योगेश मिश्र/शशि सिंह
लखनऊ: इतिहास गवाह है कि भारतीय जनता पार्टी के लिए कांग्रेस के किले ध्वस्त करना आसान होता है। जबकि क्षेत्रीय दलों के किले भेदना भाजपा के लिए मुश्किल होता है। उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा का गठबंधन भाजपा के सामने होगा, जिसमें अपने वोटों को ट्रांसफर कराने की जादुई क्षमता वाली नेता मायावती भी हैं। अखिलेश यादव और मायावती के सामने अस्तित्व का संकट हैं। ऐसे में गठबंधन की उम्मीदें बेमानी नहीं कही जानी चाहिए। भाजपा के लिए सपा-बसपा गठबंधन से अधिक बड़ी चुनौती मायावती और कांग्रेस के साथ राष्ट्रीय स्तर पर हो रहा समझौता है, जिसके तहत मायावती कम से कम मध्य प्रदेश में कांग्रेस के साथ विधानसभा लडेंग़ी। सूत्रों की मानें तो लोकसभा में सपा-बसपा के साथ समझौते में कांग्रेस को जो सीटें मिलेंगी उससे इतर मायावती कांग्रेस से सीटों की अदला-बदली करेंगी।
मसलन, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, पंजाब, दिल्ली आदि राज्यों में उन्हें कांग्रेस एक-दो सीट देने का मन बना चुकी है। छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, कर्नाटक और राजस्थान विधानसभा में बसपा अपने खाते भी खोल चुकी है।
कांग्रेस की रणनीति है कि मोदी का मुकाबला करने के लिए हिंदू वोटों में से दलित वोटों को मयावती के बहाने खिसकाया जाए। जबकि मायावती की रणनीति यह है कि इस बहाने राष्ट्रीय पार्टी का ओहदा फिर हासिल किया जा सके। वर्ष १९९३ के विधानसभा चुनाव में सपा और बसपा मिलकर मैदान में उतरे थे। बसपा को ६३ सीटों सहित २८.५३ फीसदी वोट मिले थे। सपा को १०९ सीटों के साथ २९.४८ फीसदी वोट हाथ लगे थे। जबकि भाजपा को १७७ सीटें और ३३.३० फीसदी वोट मिले थे। उस समय उत्तर प्रदेश और आज का उत्तराखंड एक साथ था।
यूपी पर ही होंगी सबकी निगाहें
आगामी लोकसभा चुनाव भले ही देशभर में होंगे पर सबकी नजरें उत्तर प्रदेश पर ही टिकी रहेंगी क्योंकि यहीं के नतीजें तय करेंगे कि केंद्र में कैसी और किसकी सरकार होगी? इसलिए भी क्योंकि यह जुमला भी उत्तर प्रदेश से रिश्ता रखता है कि प्रधानमंत्री की कुर्सी उत्तर प्रदेश से होकर जाती है। इसलिए भी क्योंकि उत्तर प्रदेश में गठबंधन और मोदी मैजिक की सबसे बड़ी परीक्षा होगी। वर्ष २००४ में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार न बन पाने के पीछे उत्तर प्रदेश ही था। उस चुनाव में भाजपा को २२.१७ फीसदी वोट तो मिले पर सीटें सिर्फ १० हाथ लग पायीं। इस लोकसभा चुनाव में देशभर में कांग्रेस और भाजपा के बीच सिर्फ ७ सीटों का अंतर था। कांग्रेस को १४५ और भाजपा को १३८ सीटें मिली थी। उत्तर प्रदेश से ही भाजपा की 19 सीटें कम हो गई थीं। इससे पहले के लोकसभा चुनाव में भाजपा को २९ सीटें मिली थी।
1993 से स्थितियां अलग
1993 में मुलायम सिंह एवं कांशीराम ने राम मंदिर के राजनीति से ऑक्सीजन पाई भाजपा को हराने के लिए हाथ मिलाया था। 1993 की सफलता में एक नारा खूब जोर पकड़ा था- ‘मिले मुलायम-कांशीराम, हवा हो गए जय श्रीराम।’ 1993 में राम लहर के दौरान जब मुलायम और कांशीराम ने गठबंधन किया था, तब सियासत का रुख अलग था और दोनों चेहरों की चमक भी अलग थी। तब के दौर में मंडल आयोग ने ओबीसी वोटरों को एकजुट किया था और मुलायम सिंह की यूपी में निर्विवाद चेहरे के तौर पर पहचान थी। 1993 से अलग अपने कमजोर दौर में भी बसपा एवं सपा गठबंधन के सहारे जाटव, यादव एवं मुस्लिम मतों के समीकरण बनाने में सफल हो सकते हैं।
नहीं दिख रहा मोदी का विकल्प
उस समय कल्याण सिंह के सुशासन के दौर ने इस समीकरण को भी धता दिया। यह भाजपा के लिए एक ‘सिल्वर लाइन’ है क्योंकि केंद्र में नरेंद्र मोदी भी नाम और काम के ऐसे नेता हैं जिनका दूर-दूर तक विकल्प नहीं दिखता है। योगी आदित्यनाथ की नीयत को लेकर सवाल नहीं है परंतु यदि भाजपा जातीय राजनीति के जरिये समीकरण साधती रही तो उसे ढेर होना ही पड़ेगा क्योंकि सपा और बसपा के पास इलाकाई ओबीसी नेता काफी हैं। उसे सुशासन और विकास को मुद्दा बनाना होगा क्योंकि १९९६ विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और बसपा मिलकर लड़े थे। उस समय कांग्रेस को ३३ सीटें और २९.१३ फीसदी वोट मिले थे जबकि बसपा को ६७ सीटें और २७.७३ फीसदी वोट हासिल हुए थे। सपा को ११० सीटें और ३२.१० फीसदी वोट मिले थे। तब भी भाजपा को १७४ सीटें और ३३ फीसदी वोट हासिल हुए थे। मतलब साफ है कि बसपा-कांग्रेस और बसपा-सपा दोनों गठबंधनों के दौर में भाजपा अपने ३३ फीसदी वोट बांधने में कामयाब रही। इसका भी कारण सुशासन था।
तैयारी में भाजपा आगे मगर भारी पड़ सकता है गठबंधन
वर्ष २०१४ का लोकसभा चुनाव भाजपा के लिए उत्कर्ष काल कहा जा सकता है। इस चुनाव में सपा, बसपा और कांग्रेस को जो भी वोट मिले वह सियासी समीकरणों के मुताबिक उनका न्यूनतम आंकड़ा कहा जा सकता है। सपा और बसपा ने मिलकर लोकसभा चुनाव में ४२ फीसदी वोट हासिल किया था। जबकि २०१७ के यूपी विधानसभा चुनाव में इन दोनों दलों को ४४ फीसदी वोट हासिल हुए थे। कांग्रेस को क्रमश: ७ और ६ फीसदी वोट हाथ लगे थे। जबकि बीते लोकसभा चुनाव में भाजपा को ४२.६३ और २०१७ के विधानसभा चुनाव में ३९.१६ फीसदी वोट हाथ लगे थे। राजनीति में २ और २ केवल चार नहीं होते, यह जग जाहिर है परंतु न्यूनतम और अधिकतम के आंकड़ों को ठीक पलटकर रख देना संभव नहीं है। उस पर बने रहना भी संभव नहीं है। ऐसे में गठबंधन की सियासत भाजपा पर भारी पड़ सकती है। हालांकि चुनावी तैयारी में भाजपा अमित शाह की अगुवाई में बहुत आगे निकल चुकी है, लेकिन सत्ता विरोधी रुझान, सांसदों के प्रति नाराजगी, वोटों के धु्रवीकरण, मोदी बनाम अन्य की लड़ाई में आगे निकल गई यह स्पीड कब पीछे छूट जाएगी, कहा नहीं जा सकता।
उत्तर प्रदेश की राजनीति
यूपी में कांग्रेस के पतन के बाद पिछड़ी जातियों, दलित जातियों व सवर्ण जातियों की सामाजिक-राजनीतिक गोलबंदी अलग-अलग पार्टियों के पक्ष में रही, लेकिन २014 लोकसभा चुनाव ने उत्तर प्रदेश की राजनीति को एक नया आयाम दिया। प्रदेश के मतदाताओं ने एक नए सामाजिक समीकरण को स्वीकृति दी। 2014 के चुनाव में भाजपा के पक्ष में सवर्ण जातियों की गोलबंदी को अन्य पिछड़ी एवं दलित जातियों का समर्थन प्राप्त हुआ। भाजपा ने जिस उद्देश्य के तहत अपना दल के साथ गठबंधन किया था, उसका अपेक्षित लाभ भी भाजपा को मिला। भाजपा को 2014 लोकसभा चुनाव में संप्रग सरकार के खिलाफ असंतोष के कारण जिस सामाजिक समीकरण का लाभ मिला था, 2017 विधानसभा चुनाव में भी उसकी पुनरावृति देखने को मिली, लेकिन हाल ही में बसपा, सपा और रालोद के साथ आने से भाजपा को गोरखपुर, फूलपुर एवं कैराना के उपचुनावों में हार का सामना करना पड़ा।
2019 में उत्तरप्रदेश में किस तरह का परिणाम होगा, ये गठबंधन के स्वरूप व इनके जातिगत समीकरण के अलावा मुद्दों व उम्मीदवारों के चयन, प्रचार-प्रसार और जमीनी रणनीति पर निर्भर करेगा। भाजपा का प्रयास महागठबंधन के जातिगत समीकरण को हिंदुत्व के सहारे भेदने का होगा। अगर महागठबंधन को दलित, यादव, मुस्लिम सहित उम्मीदवारों के आधार पर अन्य जातियों का मत प्राप्त हो जाता है तो भाजपा को कई सीटों का नुकसान हो सकता है। पिछले दो चुनाव की भांति 2019 में भी भाजपा को जीतने के लिए सवर्ण जातियों सहित पिछड़ी जातियों का गठजोड़ बनाने का प्रयास होगा। भाजपा चुनाव को हिंदुत्व व विकास के सहारे लडऩे का प्रयास करेगी मगर इसमें 2014 के भांति कितना सफल होगी, कहना मुश्किल है।
इस बार के मुद्दे
नरेन्द्र मोदी के चार वर्ष के कार्यकाल के जनता के समक्ष कई सामाजिक-आर्थिक योजनाओं का आगाज हुआ है। इनमें प्रधानमंत्री उज्जवला योजना, सुकन्या समृद्धि योजना, स्वच्छ भारत अभियान, प्रधानमंत्री मुद्रा बैंक योजना, प्रधानमंत्री जनधन योजना, दीनदयाल उपाध्याय ग्राम ज्योति योजना, प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना, प्रधानमंत्री सुरक्षा बीमा एवं प्रधानमंत्री जीवन ज्योति बीमा योजना प्रमुख हैं। इनमें से कुछ योजना का जनमानस पर सीधा प्रभाव पड़ा हैं, इससे बात से कतई इनकार नहीं किया जा सकता हैं।
- 2014 के समय रोजगार व आर्थिक स्थिति को उठाते हुए काला धन को लाकर अच्छे दिन लाने का जो वादा था, वो नरेन्द्र मोदी सरकार ने कितना पूरा किया है, नोटबंदी के निर्णय और इसके बाद जीएसटी के फैसले से देश को कितना लाभ हो रहा है, इन बातों पर जनता के बीच संशय है।
- भाजपा विरोधी पार्टियां इन मुद्दों को लेकर नरेन्द्र मोदी को घेरने में कितना सफल होंगी,कहना मुश्किल है। देखना होगा कि नरेन्द्र मोदी जब इन पार्टियों को वंशवाद और भ्रष्टाचार के मुद्दे पर घेरेंगे तो ये कितना तार्किक जवाब दे पाएंगी।
- नरेन्द्र मोदी 2019 में गरीब घरों को सबसे पहले गैस चूल्हा, सबसे पहले घर देने और गांव में सबसे पहले बिजली देने जैसे मुद्दों को उठाकर मतदाताओं को अपनी ओर आकर्षित करने का प्रयास करेंगे। वहीं दूसरी ओर मोदी सरकार की कई महत्वपूर्ण योजनाएं-मेक इन इंडिया, स्मार्ट सिटी एवं स्किल इंडिया इत्यादि जो पटरी पर नहीं दौड़ पायी हैं, उन्हें लेकर विपक्षी पार्टियां मोदी सरकार को घेर सकती हैं। इन सभी मुद्दों पर जो गठबंधन जनता के समक्ष तार्किक ढंग से अपनी बातों को रख पाएगा, उसे लाभ होने की संभावना है।
- उत्तर प्रदेश की राजनीति से लेकर केंद्र की राजनीति तक भाजपा का शासन हैं। ऐसी स्थिति में कुछ हद तक सरकार विरोधी लहर के होने से इनकार नहीं किया जा सकता। विपक्षी गठबंधन सत्ता विरोधी मुद्दों को किस रूप में उठाने में सफल होता है, वही फ्लोटिंग मतदाताओं की दिशा तय कर सकता हैं।
- नरेन्द्र मोदी जब कुछ मुद्दों पर फंसने लगेंगे तो ‘चार साल बनाम सत्तर साल’ का कैम्पेन जरूर चलाएंगे। विपक्षी गठबंधन के पास जो तार्किक जवाब होगा, वह कुछ हद तक फ्लोटिंग मतदाताओं की दिशा तय कर सकता है।
- चुनाव व्यक्ति केन्द्रित होने के बजाय जितना मुद्दा आधारित होगा, उतना महागठबंधन को लाभ हो सकता है। अगर तमाम मुद्दों को छोड़ हिन्दू-मुस्लिम चुनाव होता है और चुनाव के केंद्र में नरेन्द्र मोदी होते हैं तो भाजपा को सीधा लाभ हो सकता है। कहा जा सकता है कि मुद्दों का चयन भाजपा व सहयोगी दलों और महागठबंधन के वोट शेयर में फर्क डाल सकता है।
उम्मीदवारों का चयन
2014 के चुनाव में नरेन्द्र मोदी के आंधी में अधिकतर सीटों में उम्मीदवार का चयन का मुद्दा गौण रहा था, पर 2019 में उम्मीदवार चयन की बड़ी भूमिका रहने की सम्भावना है। उत्तर प्रदेश की अधिकतर सीटों पर अभी से ही भाजपा के कई सांसदों के टिकट बदले जाने की चर्चा है। उम्मीदवारों का चयन कई लोकसभा में परिणाम बदल सकता है। सपा, बसपा, कांग्रेस, रालोद गठबंधन होने की स्थिति में इस गठबंधन द्वारा मुस्लिम बाहुल्य लोकसभा क्षेत्रों में उम्मीदवारों का चयन परिणाम पर असर डाल सकता है। उत्तर प्रदेश की करीब 14-15 लोकसभा ऐसी हैं, जहां कांग्रेस उम्मीदवार का प्रभाव है।
प्रचार-प्रसार एवं जमीनी रणनीति
उत्तर प्रदेश की कई लोकसभा सीटों पर प्रचार-प्रसार और जमीनी रणनीति के कारण भाजपा व महागठबंधन की स्थिति में बदलाव आ सकता है। 2014 के चुनाव में भाजपा की पब्लिसिटी को कोई नहीं भूल सकता है। अब 2019 में भी भाजपा इस मामले में विपक्षी पार्टियों पर भारी पड़ सकती है। इस स्थिति में भाजपा अपने मतों में कुछ हद तक वृद्धि कर सकती हैं।
2014 लोकसभा चुनाव में यूपी में भाजपा गठबंधन ने 73, कांग्रेस ने 2 एवं सपा ने 5 लोकसभा सीटों पर जीत दर्ज की थी, लेकिन अगर सपा, बसपा, कांग्रेस व रालोद का गठबंधन होता हैं तो 2019 में स्थिति बदलने की सम्भावना है। भाजपा को कई लोकसभा सीटों पर हार का सामना करना पड़ सकता है। अगर महागठबंधन में कोई भी पार्टी (सपा, बसपा या कांग्रेस) अलग रहती है तो भाजपा व सहयोगियों को सीधे तौर पर लाभ होगा लेकिन 2014 के मुकाबले कुछ लोकसभा क्षेत्रों में स्थिति कमजोर रहने की सम्भावना है।