लड़ाकू विमान राफेल की खरीद में जिस तरह के वाद-विवाद सामने आ रहे हैं, उससे लगता है, दाल में कुछ काला संभव है। इस सौदे को लेकर फ्रांस के पूर्व राश्ट्रपति फ्रांस्वा ओलांद ने मीडिया पार्ट नामक वेबसाइट को दिए साक्षात्कार में कहा है कि 58000 करोड़ रुपए के इस सौदे के लिए भारत सरकार ने रिलाइंस डिफेंस का एकमात्र नाम सुझाया था। इस बयान के सार्वजनिक होने के तत्काल बाद ही फ्रांस की वर्तमान सरकार ने स्पश्ट किया कि भारत के औद्योगिक भागीदार के रूप में रिलाइंस के चयन में दोनों सरकारों की कोई भूमिका नहीं है।
इस बाबत यूरोप एंड फाॅरेन अफेयर्स मंत्रालय ने भी सफाई दी है कि इस करार में भागीदार का चयन दासौ कंपनी ने ही किया था, न कि भारत सरकार ने। अब दासौ एविएषन कह रही है कि उसने ‘मेक इन इंडिया‘ के तहत रिलाइंस डिफेंस को अपना भागीदार बनाया है। इस साझेदारी से ही फरवरी 2017 में दासौ-रिलाइंस एयरोस्पेस लिमिटेड ज्वाइंट वेंचर तैयार हुआ है। यह नागपुर में फाॅल्कन-दासौ और रिलाइंस मिलकर विमान के औजारों के निर्माण के लिए संयंत्र लगाएंगें। इससे लगता है कि इस सौदे में महज रिलाइंस को भागीदार बना लेने से गड़बड़ी की आषंका नहीं जताई जा सकती है?
किंतु नरेंद्र मोदी सरकार विमान के मूल्य को लेकर रहस्य का जो पर्दा डाले हुए है, उससे लगता है कि चोर की दाढ़ी में तिनका है। इस संदेह का खुलासा नहीं किए जाने के कारण ही कांग्रेस और राहुल गांधी को इस खरीद में महाघोटाला नजर आ रहा है। हालांकि जब 2008 में संप्रंग सरकार के दौरान राफेल खरीद की रूपरेखा तैयार की जा रही थी, तब भी दासौ रिलाइंस को भागीदार बनाने पर राजी थी।
देरी और दलाली से अभिषप्त रहे रक्षा सौदों में राजग सरकार के वजूद में आने के बाद से लगातार तेजी दिखाई दी है। मिसाइलों और राॅकेटों के परीक्षण में भी यही गतिषीलता दिखाई दे रही है। इस स्थिति का निर्माण, सैनिकों का मनोबल बढ़ाने के लिए जरूरी था। वरना रक्षा उपकरण खरीद के मामले में संप्रग सरकार ने तो लगभग हथियार डाल दिए थे। रक्षा सौदों में भ्रश्टाचार के चलते तत्कालीन रक्षा मंत्री एके एंटनी तो इतने मानसिक अवसाद में आ गए थे कि उन्होंने हथियारों की खरीद को टालना ही अपनी उपलब्धि मान लिया था।
नतीजतन, हमारी तीनों सेनाएं षस्त्रों की कमी का अभूतपूर्व संकट झेल रही थीं। अब जाकर नरेंद्र मोदी सरकार ने इस गतिरोध को तोड़ा है और लगातार हथियारों व उपकरणों की खरीद का सिलसिला आगे बढ़ रहा है। इसी कड़ी में फ्रांस से 36 राफेल लड़ाकू विमान खरीदे जा रहे हैं। इससे पहले 17 साल तक केंद्र की कोई भी सरकार लड़ाकू विमान खरीदने का सौदा ही नहीं कर पाई थी।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2016 में फ्रांस यात्रा के दौरान फ्रांसीसी कंपनी दासौ से जो 36 राफेल जंगी जहाजों का सौदा किया वह अर्से से अधर में लटका था। इस सौदे को अंजाम तक पहुंचाने की पहल वायु सैनिकों को संजीवनी देकर उनका आत्मबल मजबूत करने का काम करेगी। फ्रांस के पूर्व राश्ट्रपति फ्रांस्वा ओलांद और भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से सीधे हुई बातचीत के बाद यह सौदा अंतिम रुप ले पाया है।
पूर्व प्रधानमंत्री डाॅ.मनमोहन सिंह और रक्षा मंत्री एके एंटनी की साख ईमानदार जरूर थी, लेकिन ऐसी ईमानदारी का क्या मतलब, जो जरूरी रक्षा हथियारों को खरीदने की हिम्मत भी नहीं जुटा पाए ? जबकि ईमानदारी तो व्यक्ति को साहसी बनाने का काम करती है। हालांकि रक्षा उपकरणों की खरीदी से अनेक किंतु-परंतु जुड़े होते हैं,सो इस खरीद से भी जुड़ गए हैं। यह सही है कि जंगी जहाजों का जो सौदा हुआ है वह संप्रग सरकार द्वारा चलाई गई बातचीत की ही अंतिम परिणति है।
इस खरीद प्रस्ताव के तहत 18 राफेल विमान फ्रांस से खरीदे जाने थे और फ्रांस के तकनीकी सहयोग से स्वेदेषीकरण को बढ़ावा देने की दृश्टि से 108 विमान भारत में ही बनाए जाने थे। स्वदेष में इन विमानों को बनाने का काम हिंदुस्तान एयरोनाॅटिक्स लिमिटेड ;एचएएलद्ध को करना था, ये षर्तें अब इस समझौते का हिस्सा नहीं हैं। इससे मोदी के ‘मेक इन इंडिया‘ कार्यक्रम को धक्का लगा है। क्योंकि तत्काल युद्धक विमानों के निर्माण की तकनीक भारत को मिलने नहीं जा रही है?
जाहिर है, जब तक एचएएल को यूरोपीय देषों से तकनीक का हस्तांतरण नहीं होगा, तब तक न तो स्वेदेषी विमान निर्माण कंपनियों का आधुनिकीकरण होगा और न ही हम स्वेदेषी तकनीक निर्मित करने में आत्मनिर्भर हो पाएंगे ? इसलिए मोदी कुछ विमानों के निर्माण की षर्त भारत में ही रखते तो इस सौदे के दीर्घकालिक परिणाम भारत के लिए कहीं बेहतर होते ? हालांकि दासौ ने भरोसा जताया है कि इन विमानों के निर्माण की संभावनाएं भारत में तलाषेगी। लेकिन निर्माण की यह षर्त समझौते में बाध्यकारी नहीं है। सरकारी क्षेत्र की कंपनी एचएएल को दरकिनार करने के कारण ही इस सौदे में रिलाइंस को लाभ पहुंचाने की आषंकाएं बड़ी हैं।
विमानों की इस खरीद में मुख्य खामी यह है कि भारत को प्रदाय किए जाने वाले सभी विमान पुराने होंगे। इन विमानों को पहले से ही फ्रांस की वायुसेना इस्तेमाल कर रही है। हालांकि 1978 में जब जागुआर विमानों का बेड़ा ब्रिटेन से खरीदा गया था, तब ब्रिटिष ने हमें वही जंगी जहाज बेचे थे, जिनका प्रयोग ब्रिटिष वायुसेना पहले से ही कर रही थी।
हरेक सरकार परावलंबन के चलते ऐसी ही लाचारियों के बीच रक्षा सौदे करती रही हैं। इस लिहाज से जब तक हम विमान निर्माण के क्षेत्र में स्वावलंबी नहीं होंगे,लाचारी के समझौतांे की मजबूरी झेलनी ही होगी। इस सौदे की एक अच्छी खूबी यह है कि सौदे की आधी धनराषि भारत में फ्रांसीसी कंपनी को निवेष करना अनिवार्य होगी।
इस सौदे में राहुल गांधी के संदेह का प्रमुख आधार इस खरीद की कैबीनेट की सुरक्षा मामलों की समिति से अनुमति नहीं लेना है। दूसरे गुलाम नबी आजाद ने मोदी सरकार पर देष हित से समझौता करने का आरोप लगाया है। उनका कहना है कि यूपीए सरकार के दौरान इसी सौदे में विमान निर्माण की तकनीक हस्तांतरण करने की बाध्यकारी षर्त रखी गई थी, जो इस सरकार ने विलोपित कर दी।
इन्हीं का स्पश्टीकरण विपक्ष केंद्र सरकार से चाहता है। हालांकि राज्यसभा में रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण ने एक लिखित जबाव में कहा है कि ‘इस सौदे को लेकर भारत और फ्रांस के बीच हुए अंतर-सरकारी अनुबंध के दसवें अनुच्छेद के तहत इस सौदे में सूचनाओं और वस्तुओं के आदान-प्रदान का मामला 2008 में दोनों देषों के बीच हुए रक्षा समझौते के अंतर्गत है। गोया इससे जुड़ी जानकारियां सार्वजनिक नहीं की जा सकती हैं।‘
सौदे पर राहुल गांधी और गुलाम नबी आजाद ने पहली बार सवाल उठाए हों, ऐसा नहीं है, इससे पहले कांगे्रस महासचिव दिग्विजय सिंह ने सौदे पर कई सवाल खड़े किए थे। सिंह ने खरीदी प्रक्रिया को अनदेखी करने का आरोप लगाते हुए नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक से इसे संज्ञान में लेने की अपील की थी। यही नहीं भाजपा के ही वरिश्ठ नेता सुब्रमण्यम स्वामी ने तो इस खरीद को विवादों की उड़ान की संज्ञा देते हुए, इसकी खामियों की पूरी एक फेहरिष्त ही जारी कर दी थी।
स्वामी का दावा था कि लीबिया और मिस्त्र में राफेल जंगी जहाजों का प्रदर्षन अपेक्षा के अनुरूप नहीं रहा। दूसरे, राफेल विमानों में ईंधन की खपत ज्यादा होती है और कोई दूसरा देष इन्हें खरीदने के लिए तैयार नहीं है। तीसरे, कई देषों ने राफेल खरीदने के लिए इसकी मूल कंपनी दासौ से एमओयू किए, लेकिन बाद में रद्द कर दिए। इन तथ्यात्मक आपत्तियों के अलावा स्वामी ने सौदे को आड़े हाथ लेते हुए कहा था कि यदि फ्रांस की मदद ही करनी थी तो इन विमानों को खरीदने की बजाय, दिवालिया हो रही दासौ कंपनी को ही भारत सरकार खरीद लेती ?
इन सब तोहमतों के बावजूद ये विमान खरीदना इसलिए जरूरी था, क्योंकि हमारे लड़ाकू बेड़े में षामिल ज्यादातर विमान पुराने होने के कारण जर्जर हालत में हैं। अनेक विमानों की उड़ान अवधि समाप्त होने को है और पिछले 19 साल से कोई नया विमान नहीं खरीदा गया है। इन कारणों के चलते आए दिन जेटों के दुर्घटनाग्रस्त होने की घटनाएं सामने आ रही हैं। इन दुर्घटनाओं में वायु सैनिकों के बिना लड़े ही षहीद होने का सिलसिला बना हुआ है।
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार और पत्रकार हैं।)