Natyashastra Ka Itihas: कैसे रंगमंच बना जीवन का प्रतिबिंब, जानिए भरत मुनि के नाट्यशास्त्र के उत्पत्ति से उद्देश्य तक का बौद्धिक सफर
Natyashastra Ka Itihas: भरतमुनि का नाट्यशास्त्र एक जीवंत ग्रंथ है, जो आज भी रंगमंच, सिनेमा और अभिनय की दुनिया में उतना ही प्रासंगिक है जितना कि प्राचीन काल में था।;
History Of Natyashastra: भारतीय संस्कृति में नाट्यकला का विशेष स्थान रहा है। प्राचीन काल से ही नाटकों, नृत्य और संगीत को न केवल मनोरंजन का साधन माना गया, बल्कि इन्हें आत्मा की अभिव्यक्ति और समाज के दर्पण के रूप में देखा गया। इस कला की गहराइयों को समझने और उसके वैज्ञानिक पक्ष को रेखांकित करने वाला ग्रंथ है, नाट्यशास्त्र। भरतमुनि द्वारा रचित यह ग्रंथ केवल अभिनय का पाठ नहीं है, बल्कि एक संपूर्ण शास्त्र है जो रंगमंच, अभिनय, नृत्य, संगीत, रूपांकन, रंग-प्रकाश, भाव, रस, वेशभूषा और संवाद के सिद्धांतों को अत्यंत वैज्ञानिक ढंग से प्रस्तुत करता है।
यह लेख नाट्यशास्त्र के विभिन्न आयामों पर प्रकाश डालते हुए अभिनय के पीछे छिपे विज्ञान को सरल और बोधगम्य भाषा में सामने लाने का प्रयास करेगा।
नाट्यशास्त्र की उत्पत्ति
नाट्यशास्त्र, भारतीय रंगमंच और नाट्यकला का सबसे प्राचीन और सर्वप्रमुख ग्रंथ है। इसकी रचना महर्षि भरतमुनि द्वारा की गई थी। यह ग्रंथ केवल एक नाट्यकला की पुस्तक नहीं है, बल्कि यह संगीत, नृत्य, अभिनय, मंच सज्जा, वेशभूषा, भाव-भंगिमा, संवाद, रंगमंच की संरचना, निर्देश आदि तमाम पहलुओं का विस्तृत और वैज्ञानिक वर्णन प्रस्तुत करता है। इसकी रचना संस्कृत भाषा में की गई है और इसमें कुल 36 अध्याय हैं जिनमें लगभग 6,000 श्लोक हैं।
पौराणिक कथा अनुसार उत्पत्ति:
नाट्यशास्त्र की उत्पत्ति के संबंध में एक प्रसिद्ध पौराणिक कथा है जो स्वयं भरतमुनि द्वारा कही गई है।
देवताओं के अनुरोध पर ब्रह्मा ने वेदों से एक नया पंचम वेद रचा - "नाट्यवेद"। इसमें
ऋग्वेद से पाठ (संवाद),
सामवेद से संगीत,
यजुर्वेद से अभिनय (कायिक क्रियाएँ),
और अथर्ववेद से रस (भाव) को लिया गया।
ब्रह्मा ने इस नाट्यवेद को भरतमुनि को प्रदान किया, और भरत ने इसे अपने सौ शिष्यों के साथ अभ्यास कर, नाट्य के रूप में प्रस्तुत किया। प्रथम बार यह नाट्य स्वर्गलोक में देवताओं के समक्ष प्रस्तुत हुआ। बाद में इसे पृथ्वी पर मनुष्यों के लिए प्रसारित किया गया।
यह कथा केवल प्रतीकात्मक है, पर इसका आशय यह है कि नाट्य का जन्म सभी वेदों के सार से हुआ है और यह जीवन के समस्त पहलुओं को अभिव्यक्त करने का एक माध्यम है।
शारीरिक, वाचिक, मानसिक और साधारणीकरण का समन्वय
नाट्यशास्त्र में अभिनय को चार भागों में बांटा गया है:
आंगिक अभिनय (शारीरिक) - शरीर के अंगों, मुखमंडल, आंखों, हाथों, पैरों और मुद्राओं द्वारा भावों की अभिव्यक्ति।
वाचिक अभिनय (वाणी का प्रयोग) - संवाद की गति, लय, स्वर, उच्चारण और ध्वनि के माध्यम से अभिव्यक्ति।
सात्त्विक अभिनय (मानसिक भाव) - आंतरिक भावनाओं का सूक्ष्म और सजीव प्रदर्शन, जैसे रोना, हँसना, भय, संकोच आदि।
अभिनय का साधारणीकरण - दर्शकों के अनुभवों से जुड़ाव पैदा करना, जिससे वे अभिनय में दर्शाए गए भावों को महसूस कर सकें।
यह वर्गीकरण केवल कला का हिस्सा नहीं है, बल्कि यह मानव मस्तिष्क, शारीरिक संकेतों और भावनात्मक अभिव्यक्ति के बीच के गहरे वैज्ञानिक संबंध को दर्शाता है।
भावों की रसायनिक अनुभूति, रस सिद्धांत
नाट्यशास्त्र में 'रस' की अवधारणा अत्यंत महत्वपूर्ण है। रस का अर्थ है - 'आनंद की अनुभूति'। भरतमुनि ने आठ (बाद में नव) रसों का वर्णन किया है:
श्रृंगार रस - प्रेम और सौंदर्य
वीर रस - पराक्रम और उत्साह
करुण रस - शोक और करुणा
अद्भुत रस - आश्चर्य
हास्य रस - हास्य और विनोद
रौद्र रस - क्रोध और प्रतिशोध
भयानक रस - भय और आतंक
बीभत्स रस - घृणा
शांत रस - शांति और संतोष
हर रस एक निश्चित भाव (स्थायी भाव) से जुड़ा होता है। जब स्थायी भावों के साथ परिवर्तनीय भाव, संचारी भाव और शारीरिक अभिव्यक्तियाँ जुड़ती हैं, तब रस की उत्पत्ति होती है। यह एक प्रकार की ‘रासायनिक प्रक्रिया’ है, जो दर्शकों में मानसिक और भावनात्मक प्रतिक्रिया उत्पन्न करती है।
नाट्यशास्त्र में मनोविज्ञान और न्यूरोसाइंस
नाट्यशास्त्र में मनोविज्ञान और न्यूरोसाइंस का मेल अद्भुत है। यह प्राचीन ग्रंथ न केवल अभिनय की कला को परिभाषित करता है, बल्कि मानव मन की गहराइयों को भी छूता है। इसमें वर्णित 'नवरस' मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से इंसानी भावनाओं की व्यापकता को दर्शाते हैं। आधुनिक न्यूरोसाइंस बताता है कि जब हम किसी भावनात्मक दृश्य को देखते हैं, तो हमारे दिमाग में "मिरर न्यूरॉन्स" सक्रिय होते हैं, जिससे हम उस भावना को खुद महसूस करने लगते हैं – ठीक वैसा ही अनुभव नाट्यशास्त्र के 'भावाभिनय' सिद्धांत में दर्शाया गया है। अभिनय के दौरान एकाग्रता, ध्यान और भावनात्मक नियंत्रण जैसे तत्व मस्तिष्क की कार्यक्षमता को बढ़ाते हैं, जो न्यूरोलॉजिकल रूप से सिद्ध हो चुका है। 'ड्रामा थैरेपी' जैसे आधुनिक मनोवैज्ञानिक उपचार भी नाट्यशास्त्र की अवधारणाओं से प्रेरित हैं। इस तरह, नाट्यशास्त्र केवल एक कला नहीं, बल्कि मानव मस्तिष्क और भावनाओं की वैज्ञानिक व्याख्या भी है।
नृत्य और संगीत का वैज्ञानिक पक्ष
नाट्यशास्त्र में नृत्य को भी दो भागों में विभाजित किया गया है:
लास्य - कोमलता, सौंदर्य और श्रृंगार से युक्त नृत्य (अधिकतर स्त्रियों द्वारा)
तांडव - उग्रता और ऊर्जा से भरा हुआ नृत्य (शिव का प्रतीक)
यह विभाजन दर्शाता है कि नृत्य केवल शारीरिक गति नहीं है, बल्कि मनोवैज्ञानिक और आध्यात्मिक ऊर्जा का संप्रेषण है। संगीत के स्वरों और तालों की व्याख्या नाट्यशास्त्र में अत्यंत वैज्ञानिक ढंग से की गई है, जिससे यह स्पष्ट होता है कि ध्वनि कंपन (vibrations) हमारे भावनात्मक और शारीरिक अनुभवों को प्रभावित करते हैं।
रंगमंच की तकनीकें और दृश्य प्रभाव
नाट्यशास्त्र में मंच सज्जा, वेशभूषा, प्रकाश व्यवस्था, पृष्ठभूमि संगीत आदि का भी उल्लेख है। इसमें यह बताया गया है कि किस प्रकार मंच का निर्माण होना चाहिए, पात्रों की स्थिति कैसी हो, प्रकाश का कोण और रंग क्या हो, जिससे दर्शकों पर गहरा प्रभाव पड़े। यह सिद्ध करता है कि अभिनय केवल अभिनेता की कला नहीं है, बल्कि एक संपूर्ण विज्ञान है जिसमें हर तत्व की अपनी भूमिका होती है।
समाज और मनुष्य के व्यवहार को समझने का माध्यम
नाट्यशास्त्र केवल नाट्य प्रस्तुति का विज्ञान नहीं है, बल्कि यह मानव स्वभाव, सामाजिक ताने-बाने, और आचार-विचार को भी गहराई से समझता है। इसमें दर्शाया गया है कि किस प्रकार मनुष्य विभिन्न परिस्थितियों में व्यवहार करता है, कौन-से भाव उसके मन में उत्पन्न होते हैं और किस प्रकार वे भाव उसके आचरण को प्रभावित करते हैं। अभिनय इसीलिए केवल अभिनय नहीं है, बल्कि समाज और व्यक्ति का मनोवैज्ञानिक प्रतिबिंब है।
नाट्यशास्त्र का उद्देश्य
नाट्यशास्त्र की रचना केवल कला के विकास के लिए नहीं, बल्कि समाज के सुधार और मनोरंजन के उद्देश्य से भी की गई थी। इस ग्रंथ के प्रमुख उद्देश्यों को निम्न बिंदुओं में समझा जा सकता है:
मनोरंजन का साधन - नाट्यशास्त्र का पहला और प्रमुख उद्देश्य जनसामान्य को मानसिक और भावनात्मक सुख देना था। उस युग में मनोरंजन के सीमित साधन थे, और नाटक के माध्यम से जनता को न केवल मनोरंजन मिलता था, बल्कि उसे जीवन के विविध पक्षों से भी परिचित कराया जाता था।
शिक्षा और नैतिक संदेश - नाट्यकला को 'दर्पण' कहा गया है – यह समाज का दर्पण है। नाट्यशास्त्र के अनुसार, नाटक के माध्यम से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष जैसे पुरुषार्थों की शिक्षा दी जा सकती है। नाट्य में नायक, खलनायक, विदूषक आदि चरित्रों के माध्यम से दर्शक सीखते हैं कि जीवन में क्या करना चाहिए और क्या नहीं।
जीवन की विविधता का चित्रण - नाट्यशास्त्र जीवन के सभी पक्षों को – दुख, सुख, हास्य, करुणा, प्रेम, भय, वीरता आदि – को नाट्यरूप में प्रस्तुत करने पर बल देता है। यह ग्रंथ "रस" को अत्यंत महत्वपूर्ण मानता है, और नाट्यकला का उद्देश्य सभी नौ रसों की अनुभूति कराना बताया गया है।
संस्कृति और परंपरा का संरक्षण - प्राचीन काल में नाट्य के माध्यम से धार्मिक अनुष्ठान, लोककथाएँ, पौराणिक प्रसंग, ऐतिहासिक घटनाएँ जनसाधारण तक पहुँचाई जाती थीं। इससे न केवल संस्कृति का प्रचार-प्रसार हुआ, बल्कि परंपराओं का भी संरक्षण हुआ।
सामाजिक संतुलन और सुधार - भरतमुनि ने कहा है कि नाटक सभी वर्गों के लोगों के लिए है – चाहे वह राजा हो या प्रजा, ब्राह्मण हो या शूद्र। नाटक सभी को समान रूप से प्रभावित करता है। इसके माध्यम से सामाजिक कुरीतियों पर व्यंग्य भी किया जा सकता है और सुधार की दिशा भी दिखाई जा सकती है।
नाट्यशास्त्र केवल अभिनय या नाटक की तकनीक सिखाने वाला ग्रंथ नहीं है, बल्कि यह भारतीय जीवन दर्शन, संस्कृति और सामाजिक मूल्यों का संवाहक है। इसकी उत्पत्ति अत्यंत पवित्र उद्देश्य से हुई, ताकि मनुष्य अपने जीवन के संघर्षों, भावनाओं, और मूल्यों को कलात्मक और सृजनात्मक ढंग से प्रस्तुत कर सके और स्वयं में आत्मबोध प्राप्त कर सके।