अब यह मुद्दा नंदा देवी की चोटियों में एक रहस्य बनकर रह गया है। सेना से रिटायर्ड ब्रिगेडियर सुरेंद्र सिंह पटवाल के मुताबिक अब ये मुद्दा बचा ही नहीं है। पर्वतारोही रह चुके पटवाल बर्फ की गहरी खाइयों की बात करते हैं जिसके बारे में आम आदमी को जानकारी नहीं होती। वे कहते हैं कि अगर कभी प्लूटोनियम गया भी होगा तो वो दफन हो चुका है। उसका नकारात्मक असर कभी देखने में नहीं आया। उस इलाके में रहने वाले लोगों के जीवन पर कभी कोई रेडियो एक्टिव किरणों का असर नहीं देखा गया है। नंदा देवी की चोटियों पर वर्ष 2001 में सफाई अभियान भी चलाया गया था। 25 लोगों का दल जोशी मठ से नंदा देवी बेस कैंप के लिए गया था। इस दल ने अपने साथ ग्लेशियर्स पर छोड़ा गया बहुत सारा कचरा समेटा, लेकिन न्यूक्लियर डिवाइस से जुड़ी कोई चीज इस दल को नहीं मिली। पटवाल कहते हैं कि अब उस न्यूक्लियर डिवाइस को ढूंढना नामुमकिन है।

रेडियो एक्टिविटी का कोई सुराग नहीं

बदरीनाथ वन प्रभाग के डीएफओ एनएन पांडे का कहना है कि हर वर्ष नंदा देवी की चोटियों के निरीक्षण के लिए सेना के अभियान दल जाते हैं। एक दल में दस से बीस लोग होते हैं। वर्ष में इस तरह के दस दल चोटियों के लिए जाते हैं, लेकिन अब तक वहां रेडियो एक्टिविटी का कोई सुराग नहीं मिला है और न ही रेडियो विकिरण का कोई असर बदरीनाथ वन प्रभाग के वन्य जीवों पर देखने को मिला है। नंदा देवी के ग्लेशियर इसी वन प्रभाग के तहत आते हैं। डीएफओ का कहना है कि अगर किसी तरह का परमाणु प्रदूषण हुआ होता तो वन्य जीवों पर इसका असर जरूर देखने को मिलता। वन्य जीवों में चर्म रोग या बाल झडऩे जैसे लक्षण होते हैं, वहां ऐसा कुछ भी देखने में नहीं आया। डीएफओ के मुताबिक प्राइवेट ट्रैकर्स को नंदा देवी की चोटियों पर जाने की इजाजत नहीं है।

अपने जासूसी मिशन के लिए सीआईए ने नंदा देवी की चोटियों पर अपने न्यूक्लियर रेडियो डिवाइस को लगाने के पुख्ता इंतजाम किए थे। चीन की बढ़ती ताकत से परेशान अमेरिका और भारत सरकार चीन पर निगरानी के इस प्रस्ताव को राजनीतिक तौर पर जरूरी माना, लेकिन नंदा देवी की चोटी पर आए तूफान से ये मिशन पूरा नहीं हो सका। अभियान दल अपने साथ जो प्लूटोनियम ले गया वो एक रहस्य बन कर रह गया। ऐसा खतरनाक रहस्य जिसका पता लगाना या नष्ट करना नामुमकिन हो गया है जो कभी भी मानव सभ्यता के लिए बड़ा खतरा बन सकता है।

प्लूटोनियम के खतरे

सभी रेडियोएक्टिव तत्वों की तरह प्लूटोनियम लगातार रेडियोएक्टिव विकिरण करते रहते हैं। रेडियोएक्टिव पदार्थ से अल्फा, बीटा, गामा और एक्सरे जैसे हानिकारण विकिरण उत्सर्जित होते रहते हैं जिन्हें न रोका जा सकता है और न उनकी विकिरण की गति को कम किया जा सकता है। प्लूटोनियम चांदी के रंग का एक रेडियोएक्टिव धातु है। इसका नाम प्लूटो ग्रह के नाम रखा गया है। यह 1940 के दशक में यूरेनियम 238 पर न्यूट्रॉन की वर्षा के द्वारा उत्पन हुआ। प्लूटोनियम 239 भी यूरेनियम 233 की तरह उन चंद धातुओं में से है, जिसका परमाणु एक से अधिक भागों में टूट कर नाभिकीय विस्फोट कर सकता है। रेडियो एक्टिव किरणों से सबसे ज्यादा नुकसान मानव को होता है। इससे कैंसर, अनुवांशिक व्युत्पन्नता, विकलांगता जैसी बीमारियां हो सकती हैं।

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