लव भी छोड़ रहा इन जातियों को, इसी लिए नहीं होती आपस में शादी

अन्तरजातीय विवाह का अर्थ दो अलग-अलग जाति के लड़के और लड़की की शादी का होना है। चाहे वो किसी भी जाति से हो अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति या अन्य पिछड़ा वर्ग। भारत एवं नेपाल के हिन्दुओं में सामाजिक संकीर्णता के चलते अन्तरजातीय विवाहों की सामाजिक स्वीकृति कम रही है।

Update:2020-02-04 18:03 IST

रामकृष्ण वाजपेयी

लव भी छोड़कर रहा इन जातियों को, इसी लिए नहीं होती आपस में शादी, भारत में अंतरजातीय विवाहों की स्थिति के बारे में ताजा रिपोर्ट समाज में जातीय विभाजन की गहरी होती खाई को आईना दिखा रही है। 2019-20 में सरकार के तमाम प्रयासों के बावजूद सिर्फ 60 ऐसी शादियां हुई हैं जबकि 2018-19 में यह संख्या 120 थी।

अन्तरजातीय विवाह का अर्थ दो अलग-अलग जाति के लड़के और लड़की की शादी का होना है। चाहे वो किसी भी जाति से हो अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति या अन्य पिछड़ा वर्ग। भारत एवं नेपाल के हिन्दुओं में सामाजिक संकीर्णता के चलते अन्तरजातीय विवाहों की सामाजिक स्वीकृति कम रही है। सन 2014 के एक सर्वेक्षण के अनुसार सिर्फ 5% शादियां अन्य जातीयों में हुई हैं। अंतरजातीय विवाह का राष्ट्रीय औसत 10 प्रतिशत है। यह वास्तव में एक चिंताजनक स्थिति है।

सोच में हावी जातिवाद

विकास के तमाम सोपानों को पार करते हुए विश्व जहां आज एक नय़े मुकाम की ओर बढ़ने की ओर अग्रसर है वहीं भारत आज भी जाति धर्म के खांचे से बाहर नहीं निकल पाया है। वसुधैव कुटुम्बकम का मंत्र देने वाला देश आज ग्लोबल विलेज के इस दौर में जातिवर्ग के खांचे में बंटा हुआ है। सरकार के तमाम प्रयासों के बावजूद समाज की सोच में कोई बदलाव दिखाई नहीं दे रहा है। और यही कारण है कि समाज खुद को श्रेष्ठ बताने की होड़ में दूसरे को नीचा दिखाने के जटिल ताने बाने में उलझा हुआ है।

मनु के बताए काम छोड़ दिये व्यवस्था अपना ली

भारत में प्राचीन मनुवादी व्यवस्था में समाज को चार भागों में बांटा गया था। इस व्यवस्था में काम करने के आधार पर ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र नाम दिये गए। इस व्यवस्था में मानसिक श्रम, अध्ययन मनन और चिंतन करने वालों को ब्राह्मण की श्रेणी में रखा गया था। यह काम पसंद न करके शारीरिक बल पर विश्वास करने वालों को क्षत्रिय तथा मानसिक व शारीरिक दोनो श्रम की प्रवृत्तियों से अलग रहकर लोगों की एक वस्तु को दूसरे जरूरतमंद लोगों तक पहुंचाने का काम करके आजाविका चलाने वालों को वणिक या वैश्य कहा गया था। और जो न तो बौद्धिक क्षमता का उपयोग करने वाले काम पसंद करते थे, न शारीरिक बल पर विश्वास करते थे और न ही व्यापार में रुचि थी जो सिर्फ सेवा करके आजीविका चला सकते थे उन्हें शूद्र कहा गया।

बस जाति का बिल्ला गले में टंगा है

विकास के क्रम में लोग मूल काम से हटते गए लेकिन कामों के आधार हुए सामाजिक विभाजन को अपने गौरव से जोड़ लिया। जिस मनुवादी व्यवस्था को कोसा जाता है या आलोचना की जाती है उस व्यवस्था के समय किस के नाम के आगे उसकी जाति होती थी। स्वयंवर प्रथा में लड़की को अपना जीवनसाथी चुनने का अधिकार होता था। स्वयंवर में जातिगत आधार पर नहीं बुलाया जाता था। लड़की अपने विवेक से जिसे चुनती थी वही उसका पति हो जाता था।

भारतीय समाज के दो प्रमुख मनुष्य देवता राम और कृष्ण के युग में किसी के नाम के आगे उसकी जाति का उल्लेख नहीं है। यहां तक कि रावण के राज्य में भी किसी के नाम के आगे उसकी जाति का उल्लेख नहीं मिलता है।

प्राचीन काल में दो राज्यों के बीच राजकुमार राजकुमारी की शादी से संबंध जुड़ जाते थे। आज ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य समाज खुद तमाम उपजातियों में बंटा हुआ है। अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति या अन्य पिछड़ा वर्ग की जातियों में तमाम उपजातियां हैं।

भारतीय समाज इतना अधिक जटिलताओं का शिकार होता जा रहा है, जिसमें सरकार सामान्य वर्ग ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य के लड़के या लड़की की अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति या अन्य पिछड़ा वर्ग की जातियों के लड़के या लड़की की आपस में शादी को बढावा देना चाहती है जिसके लिए ढाई लाख रुपए की वित्तीय सहायता भी दी जाती है। लेकिन सामाजिक स्वीकार्यता की स्थिति में गति लाए बगैर क्या ऐसा कर पाना इतने जटिल समाज में संभव है।

अंतरजातीय विवाहों को स्वीकार नहीं रहे लोग

उत्तर प्रदेश को ही लें तो सरकार का लक्ष्य यूपी की लगभग 30 करोड़ की आबादी में 102 विवाह का था लेकिन 2018-19 में कुल नौ शादियां इस तरह की हो पाईं। बिहार में एक भी ऐसी शादी नहीं हो पाई। कुछ ऐसी ही स्थिति अन्य राज्यों की रही।

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केंद्र सरकार सवा अरब से अधिक की आबादी वाले इस देश में साल भर में केवल 500 शादियों का लक्ष्य हासिल नहीं कर पा रही है। सरकार ने उत्तर प्रदेश में 102, बंगाल में 54, तमिलनाडु में 36, बिहार में 41, हरियाणा में 13, दिल्ली में सात, झारखंड में 10, महाराष्ट्र 33, पंजाब 22, आंध्र प्रदेश 21, मध्य प्रदेश 28, छत्तीसगढ़ 8, उत्तराखंड 4 शादियों का लक्ष्य रखा था। लक्ष्य हासिल न होने पर सरकार ने नियमों में ढील देने का फैसला किया है लेकिन जरूरत जागरुकता लाने की है।

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