Meera Bai Ki Kahani: भगवान श्रीकृष्ण की परम भक्त मीराबाई की जीवनी
Meera Bai Ki Kahani In Hindi: मीरा बाई (Meera Bai) 16वीं शताब्दी की एक महान भक्ति संत और कवयित्री थीं, जिनकी रचनाएँ भगवान श्रीकृष्ण के प्रति अडिग प्रेम और समर्पण को व्यक्त करती हैं। उनकी कविताएँ आज भी भारतीय भक्ति साहित्य का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं।;
Meera Bai Ki Kahani In Hindi
Meera Bai Ki Kahani In Hindi: मीरा बाई भारतीय भक्ति आंदोलन की सबसे प्रसिद्ध संत-कवयित्रियों में से एक थीं, जिन्होंने अपनी भक्ति, प्रेम और अध्यात्मिकता के माध्यम से भक्ति साहित्य को अमर बना दिया। 16वीं शताब्दी में जन्मी मीरा बाई ने अपने जीवन को भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति में समर्पित कर दिया और समाज की रूढ़ियों को तोड़ते हुए प्रेम और समर्पण की मिसाल कायम की। उनकी रचनाएँ प्रेम, भक्ति और आध्यात्मिकता से ओत-प्रोत हैं, जो आज भी भक्तों और साहित्य प्रेमियों को प्रेरित करती हैं। मीरा बाई के भजन और पद भारत की संत परंपरा का एक अनमोल हिस्सा हैं, जो ईश्वर के प्रति निस्वार्थ प्रेम और आत्मसमर्पण का संदेश देते हैं।
मीराबाई का जन्म और पारिवारिक पृष्ठभूमि – Meerabai ka prarambhik jeevan
मीराबाई का जन्म 1498 ईस्वी में राजस्थान के कुंभलगढ़(Kumbhalgarh) (वर्तमान में पाली जिले के मेड़ता क्षेत्र) में एक राजपूत राजपरिवार में हुआ था।उनके पिता रतनसिंह राठौड़ मेड़ता के शासक थे और उनकी माता वीरकंवर एक धार्मिक महिला थीं। मीराबाई का पालन-पोषण राजपूत कुल में हुआ, लेकिन उनका झुकाव बचपन से ही आध्यात्मिकता और कृष्ण भक्ति की ओर था।
बचपन में ही उनकी माता का देहांत हो गया था, जिसके बाद उनके दादा राव दूदा ने उनका लालन-पालन किया। मीरा बाई की कृष्ण भक्ति की जड़ें उनके बचपन में ही पड़ गई थीं, जब उन्होंने एक साधु से श्रीकृष्ण की मूर्ति प्राप्त की और उसे अपना जीवनसाथी मान लिया। उनके इस आध्यात्मिक प्रेम ने उनके पूरे जीवन को प्रभावित किया और वे समाज की रूढ़ियों से परे जाकर कृष्ण भक्ति में लीन हो गईं।
कृष्ण भक्ति की ओर झुकाव – Krushna ki param Bhakt Meera Bai
ऐसा कहा जाता है कि जब मीराबाई मात्र चार वर्ष की थीं, तब उन्होंने एक साधु से श्रीकृष्ण की मूर्ति प्राप्त की और उन्हें अपना जीवनसाथी मान लिया। वे प्रतिदिन श्रीकृष्ण की पूजा करती थीं और उनकी आराधना में लीन रहती थीं।
बाल्यावस्था में ही उन्होंने अपने परिवार के रीति-रिवाजों से अलग हटकर भक्ति का मार्ग चुना। कहा जाता है कि जब वे सात-आठ वर्ष की थीं, तब उन्होंने विवाह की चर्चा सुनकर अपनी माता से पूछा, "मेरा दूल्हा कौन है?" इस पर उनकी माता ने उन्हें श्रीकृष्ण की मूर्ति दिखाते हुए कहा कि "यही तेरे सच्चे स्वामी हैं।" इस उत्तर ने उनके जीवन की दिशा को निश्चित कर दिया और वे कृष्ण भक्ति में लीन हो गईं।
मीराबाई का विवाह और राजमहल में जीवन – Vivah aur Virodh
मीराबाई का विवाह 1516 ईस्वी में मेवाड़ के महाराणा सांगा के पुत्र भोजराज(Bhojraj) के साथ हुआ। भोजराज एक वीर योद्धा थे, लेकिन वे अधिक समय तक जीवित नहीं रहे और विवाह के कुछ वर्षों बाद ही उनका निधन हो गया। पति के निधन के बाद मीराबाई पर पारिवारिक और सामाजिक दबाव बढ़ने लगा, लेकिन उन्होंने अपनी कृष्ण भक्ति को नहीं छोड़ा।
शाही परिवार में विवाह के बावजूद, मीराबाई का मन सांसारिक बंधनों में नहीं रमा। वे रात-रात भर कृष्ण के भजन गातीं, मंदिरों में जाकर नाचतीं और साधुओं की संगति में रहतीं। यह व्यवहार राजमहल के अन्य सदस्यों को स्वीकार्य नहीं था, और उनके खिलाफ षड्यंत्र रचे जाने लगे।
मीराबाई का संघर्षपूर्ण जीवन – Meera Bai ka Sangharshmay Jeevan
मीराबाई की कृष्ण भक्ति को लेकर उनके ससुराल पक्ष के लोग उनसे असंतुष्ट रहते थे। उन्हें अनेक प्रकार से प्रताड़ित किया गया। ऐसा कहा जाता है कि उन्हें जहर देने का प्रयास किया गया, लेकिन वे श्रीकृष्ण की कृपा से बच गईं।
एक अन्य घटना के अनुसार, उन्हें विषैले साँप से डसवाने का भी प्रयास किया गया, लेकिन जब उन्होंने जैसे ही उस संदूक को खोला, जिसमें साँप था, तो वह एक फूल की माला में बदल गया। इस तरह की कई घटनाओं ने मीराबाई की भक्ति को और अधिक प्रबल बना दिया। अंततः वे अपने सांसारिक बंधनों को तोड़कर कृष्ण भक्ति में लीन हो गईं और तीर्थ यात्रा पर निकल पड़ीं।
तीर्थ यात्रा और वृंदावन प्रवास – Vrindavan Ki Yatra
मीराबाई ने राजस्थान छोड़कर मथुरा, वृंदावन और द्वारका की यात्रा की। वृंदावन पहुँचने के बाद, मीरा बाई ने कृष्ण भक्ति को अपनाया और जोगन बनकर साधु-संतों के संग जीवन बिताने लगीं। वृंदावन में उन्होंने अनेक संतों से भक्ति का मार्गदर्शन प्राप्त किया। कहा जाता है कि वृंदावन में जीवा गोस्वामी ने उनसे मिलने से मना कर दिया था, क्योंकि वे एक स्त्री थीं। इस पर मीराबाई ने कहा, "वृंदावन में केवल एक ही पुरुष हैं और वे हैं श्रीकृष्ण। बाकी सभी उनके सेवक हैं।" इस उत्तर से संत अत्यधिक प्रभावित हुए।
द्वारका प्रवास और समाधि – Meera Bai ki Mrutyu ka rahasya
मीराबाई ने अपने जीवन के अंतिम वर्ष द्वारका में गुजारे। ऐसा माना जाता है कि 1547 ईस्वी में द्वारका में उन्होंने श्रीकृष्ण की मूर्ति के सामने ध्यानस्थ होकर देह त्याग दी और उनकी आत्मा श्रीकृष्ण में विलीन हो गई। उनकी भक्ति इतनी गहरी थी कि लोग मानते हैं कि वे कृष्ण की मूर्ति में समा गईं।
मीरा बाई की पूर्वजन्म की मान्यता – Meera Bai ko lekar manatya
मान्यता है कि मीरा बाई पूर्वजन्म में वृंदावन की एक गोपी थीं, और उस समय वे राधा की सखियों में शामिल थीं। वे मन ही मन भगवान श्रीकृष्ण से गहरा प्रेम करती थीं। गोपी के रूप में विवाह के बाद भी उनका कृष्ण के प्रति प्रेम कम नहीं हुआ, और कृष्ण से मिलन की तड़प में उन्होंने अपने प्राणों की आहुति दे दी। उसी गोपी ने बाद में मीरा बाई के रूप में जन्म लिया।
मीराबाई की रचनाएँ और साहित्यिक योगदान – Sahitya mein Meera Bai ke yogdan
मीराबाई की रचनाएँ हिंदी, ब्रज भाषा और राजस्थानी में पाई जाती हैं। उनके भजन और पद श्रीकृष्ण की भक्ति में डूबे हुए हैं। उनके पदों में भक्ति, प्रेम और त्याग की भावना झलकती है। उनके प्रसिद्ध पदों में से कुछ हैं:
"पायो जी मैंने राम रतन धन पायो।"
"मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई।"
"माई री, मैं तो गोविंदो लीनो मोहे और न भावे।"
"चलो मन गंगा यमुना तीर।"
मीराबाई के पद आज भी भक्तों द्वारा गाए जाते हैं और उनकी भक्ति भावना को जन-जन तक पहुँचाते हैं।