बाबाओं-नेताओं का Deadly Combo, आंदोलनों के लिए ठीक नहीं

Update:2017-09-15 15:52 IST

भोपाल : स्टॉकहोम वाटर प्राइज से सम्मानित और दुनिया में जलपुरुष के नाम से पहचाने जाने वाले राजेंद्र सिंह बाबाओं और नेताओं के गठजोड़ से सामाजिक आंदोलनों को हो रहे नुकसान और आंदोलनों की समाज में गिरती साख को लेकर चिंतित हैं। उनका मानना है कि यह गठजोड़ सामाजिक आंदोलनों को खत्म करने की कगार पर ले गया है।

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आंध्र प्रदेश के विजयवाड़ा में ईशा फाउंडेशन द्वारा आयोजित कार्यक्रम 'रैली फॉर रिवर्स' में हिस्सा लेकर लौट रहे राजेंद्र सिंह ने गुरुवार को कहा, "देश उस दौर से गुजर रहा है जब बाबा-राजनेता एक दूसरे के लिए काम कर रहे हैं, इसका उदाहरण आसाराम बापू, गुरमीत राम रहीम, रामपाल आदि तो वे हैं, जिनका चेहरा बेनकाब हो गया है, इसके अलावा भी कई और बाबा ऐसे हैं जो इस गठजोड़ का हिस्सा हैं, उनके चेहरे कब बेनकाब होंगे यह तो नहीं मालूम मगर देर-सबेर बेनकाब होना तय है।"

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एक सवाल के जवाब में राजेंद्र सिंह ने कहा, "इस देश में बड़े-बड़े सामाजिक आंदोलन हुए हैं, जनता ने उनका साथ दिया, मगर बीते कुछ वर्षो में इन आंदोलनों के प्रति लोगों का रुझान कम हुआ है, इसकी वजह 'बाबा' है। इनके सामाजिक आंदोलनों में लोग शामिल तो होते हैं और हकीकत सामने आने पर उनका भरोसा टूट जाता है, वर्तमान दौर में यही कुछ चल रहा है।"

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उन्होंने कहा, "जीने, पीने और स्वस्थ रहने के लिए स्वच्छ जल की जरूरत है, यह नेता और बाबा दोनों जानते हैं, लिहाजा उन्होंने अब धीरे-धीरे पानी को राजनीतिक मुद्दा बनाने की कोशिशें तेज कर दी हैं। नदी बचाने, नदी को प्रवाहमान बनाने की बात करने लगे हैं, जबकि आज आलम यह है कि सूखी नदियां तो बहने लगी हैं, मगर उद्योग और सीवर के दूषित जल से, वहीं अविरल, निर्मल नदियां सूख रही हैं।"

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विभिन्न स्तर पर राजनीतिक दलों और सरकारों द्वारा चलाए जा रहे 'पानी बचाओ' और 'नदी बचाओ' अभियान पर उन्होंने सवाल उठाते हुए कहा, "छोटे स्लोगन और नारे उन लोगों की राजनीतिक महत्वाकांक्षा को कुछ लाभ पहुंचा जाते हैं और जनता में भरोसा पैदा करने के लिए बाबाओं का सहारा लिया जाता है, जब स्लोगन के मुताबिक काम नजर नहीं आता तो आमजन का विश्वास टूटता है, यही समाज के लिए सबसे घातक है।"

राजेंद्र सिंह ने सवाल उठाते हुए कहा, "आज माहौल ऐसा क्यों बना कि आपको (बाबाओं) जनहित के मसले पर चर्चा करने और अपनी बात कहने के लिए लोगों को बुलाना पड़ता है, मजमा लगाना होता है। हमने पहले भी और अभी भी वह दौर देखा है जब गांव, कस्बे और शहर में पहुंचो तो बड़ी संख्या में लोग आप से संवाद करने आ जाते हैं। सभी नदी बचाने, पानी संरक्षण पर चर्चा को लालायित रहते हैं। इतना ही नहीं जागरूक लोग इसका हिस्सा भी बनते हैं।"

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उन्होंने कहा, "राजनेता कई मसलों पर बाबाओं को आगे कर देते हैं और पीछे से अपने स्वार्थ साधते हैं, सत्ता में आ जाने पर बाबाओं की चांदी हो जाती है, मगर उनकी असलियत ज्यादा दिन तक नहीं छुपती। लिहाजा, बाबाओं को अपना काम मसलन आध्यात्म, समाज में जागृति और नई पीढ़ी को मार्ग दर्शन का काम करना चाहिए, न कि राजनीति का हिस्सा बनना चाहिए।"

उन्होंने कहा, "देश का बड़ा हिस्सा जल संकट से जूझता है, कहीं सुखाड़ तो कहीं बाढ़ आती है, आम आदमी का मूल वजह से ध्यान हटाने के मकसद से इस समस्या को लेकर सरकारों ने जनजागृति लाने के लिए कुछ बाबाओं को मोहरा बना लिया है, सरकारों को यह पता ही नहीं है कि इन बाबाओं की पानी के संरक्षण, नदी पुनर्जीवन पर कितनी समझ है।"

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उन्होंने आगे कहा, "इतना जरूर है कि इन बाबाओं को मानने वाले बड़ी संख्या में हैं। सरकारें तो बाबाओं के जरिए मजमा लगाना चाहती हैं, जिसमें उन्हें सफलता भी मिलती है। बाबा पूरी जिंदगी ईश्वर की आराधना और आध्यात्म का पाठ पढ़ाने में लगे रहे, मगर सरकारों के प्रलोभन के चलते वे भी नदियों को बचाने की राजनीति का हिस्सा बन रहे हैं। जब यह बाबा अपने अभियान में सफल नहीं होंगे, तो उनके भक्तों और समाज के बड़े वर्ग का भरोसा टूटेगा। यही सबसे दुखद होगा।"

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