अखिलेश यादव सरकार को भ्रष्टाचार के मामले में घेरने के लिए बनाई गयी गोमती रिवर फ्रंट परियोजना की जाँच रिपोर्ट योगी सरकार के लिए बड़े विवाद का सबब बन गयी है। रिटायर्ड जस्टिस आलोक कुमार सिंह आयोग की 74 पेज की इस रिपोर्ट ने नौकरशाहों के बीच लड़ाई का एक नया प्लेटफार्म तैयार कर दिया है।
वर्तमान मुख्य सचिव राहुल भटनागर और पूर्व मुख्य सचिव आलोक रंजन के बीच यह रिपोर्ट बड़े हथियार के तौर पर काम कर रही है। राहुल भटनागर इस रिपोर्ट के मार्फत पूर्व मुख्य सचिव को इस अनियमितता का हिस्सेदार बताने पर तुले हैं। रिपोर्ट में बड़ी चतुराई से राहुल भटनागर की इस मंशा को परवान चढ़ाने का काम किया गया है।
इस परियोजना की सारी धनराशि व्यय वित्त समिति से अनुमोदित हुई थी। इस समिति के अध्यक्ष प्रमुख सचिव वित्त होते है। राहुल भटनागर उस समय इसी पद पर थे। यही नहीं इस परियोजना का अनुश्रवण मुख्य सचिव के तौर पर राहुल भटनागर ने भी सात महीने तक किया। इस दौरान परियोजना में 800 करोड़ रुपये खर्च हुए पर रिपोर्ट में राहुल भटनागर को प्रमुख सचिव और मुख्य सचिव दोनों पदों पर रहने के बाद भी क्लीन चिट थमा दी गई है। इस रिपोर्ट में विरोधाभासों का अंबार है। रिपोर्ट कहती है कि इस परियोजना के लिए एनवायरनमेंटल क्लीयरेंस नहीं ली गई है, जबकि परियोजना की फाइल में इसकी बाकायदा रिपोर्ट लगी है और उसे तत्कालीन मुख्य सचिव ने ‘सीन’ भी किया है।
रिपोर्ट में ऐसे तमाम विरोधाभास हैं जो उसकी विश्वसनीयता पर सवाल खड़े करते हैं। रिपोर्ट में किसी भी राजनेता को जिम्मेदार नहीं ठहराया गया है। जबकि हकीकत यह है कि यह परियोजना पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की स्वप्निल परियोजना थी। इसके पीछे उनका ही ब्रेन चाइल्ड था। पूर्व सिंचाई मंत्री शिवपाल सिंह यादव के विभागीय अधिकारी ही इस परियोजना के कर्ताधर्ता थे। हद तो यह है कि अनुश्रवण समिति के अध्यक्ष होने के नाते पूर्व मुख्य सचिव अलोक रंजन पर जिम्मेदारी डाली गयी है पर इसी समिति के अन्य कई सदस्यों के बारे में रिपोर्ट पूरी तरह खामोश है।
अनुश्रवण समिति में मुख्य सचिव के साथ-साथ आवास, नगर विकास, सिंचाई के प्रमुख सचिव के साथ-साथ कई अधिकारी थे पर रिपोर्ट सिर्फ प्रमुख सचिव सिंचाई दीपक सिंघल और आलोक रंजन पर ही सवाल उठाती है। यही नहीं परियोजना में सिंचाई विभाग के अभियंताओं, ठेकेदार कंपनियों, कुछ विशेषज्ञों के अलावा किसी को अपनी बात रखने का मौका ही नहीं दिया गया है।
जिस तकरीबन 80 करोड़ रुपये के फौव्वारे को लेकर हाय-तौबा मची हुई है उसका बजट भी व्यय वित्त समिति ने पास किया है। इस परियोजना के लिए सिंचाई विभाग की ओर से 1900 करोड़ रुपये की मांग की गई थी पर व्यय वित्त समिति ने 1513 करोड़ रुपये ही अनुमोदित किए। मतलब साफ है, हर आइटम की जांच पड़ताल किए बिना ही जांच रिपोर्ट व्यय वित्त समिति के किसी अधिकारी के रोल का परीक्षण किए बिना ही उन्हें क्लीन चिट दे दी है। 74 पेज की आलोक सिंह आयोग की यह रिपोर्ट इस परियोजना मे भ्रष्टाचार के तमाम ऐसे खेल का खुलासा करती है जिससे साफ होता है कि जनता की गाढ़ी कमाई और कहां कहां गवांई गयी। आमतौर पर किसी भी परियोजना के लिए टेक्निकल आडिट कमेटी बनाई जाती है जो कार्यों का परीक्षण करती है।
इस परियोजना के लिए ऐसी कमेटी नहीं गठित की गयी। हद तो यह है कि परियोजना के लिए आवंटित 95 फीसदी धनराशि खर्च होने के बाद भी मात्र 60 फीसदी काम पूरा हो पाया। हर परियोजना में 6.87 फीसदी सेंटेड चार्ज लिए जाने के नियम को भी इस परियोजना में ताक पर रखा गया जिससे सरकारी खजाने को 100 करोड़ रुपये का नुकसान पहुंचाय़ा। सेंटेड चार्ज माफ करने के लिए सिंचाई विभाग की तरफ से दिए प्रस्ताव को शासन ने निरस्त कर दिया था। बावजूद इसके सिर्फ 14.42 करोड़ रुपये इस मद में जमा हो सके।
टेंडर प्रकाशन से लेकर परियोजना के पूरे किए जाने की प्रक्रिया तक हर जगह गोलमाल ही नजऱ आता है। डायफ्राम वाल की बाबत 3 फरवरी, 2015 को टेंडर सूचना विभाग को दिया गया। पांच शुद्धि-पत्र जारी हुए। आयोग की रिपोर्ट बताती है कि गैमन इंडिया को फायदा पहुंचाने के लिए कंपनी की अहर्ता को परियोजना के काबिल बनाने के लिए सिमिलर (समान) शब्द हटा दिया गया। पांचों शुद्धि पत्र प्रकाशित नहीं किए गये। गैमन इंडिया लिमिटेड और पटेल इंजीनियरिंग लिमिटेड दो ही कंपनियों ने टेंडर डाले। दोनों मुंबई की हैं। दोनों ने वर्ष 2007 में हिमाचल प्रदेश में ज्वाइंट वेंचर में काम किया था।
मूल टेंडर में सामग्री की मात्रा घटने बढऩे पर क्षतिपूर्ति के भुगतान की व्यवस्था नहीं थी इसे बाद में कर दिया गया। गैमन इंडिया लिमिटेड पश्चिम बंगाल, राजस्थान और दिल्ली में काली सूची में डाल दी गयी थी। यह सूचना इंटरनेट पर उपलब्ध है पर इसकी अनदेखी की गयी। कंपनी को लाभ पहुंचाने के लिए 115.6 करोड़ रुपये की परफार्मेंस गारंटी नहीं ली गयी थी। हद तो यह है रबर डैम बनाने का अनुबंध भी इसी कंपनी के साथ किया गया।
अनुश्रवण समिति में मुख्य सचिव के साथ-साथ आवास, नगर विकास, सिंचाई के प्रमुख सचिव के साथ-साथ कई अधिकारी थे पर रिपोर्ट सिर्फ प्रमुख सचिव सिंचाई दीपक सिंघल और आलोक रंजन पर ही सवाल उठाती है। इसमें भी गैमन इंडिया और पटेल इंजीनियरिंग ने ही टेंडर डाला था। इंटरसेप्टिंग ड्रेन की टेंडर प्रक्रिया पर भी यह रिपोर्ट सवाल उठाती है। यह टेंडर केके स्पन प्राइवेट लिमिटेड को मिला। इसके लिए भी दो टेंडर आए थे दूसरा टेंडर में ब्रांड ईगल लोंगियान का था। दोनों फर्में दिल्ली की हैं।
दिलचस्प यह है कि केके स्पन प्राइवेट लिमिटेड का पंजीकरण 7 सितंबर 2015 को हुआ जबकि टेंडर खरीदने की तारीख 3 से 5 सितंबर 2015 की है। परियोजना के विजन डाक्यूमेंट में भी खुला खेल खेला गया। आरंभ में 3 करोड़ 63 लाख 68 हजार का यह टेंडर था, कार्यक्षेत्र 7 हेक्टेयर था इसमें एनार्च कंसल्टेंट प्राइवेट लिमिटेड नोयडा और मेसर्स ऐ.ई काम प्राइवेट लिमिटेड गुडगांव ने टेंडर भरा। ए.ई कॉम को काम मिला पर 30 जनवरी 2016 को इस कंपनी के आवेदन पत्र पर काम के क्षेत्रफल को 21 हेक्टेयर और बाद में 31.2 हेक्टेयर कर दिया गया। काम की धनराशि भी बढाकर 6.85 करोड़ कर दी गयी।
रिपोर्ट बताती है कि 1513.51 करोड़ रुपये के बजट में से 1437.83 करोड़ खर्च हो गया है। सिर्फ 75 करोड़ रुपये बचे हैं जबिक सेंटेज चार्जेज के मद में 71 करोड़ की देनदारी है। 6 जो काम परियोजना में शुरू ही नहीं किए गए उसके लिए आवंटित 114.58 करोड़ रुपये कहां गये इसका कोई अता पता नहीं है। परियोजना के 24 कामों में से सिर्फ 8 काम पूरे हो पाए है। 10 काम प्रगति पर बताए जा रहे हैं, 6 कार्य एक चौथाई भी नहीं शुरू हो पाए।
डायफ्राम वाल का बजट 29 फीसदी, स्लज निकालने का 5.88 फीसदी, इंटरसेप्टिंग ट्रंक ड्रेन का 26.57 फीसदी, बिजली कनेक्शन का 38 फीसदी, रबर डैम का 22 फीसदी, लक्जरी पैसेंजर बोट का 16.34 फीसदी, डायफ्राम वाल की ड्राइंग और डिजाइन का 264 फीसदी, तैरते फौव्वारे के मद में 585 फीसदी का इजाफा कर दिया गया। नियम के मुताबिक 10 फीसदी से अधिक इजाफे में व्यय वित्त समिति से अनुमति लेनी थी जिसके अध्यक्ष वर्तमान मुख्य सचिव राहुल भटनागर बतौर प्रमुख सचिव वित्त थे। मतलब साफ है कि इस इजाफा से पहले की सारी धनराशि व्यय वित्त समिति से अनुमोदित थी। रिपोर्ट अपने 22 वें पेज पर कहती है कि अऩुश्रवण समिति ने अपनी मीटिंगों के कार्यवृत्ति में कभी यह नहीं कहा कि नियमों और प्रक्रिया का उल्लंघन करते हुए कार्यों को शीघ्र कराया जाय।
बावजूद इसके सिर्फ मानिटरिंग के सवाल पर पूर्व मुख्य सचिव आलोक रंजन को कमेटी जिम्मेदार ठहराती है जबकि 16 महीने मानिटरिंग का काम किया और उनके कार्यकाल में 650 करोड़ रुपये खर्च हुए। वर्तमान मुख्य सचिव राहुल भटनागर ने 7 महीने अनुश्रवण का काम बतौर मुख्य सचिव किया इनके कार्यकाल में 800 करोड़ रुपये परियोजना पर खर्च हुए। रिपोर्ट के 25 नंबर पेज पर स्पष्ट रूप से अंकित है कि व्यय वित्त समिति ने डायफ्राम वाल के काम के लिए 433.90 करोड़ का बजट आवंटित किया था।
रिपोर्ट ने इस पर आपत्ति जताई है कि टेंडर में अनुमानित लागत 525.77 करोड़ लिखी गयी थी जबकि मूल बजट 433.90 करोड़ का था। यही नहीं डायफ्राम वाल की कार्यदायी संस्था गैमन इंडिया के पक्ष में 516.73 करोड़ का अनुबंध कर दिया गया। रिपोर्ट की पेज संख्या 34 नौकरशाही के टकराव को बढाती है। इस पेज पर लिखा है, उच्च स्तरीय अनुश्रवण समिति के संबंध में भी यह उल्लेख आवश्यक है कि उसके तत्कालीन अध्यक्ष और सदस्यों के भी प्रथम दृष्टया दोषी होने का उल्लेख यथा स्थान इस आख्या में किया गया है।
इसे स्पष्ट किया जाता है कि इस संबंध में दिए गये निष्कर्ष का उद्देश्य मुख्य रूप से समिति के तत्कालीन अध्यक्ष, तत्कालीन प्रमुख सचिव सिंचाई, तत्कालीन विभागाध्यक्ष तथा मुख्य अभियंता सिंचाई विभाग से है। वर्तमान मुख्य सचिव अथवा वर्तमान प्रमुख सचिव सिंचाई उसमें नहीं आते हैं क्योंकि जून 2016 के पश्चात कुछ ही मीटिंग उक्त समिति की हुई है। कार्य समाप्ति की ओर अंतिम अवधि में था। बाद में यह लोग चाहकर भी कुछ विशेष नहीं कर सकते थे। यह कैसे हो सकता है कि 7 महीने में तकरीबन 800 करोड़ रुपये खर्च करने वाला अफसर अनुश्रवण और व्यय वित्त के लिए क्लीन चिट पा जाए।
16 महीने में तकरीबन 650 करोड़ करने वाला अफसर दोषी करार दिया जाय। सरकारी नियम के मुताबिक किसी भी टेंडर प्रक्रिया का लेना देना मुख्य सचिव से नहीं होता है। अलोक रंजन 16 महीने मुख्य सचिव रहे इस परियोजना की अवधि 24 महीने की थी। तकरीबन 7 महीने का कालखंड राहुल भटनागर को भी मिला था।
परियोजना में गोलमाल करने के लिए सिंचाई विभाग ने कोई कोर-कसर बाकी नहीं छोड़ी, इसके लिए गोमती नदी के इस भूभाग को शारदा संगठन से हटाकर शारदा सहायक संगठन में किया गया। बिना ब्याज के ठेकेदार को 86 करोड़ रुपये अग्रिम दिया गया। डायफ्राम वाल के त्रुटिपूर्ण दर के चलते 53 करोड़ की क्षति हुई। इसी तरह रबर डैम के काम में सरकार को 3 करोड़ का नुकसान पहुंचाया गया। तकनीकी तौर पर इतनी गलती की गयी है कि भू जल स्त्रोत कभी भी नदी जल सतह से मिल ही नहीं सकता है। रबर डैम के नीचे डाउनस्ट्रीम इंटरसेप्टिंग ड्रेन के द्वारा गंदा पानी गोमती मे डाले जाने पर भी रिपोर्ट में सवाल उठाया गया है।
सिंचाई विभाग ने रबर डैम के लिए सामग्री विदेशों से क्रय करने की जगह गैमन इंडिया से काम कराया, रिपोर्ट कहती है कि अगर सीधे इसे क्रय किया जाता तो बचत की जा सकती थी। यह भी कम आश्चर्यजनक नहीं है कि चैनलाइजेशन और रबर डैम की तकनीकी जानने के लिए उच्च अधिकारियों और अभियंताओं का एक दल चीन, जापान, स्टाकहोम, जर्मनी, मलेशिया, सिंगापुर, दक्षिणी कोरिया व आस्ट्रिया जैसे देशों में गया पर काम कंपनी को दे दिया गया। रिपोर्ट के मुताबिक बेलजिओ फौव्वारे की गुणवत्ता और परफार्मेंस देखने के लिए तत्ककालीन अधिषाशी अभियंता फ्रांस गए थे।
उन्होंने संतुष्टि रिपोर्ट भी दी थी। अभियंता निरंजन के अलावा किसी भी इंजीनियर स्लज निकालने के काम में भी ईंमानदारी नहीं बरती। निरंजन ने जो स्लज निकाला उसे बेचकर 19 लाख रुपये खाते में जमा कराए। शेष 3 अभियंताओं ने अपने हिस्से की धनराशि नहीं जमाकर राजस्व की क्षति पहुंचाई।
पर्यावरण के लिहाज से भी रिपोर्ट के मुताबिक परियोजना के मद्देनजर कोई परीक्षण नहीं कराया गया। रिपोर्ट सिंचाई के प्रमुख सचिव रहे दीपक सिंघल, अधिशाषी अभियंता रूप सिंह यादव, अधीक्षण अभियंता, मुख्य अभियंता समेत सिंचाई विभाग के बड़े अमले को कटघरे में खड़ा करती है।
नहीं गठित की गयी टेक्निकल ऑडिट कमेटी
आमतौर पर किसी भी परियोजना के लिए टेक्निकल आडिट कमेटी बनाई जाती है जो कार्यों का परीक्षण करती है। इस परियोजना के लिए ऐसी कमेटी नहीं गठित की गयी। हद तो यह है कि परियोजना के लिए आवंटित 95 फीसदी धनराशि खर्च होने के बाद भी मात्र 60 फीसदी काम पूरा हो पाया।
हर परियोजना में 6.87 फीसदी सेंटेड चार्ज लिए जाने के नियम को भी इस परियोजना में ताक पर रखा गया जिससे सरकारी खजाने को 100 करोड़ रुपये का नुकसान पहुंचाया। सेंटेड चार्ज माफ करने के लिए सिंचाई विभाग की तरफ से दिए प्रस्ताव को शासन ने निरस्त कर दिया था। बावजूद इसके सिर्फ 14.42 करोड़ रुपये इस मद में जमा हो सके।