योगं शरणं गच्छामि : योग तो कर्म से जोड़ता...इसे खांचों, बाड़ों में बांटना ठीक नहीं

Update:2017-06-20 16:12 IST

योगेश मिश्र

‘संभावनाओं को समृद्ध बनाएं। योग अपनाएं।’ दुनिया के 175 देशों में इक्कीस जून को मनाए जाने वाले योग उत्सव की सभी खूबियों को यह पंचलाइन बखूबी बयां करती है। गणित की भाषा में योग का सीधा सा मतलब जोड़ होता है। योग शरीर को कर्म से जोडता है।

तभी तो गीता में श्रीकृष्ण ने 'योगः कर्मसु कौशलम्'– 'अर्थात' कर्म करने की एक प्रकार की विशेष युक्ति को योग कहा है। पाप–पुण्य से अलिप्त रहकर कर्म करने की जो समत्व बुद्धिरूप की विशेष युक्ति कृष्ण ने बताई है, वही 'कौशल' है और इसी कुशलता अर्थात युक्ति से कर्म करने को गीता में 'योग' कहा गया है। यही नहीं, योग आत्मा को परमात्मा से भी जोड़ता है। धारणा को ध्यान से जोड़ता है।

बावजूद इसके जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पहल पर संयुक्त राष्ट्र संघ दुनिया भर में योग दिवस के लिए हामी भर देता है तब भी मुट्ठीभर लोग उस योग को खांचों में बांटकर उसके गणितीय अभिप्राय को उलटने की साजिश करते हैं। वह योग को ठीक उलट परिभाषित करने लगते हैं। और कह उठते हैं कि धर्म उन्हें योग की इजाजत नहीं देता है।

कोई भी धर्म जोड़ने की इजाजत देता है। जोड़ने का काम करता है। तोड़ने का नहीं। योग का गणितीय अर्थ जोड़ना ही है। शायद यही वजह है कि देश में भले ही योग के विरोध के सुर मुखर हो रहे हों लेकिन करीब 50 इस्लामिक देशों के साथ ही तकरीबन दुनिया भर में हर देश में 21 जून को योग के हवन में आहुति देने की तैयारी है।

वैदिक साहित्य में तापसिक साधनाओं का जिक्र है। इस साहित्य का कालखंड 900 से 500 ईसा पूर्व माना जाता है। सिंधु घाटी की सभ्यता की खुदाई में भी योग मुद्राओं वाली तमाम मूर्तियां मिली हैं। यह सभ्यता 3300 से 1700 ईसापूर्व की मानी जाती है।

हिंदु वांग्मय में, ‘योग’ शब्द पहले कथा उपानिषद में ज्ञानेन्द्रियों के नियंत्रण और मानसिक गतिविधि के निवारण के अर्थ में प्रयुक्त हुआ था, जो उच्चतम स्थिति प्रदान करने वाला माना गया है। योग के स्थापित ग्रंथो में उपनिषद्, महाभारत, भगवद् गीता और पतंजलि के योग सूत्र तो सारी दुनिया को ना सिर्फ पता हैं बल्कि अरबी से लेकर जर्मन, रूस और अंग्रेजी तक में इनका अनुवाद भी हुआ है।

जो लोग योग को सिर्फ आध्यात्म से जोड़कर देखते हैं उनके बारे में निश्चित तौर से कहा जा सकता है कि उन्हें योग का सिर्फ एक ही पहलू पता है। योग एक जीवन पद्धति है। काम करने के लिए खुद को तैयार करने का उपक्रम है।

प्राचीन काल का हमारा योग पश्चिमी देशों में गया। भारत में “योगा” के मार्फत 20 वीं सदी के अंतिम दशक में आयात होकर आया तब तक उसके बारे में हमारे नज़रिये में काफी बदलाव आ चुका था। योग को छोड़कर हम लोग एरोबिक्स, पावर योगा एवं जिमनास्टिक जैसी कलाओं के प्रति इस तरह आकर्षित हुए कि हमें यह भूल ही गया कि हमारे अतीत के योग समुद्र का यह मात्र एक अंजलि भर पानी ही है।

विदेशों में योग से योगा बने हमारे इस ज्ञान को यूं ही नहीं अपना लिया गया। पश्चिम के अहम को अगर योग ने नतमस्तक किया है तो योग को भी उनके परीक्षणों की कसौटी को पार करना पडा है।

हार्वर्ड मेडिकल स्कूल और मैसच्यूसेट जनरल हास्पिटल के बेनसन हेनरी इंस्टीट्यूट फॉर माइन्ड बॉडी मेडिसिन के वैज्ञानिकों की मानें तो अवसाद और तनाव के पुराने से पुराने रोगी को ना सिर्फ योग ने राहत दिलाई है बल्कि यह दिमाग और जीन्स में भी बदलाव करने में सक्षम रहा है। इस इंस्टीट्यूट के मुताबिक यह अध्ययन ना सिर्फ कई और अध्ययनों की राह खोलता है बल्कि तनाव, अवसाद और हाईपर टेंशन, यहां तक कि नपुंसकता के पुराने से पुराने रोग को भगाने की उम्मीद भी योग जगा रहा है।

और तो और इस अध्ययन के मुताबिक ही बूढे होने की प्रक्रिया पर योग कॉमा नहीं बल्कि करीब-करीब फुलस्टाप लगा देता है। इसकी नज़ीर दुनिया की सबसे बूढी योग गुरु ताओ पोर्चोन लिंच हैं। 93 साल की लिंच के बुढापे ने गिनीज बुक से लेकर वीडियो तक में किसी भी जवानी को मात दे रखी है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन की माने तो सिर्फ अमरीका में तनाव की वजह से कंपनियों को हर साल करीब 300 बिलियन डालर का चूना लगता है। वह इसलिए क्योंकि अवसाद ग्रस्त, तनाव ग्रस्त लोग या तो आफिस नहीं आते या फिर उनकी उत्पादकता कम हो गयी है।

योग को सिर्फ आध्यात्म या फिर धर्म से जोडने वाले यह भूल जाते हैं कि भारत समेत पूरी दुनिया में योग पर लगातार वैज्ञानिक परीक्षण चल रहे हैं। ऐसे ही एक परीक्षण में सेंटर आफ बायोमेडिकल रिसर्च ने 15 साल पहले एक प्रयोग प्रस्तावित किया था जिसे यूजीसी, सीएसआईआर, डीएसटी और आईसीएमआर ने स्वीकार कर हरी बत्ती भी दिखा दी थी। लेकिन प्रशासनिक और राजनैतिक कारणों से इस प्रयोग पर शुरुआत सिर्फ एक साल पहले ही की जा सकी है। एक साल में ही हुए परीक्षणों ने ऐसे नतीजे दिये हैं जो विरोध करने वालों के ज्ञान पर ही सवालिया निशान लगा रहे हैं।

न्यूरो-ईमेजिंग और जीनोमिक्स तकनीक का इस्तेमाल करते हुए इन परीक्षणों से शारीरिक बदलावों को आंका गया। प्रयोग के दौरान किए गये लोगों के एमआरआई टेस्ट के नतीजों के मुताबिके योग करने से गामा अमीनो ब्यूटरिक एसिड, जिसे आम भाषा में गाबा कहा जाता है, उसका स्तर बढ जाता है। गाबा के बढ़ने का मतलब है कि तनाव, चिंता और अवसाद का घटना यानी योग से आज के दौर की इन आम बीमारियों पर काबू पाया जा सकता है। वो भी बिना एक रुपये खर्च किये।

इसी तरह योग के दौरान बोले जाने वाले ओम् यानी ‘ऊं’ शब्द पर भी वैज्ञानिक परीक्षण किए गए। ऊं की ध्वनि यौगिक परिभाषा के मुताबिक अ उ और म शब्दों से बनी है जिसकी प्रतिध्वनि से पाचन क्रिया, हार्ट-लंग- लिवर फंक्शन में सहायक है और इससे दिमागी सुकून मिलता है। साइनस माइग्रेन जैसी बीमारियों से इसके मुक्ति मिल सकती है। ओइम शब्द की प्रतिध्वनि से योग करने वाले को शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक शांति मिलती है। प्रयोगों के दौरान एमआरआई की रिपोर्ट से साफ है कि ऊं शब्द सिर्फ सुनने से दिमाग के दाएं और बांए हिस्से दोनों पर प्रभाव पडता है, दोनो हिस्से सक्रिय होते हैं। जबकि कोई क्रिया बिरले ही दोनों हिस्सों को सक्रिय कर पाती है।

यही वजह है कि ओम् शब्द सुनने या उच्चारित करने से भावनात्मक शांति और आध्यात्मिकता का अनुभव होने लगता है। तभी तो हमारे ऋषियों ने हर मंत्र से पहले ओम् शब्द जोड़ दिया है। प्रयोग के माध्यम से वैज्ञानिकता और आध्यात्म का यह अनूठा संगम अब सिद्ध हो चुका है। ओम् शब्द से हमारे दिमाग के सप्लीमेंटरी मोटर एरिया, सुपीरियर टेंपोरल गायरस, इंफीरियर फ्रंटल गायरस और डोरसो लेटरल प्री फ्रंटल कार्टेक्स पर असर पड़ता है जिससे हमारे शरीर और दिमाग में समन्वय बढता है, तारतम्यता आती है हमारी सुनने की शक्ति बढती है। हमारी एकाग्रता और ध्यान क्षमता में इजाफा होता है।

ओम् को लेकर हुए प्रयोगों की सफलता ने अब दुनिया भर के वैज्ञानिकों को शोध का नया विषय दे दिया है। अब वैज्ञानिक ओम् के साथ ही दूसरे धर्मों जैसे ईसाइयत, इस्लाम, सिक्ख, बौद्ध और जैन धर्म के मंत्रों पर शोध करने की तैयारी में हैं। इस शोध से यह पता लगाया जाएगा कि क्या ओम् का जो असर दिमाग के हिस्सों पर हुआ वही इन धर्म के श्लोकों, आयतों, वर्सेज,मंत्रों और अरदास से होता है।

अगर यह साबित होता है तो सभी धर्मों के एक होने का एक वैज्ञानिक प्रमाण मिलेगा और अगर यह साबित नहीं होता तो ओम् ध्वनि पूरी दुनिया में अनोखी है यह साबित हो जायेगा। इसका सिर्फ धार्मिक महत्व ही नहीं है बल्कि इसका महत्व हिंदू धर्म के वासुधैव कुटुम्बकम् से है।

सेंटर आफ बायोमेडिकल रिसर्च के सुदर्शन क्रिया और उसके मंत्र सो-हम् पर किए गये एक और प्रयोग में भी ऐसे ही नतीजे सामने आये हैं। हमारा दिमाग ग्रे मैटर और व्हाइट मैटर से बना है। इसमें पूरे दिमाग का 40 फीसदी ग्रे मैटर और 60 फीसदी व्हाइट मैटर है। ग्रे मैटर संख्या में कम होने के बावजूद दिमाग को मिलने वाली कुल आक्सीजन का 94 फीसदी अवशोषित करते हैं।

ग्रे मैटर हमारी सभी इंद्रियों यानी बोलना, सुनना, अहसास करना, देखना और याददाश्त के लिए उत्तरदायी है वहीं मांसपेशियों पर नियंत्रण भी ग्रे मैटर की ही जिम्मेदारी है। सो-हम् मंत्र पर हुए परीक्षणों में यह साबित हो गया कि इस मंत्र से दिमाग के वेंट्रल पालाडम, मोटर एरिया, और ब्रेनस्टेम पर असर पड़ता है। यही वजह है कि इससे ना सिर्फ मूड स्विंग, मिजाज के बदलाव, शरीर पर नियंत्रण होता है बल्कि अवसाद चिंता से मुक्ति में सो-हम् वैज्ञानिक तरीके से कारगर है।

अवसाद में दिमाग का एक खास हिस्सा क्रियाशील हो जाता है। ऐसे में अब उस पर अध्ययन करने के लिए सिर्फ वैज्ञानिक ही नहीं डाक्टर, समाजशास्त्री मनोवैज्ञानिक और व्यवहार विज्ञान के लोग एक साथ हाथ मिला रहे हैं। एक रिपोर्ट के मुताबिक साल 2030 तक दुनिया का डायबटीज कैपिटल भारत होगा।

दुनिया में सबसे ज्यादा मुधुमेह के मरीज भारत में होंगे। यही वजह है कि केंद्र का स्वास्थ्य विभाग स्वामी विवेकानंद योग आयुर्विज्ञान संस्थान यानी स्वासा के साथ मिलकर देश भर में मधुमेह रोगियों के लिए योग के 2000 विशेष कैंप लगवाने का समझौता कर चुका है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक साल 2030 तक डायबटीज कैपिटल के साथ ही भारत सुसाइड कैपिटल भी बन जायेगा।

यानी दुनिया में सबसे ज्यादा आत्महत्या भी भारत में होंगी। लोगों की जिंदगी के साल तो बढेंगे पर जीवन स्तर लगातार गिरता जायेगा। ऐसे में अब योग के जरिये एक बार फिर इन बदनामियो में नंबर एक बनने के बजाय भारत फिर से विश्वगुरु बन सकता है। योगा को योग का पुराना विस्तार और गरिमा देकर भारत पथप्रदर्शक हो सकता है।

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