Lalla Chungi: इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पास एक लल्ला चुंगी थी.....

Lalla Chungi: यहां सब्जी और अन्य सामान आसानी से मिल जाते थे।यह चुंगी शाम होते ही गुलज़ार हो जाती थी और लगभग 09 बजे तक चकल्लस चलती थी।

Update:2023-04-18 19:07 IST

Lalla Chungi: हर शहर का एक प्रतिनिधि स्पॉट होता है,हर शहर का अपना एक चेहरा होता है। ऐसा ही एक चेहरा था इलाहाबाद का--लल्ला चुंगी। लल्ला चुंगी क्या है इसे समझने के लिए जो इलाहाबादी हैं, उन्हें छोड़ दिया जाए तो पहले आपको इलाहाबादी होना पड़ेगा।अगर मौके के हिसाब से देखा जाए तो इलाहाबाद वर्तमान में प्रयागराज शहर के प्रयाग स्टेशन,एलनगंज,इलाहाबाद विश्ववविद्यालय व इसके महिला छात्रावास और बैंक रोड के बीच स्थित एक चौराहा था । जिस पर स्थित एक तिकोने में स्थित दुकान में लल्ला की चाय और समोसा मिलता था और एक किराने की दुकान हुआ करती थी।

आर्थिक रूप से देखा जाए तो इन दुकानों के अलावा सब्जी ठेला,चाय और रिचार्ज की दुकान हुआ करती थीं और कुछ मोची और सामान्य ठेले वाले होते थे और महिला छात्रावास में रहने वाली लड़कियों के लिए यह शाम का एक आवश्यक गंतव्य होता था । क्योंकि सब्जी और अन्य सामान आसानी से मिल जाते थे।यह चुंगी शाम होते ही गुलज़ार हो जाती थी और लगभग 09 बजे तक चकल्लस चलती थी।

'पिया मिलन चौराहा'

लल्ला चुंगी का सबसे अधिक मायने अगर था तो इलाहाबादी संस्कृति के लिए....। मतलब यह इलाहाबाद विश्वविद्यालय का एक निचोड़ था । जहाँ न जाने कितने दिल धड़कना शुरू करते थे और यहाँ की धड़कन साथ लेकर ही चयनित हो निकलते थे।शाम को लल्लाचुंगी पर होना मतलब दिलचस्प ज़िंदगी के बुनियादी दर्शन को एक साथ समेटना था।हम इलाहाबादी इसे पीएमसी या पूरा पढ़ें तो 'पिया मिलन चौराहा' कहते थे । जिसकी मूल आत्मा महिला छात्रावास की अवस्थिति थी । लेकिन शाम की सरगमी भीड़ में भी कभी बत्तमीजी या असंस्कारिता की जरा भी छुअन न थी।

एक बार की बात है केन्या से कुछ शोध छात्र इलाहाबाद विश्वविद्यालय में संस्कृत विभाग में शोधरत थे। जब शोध पूरा करके वो वापस केन्या में रह रहे थे तो इलाहाबाद विश्वविद्यालय का एक शिष्टमण्डल केन्या गया । जिसमें एक प्रोफेसर और कुछ छात्र थे।मजेदार बात ये रही कि वो केन्याई शोध छात्र तब तक इलाहाबाद की अन्य चीजें भूल चुके थे । लेकिन मजेदार तब लगा जब उन्होने पूछा कि--"लल्ला चुंगी कैसी है?" शिष्टमंडल हँस पड़ा था।मतलब लल्ला चुंगी अंतर्राष्ट्रीय हो चुकी थी और इससे गुजरा हर इलाहाबादी इसे अपने साथ लेकर गया था । भले वह बिसवां का तहसीलदार हो या विश्व के किसी कोने में रहने वाला इलाहाबादी।

लल्ला चुंगी के मायने सबके लिए अलग-अलग होकर भी मौलिकता में एक थे....। यहाँ जीवंतता थी,लबाब था,लिहाज था और इलाहाबादी ललाम था।दिल्ली से जब लौटा तो इस लल्ला चुंगी के बगल ही खन्ना जी के मकान में रूम मिल गया और तैयारी में लगा रहा। किराया दिल्ली से कम था । लेकिन फिर भी 2200 था...। मेरे मित्र बोलते थे कि "गुरु,रूम का किराया तो 200 ही है,2000 तो गली का किराया है।" उनकी टिप्पणियों के पीछे कोई अशालीनता का भाव न होकर लल्ला चुंगी की उस रुमानियत थी जो उसके आसपास के वातावरण को 'गुनाहों के देवता' के अमर पात्र सुधा और चंदर का भान कराती रहती थी। न जाने कितने सपने वहीं से बनते थे और न जाने कितने टूटते थे। इंतजार के अलावा यहां पता नहीं कितनी लड़ाइयां ऐसी भी हुईं जिनमें जिस WH अन्तःवासी के लिए लड़ाई हुई, उसे ही पता न चला कभी।

कुछ दिन पहले टूटी लल्ला चुंगी

लल्ला चुंगी अभी कुछ दिन पहले टूट गयी.....। शायद अवैध थी या सड़क चौड़ीकरण की भेंट चढ़ गयी है। सही यह है कि वह सेना के ज़मीन में बनी थी। सेना की इस जमीन पर 63 वर्षों से अवैध कब्जा था। कोर्ट ने 16 नवंबर, 2022 को सेना के पक्ष में आदेश दिया था। सैन्य अधिकारियों के अनुसार जमीन खाली करने के लिए अवैध कब्जेदार को नोटिस भेजा गया था। शनिवार को बुलडोजर लगाकर पक्के भवन को ध्वस्त कर दिया गया। इलाहाबाद में WH की एक्सटेंडेड वेटिंग लाउन्ज और हैंगआउट की सुविधा खत्म। लल्ला चुंगी ध्वस्त...। एक व्यक्ति विशेष के लिए अलग कानून की बात हो सकती है । लेकिन मोहब्बत में इंतजार और पेशेंस के प्रतीक लल्ला चुंगी के लिए किसी ने अलग कानून की बात ही नहीं की।

इसने चाय पिलाकर न जाने कितने छात्र नेता फिर बड़े नेता, न जाने कितने सिविल सेवक बना डाले होंगे....। आज हर इलाहाबादी जो भी लल्ला चुंगी से जुड़ा है । उसके अंदर लल्ला चुंगी टूटते ही कुछ टूट सा गया है....। यह टूटन बड़ी विचित्र है....।एक पीड़ा है...।कष्ट है...। सब कुछ याद आ रहा है...। जैसे लग रहा है कि कोई बेशकीमती धरोहर खो गयी हो। कानून के नज़रिए से लल्ला चुंगी जो थी उससे कहीं बड़ी थी वह एक इलाहाबादी की नज़र में....। इलाहाबादी के लिए लल्ला चुंगी एक जंक्शन था । जहाँ प्रयाग स्टेशन से आने वाली छात्र की गठरी रखाती थी और यहीं से हॉस्टल या डेलीगेसी की तरफ चहलकदमी होती थी।

लल्ला चुंगी के टूटने की खबर जबसे सुना हूँ तबसे मन में कुछ बिखर सा गया है....। इलाहाबादी आत्मा को इस टूटन ने झकझोर दिया है...। यह कानून के लिए सहज हो सकता है । लेकिन इलाहाबादियों के लिए एक सदमा है...। इसका कोई प्रबल विरोध भी नहीं है । क्योंकि इसी लल्ला चुंगी ने शिष्टता सिखायी है,कानून सिखाया है और हमें रुला तो दिया । लेकिन इस टूटन ने बागी न होने दिया है। यह है हमारी लल्ला चुंगी......। लक्ष्मी चौराहे,कारपेंटरी चौराहे और यूनिवर्सिटी रोड के साथ चौकड़ी बनाने वाली लल्ला चुंगी नहीं रही.......। दुःखद....दर्दनाक....। लल्ला चुंगी को हर इलाहाबादी मिस करता रहेगा और सपनों में आती रहेगी इसकी ऐतिहासिक रुमानियत......।

( लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र और वर्तमान में बिसवां, सीतापुर के तहसीलदार हैं।)

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