लोकसभा चुनाव 2019: हाथी और हाथ होंगे साथ-साथ

Update:2018-07-15 19:24 IST

योगेश मिश्र

लखनऊ: सपा और बसपा भले ही उत्तर प्रदेश में अपने गठबंधन की शक्ल को अंतिम रूप न दे पाए हों, लेकिन बसपा सुप्रीमो मायावती ने कांग्रेस के साथ अपने गठबंधन के फार्मूले को अंतिम रूप दे दिया है। राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के आगामी विधानसभा चुनावों में बसपा कांग्रेस के साथ फ्रेंडली फाइट करती नजर आएगी, लेकिन यह रणनीति कुछ ही सीटों पर होगी जबकि तीनों राज्यों की अधिकांश सीटों पर दोनों एक साथ गठबंधन के तौर पर नरेंद्र मोदी की भाजपा का मुकाबला करते देख सकते हैं। दोनों दलों के बीच साझे का यह समीकरण लोकसभा चुनावों में भी दूसरे राज्यों में भी दिखाई पड़े तो हैरत की बात नहीं होनी चाहिए। कांग्रेस बसपा को बिहार, मध्य प्रदेश, पंजाब, दिल्ली, छत्तीसगढ़, कर्नाटक, महाराष्ट्र आदि राज्यों में आगामी लोकसभा चुनावों में अधिक से अधिक दो सीटें देने पर राजी हो सकती है।

कांग्रेस व मायावती के अपने-अपने स्वार्थ

इन सभी राज्यों में बसपा पहले से लोकसभा और विधानसभा का चुनाव लड़ती आ रही है। इसमें छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, कर्नाटक और राजस्थान विधानसभा में तो वह अपना खाता भी खोल चुकी है। कांग्रेस की रणनीति यह है कि मोदी का मुकाबला करने के लिए हिंदू वोटों में से दलित वोटों को मायावती के बहाने खिसकाया जाए। जबकि मायावती की रणनीति यह है कि इस बहाने वह एक बार फिर राष्ट्रीय पार्टी होने का ओहदा हासिल करने में कामयाब हो सकेगी। जिन राज्यों में वह कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ेंगी, उन राज्यों में उनकी संगठनात्मक स्थिति और मजबूत होगी।

उत्तर प्रदेश में भी दिखेगा असर

सूत्रों की मानें तो कर्नाटक में 2, पंजाब में 1, दिल्ली में 1, राजस्थान और मध्यप्रदेश में 2-2 सीटें देने के लिए कांग्रेस की ओर से हामी भर दी गई है। इस गठबंधन के लिए दूसरे पायदान के दोनों दलों के नेता मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल से लेकर दिल्ली तक कई चरणों में बातचीत कर चुके हैं। मायावती और कांग्रेस के इस समझौते का असर उत्तर प्रदेश में भी दिखना लाजमी है। यहां भी जो गठबंधन बनेगा, वह सिर्फ सपा-बसपा का नहीं होगा। यह बात कांग्रेस और बसपा के लोकसभा चुनाव के रणनीतिक तालमेल से साफ हो गई है।

कांग्रेस को समझौते से फायदे की उम्मीद

राजस्थान में पिछला विधानसभा चुनाव बसपा 195 सीटों पर लड़ी थी और उसे 3.4 फीसदी वोट मिले थे। बसपा तीन सीटें जीती थी। कांग्रेस 200 सीटों पर लड़ी, सिर्फ 21 सीटें हाथ लगीं। उसे 33.1 फीसदी वोट हासिल हुआ था। जबकि भाजपा को 163 सीटों के साथ 42.2 फीसदी वोट हाथ लगे थे। सपा लड़ी तो जरूर 56 सीटों पर थी, पर उसे आधे फीसदी से भी कम वोट मिले।

लोकसभा चुनाव में भी भाजपा को सभी 25 सीटें हासिल हुई थीं। उसे 55 फीसदी से अधिक वोट मिले थे। मध्य प्रदेश में भी बसपा पिछले विधानसभा चुनाव में 6.29 फीसदी वोट पाई थी। उसे 4 सीटें मिली थीं। लोकसभा में भी बसपा के खाते में 3.8 फीसदी वोट आए थे। वर्ष 2013 के मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव में कांग्रेस 58 सीटों पर विजयी हुई थी और उसे 36.38 फीसदी वोट मिले थे। जबकि भाजपा को 44.88 फीसदी वोटों के साथ 165 सीटें हासिल हुई थीं। कांग्रेस को उम्मीद है कि यहां बसपा के साथ उसका गठबंधन सरकार बनाने के दरवाजे खोल सकता है।

छत्तीसगढ़ में भी बीते विधानसभा चुनाव में बसपा 4.3 फीसदी वोटों की हकदार थी। वह 90 सीटों पर लड़ी और एक पर विजय हासिल की जबकि भाजपा 90 सीटों पर लडक़र 49 जीती और 41 फीसदी वोट मिले। कांग्रेस भी सभी 90 सीटों पर उतरने के बाद 40.3 फीसदी वोट पाई मगर उसे 39 सीटों पर ही संतोष करना पड़ा। हालांकि बीते लोकसभा चुनाव में एक सीट पर सीमित होने वाली कांगेस 38.4 फीसदी वोट पाई। भाजपा को 4 सीटें मिलीं और 48.4 फीसदी वोट मिले। यहां भी कांग्रेस बसपा के वोट के सहारे सरकार बनाने के सपने देख रही है।

मोदी के किले में सेंध लगाएगी कांग्रेस

कांग्रेस की रणनीति के मुताबिक मोदी के हिंदू मतदाताओं में सेंध लगाने का इकलौता तरीका दलितों को अपने पाले में खड़ा करना है। उत्तर प्रदेश में मायावती दलितों की एकमात्र और सबसे बड़ी नेता हैं जबकि आस पास के राज्यों में भी दलित उनमें आकर्षण देखता है। कांग्रेस ने इसी आकर्षण को वोटों में तब्दील करके भाजपा के किले में सेंध लगाने के लिए मायावती की ओर जिस उम्मीद से हाथ बढ़ाया था, उसे थाम लिया गया है।

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