DRS Rules: पहली बार किस खिलाड़ी के लिए और कैसे किया गया था DRS का इस्तेमाल, जानें

DRS Rules: अगर आप क्रिकेट फैंस हैं तो आपको DRS Method के बारे में जरूर पता होगा। क्रिकेट की दुनिया में इसका इस्तेमाल अक्सर किया जाता है।;

Written By :  Anupma Raj
Update:2025-02-24 17:30 IST

DRS Rules: अगर आप क्रिकेट फैंस हैं तो आपको DRS Method के बारे में जरूर पता होगा। क्रिकेट की दुनिया में इसका इस्तेमाल अक्सर किया जाता है। खासकर इंडियन प्रीमियर लीग (IPL) में सबसे ज्यादा DRS का इस्तेमाल होता है। IPL की तरह और भी दुनियाभर में कई ऐसे टूर्नामेंट्स हैं जिनमें DRS Method का इस्तेमाल होता है।

150 साल से भी ज्यादा समय से क्रिकेट खेला जा रहा है। बदलते सालों के साथ Cricket के Rules में भी काफी बदलाव देखने को मिले हैं, जिनमें से एक है DRS, जो आज के समय में काफी पॉपुलर है। लेकिन आपने कभी सोचा है कि DRS का इस्तेमाल पहली बार कैसे किया गया था और किस खिलाड़ी के लिए किया गया था। अगर नहीं जानते हैं तो आइए जानते हैं यहां विस्तार से:

DRS Method क्या होता है

क्रिकेट की दुनिया में DRS काफी पॉपुलर है। दरअसल DRS Method यानी डिसीजन रिव्यू सिस्टम। हालांकि, आज के समय में तो कई बार फैंस इसे Dhoni Review System कहते हैं लेकिन DRS का असली मतलब है Decision Review System, जिसके जरिए खिलाड़ी जो है वो अंपायर के फैसले को चुनौती देता है।

जिसके बाद स्क्रीन पर वीडियो रीप्ले किया जाता है और बॉल ट्रैकर, हॉकआई के साथ साथ हॉट स्पॉट, पिच मैपिंग जैसी तकनीक की मदद से फैसले का रिव्यू किया जाता है। आज के समय में तो फैंस इसके बारे में अच्छे से जानते हैं लेकिन कुछ साल पहले तक इसके बारे में ज्यादातर लोगों को जानकारी नहीं थी।

दरअसल क्रिकेट के हर फॉर्मेंट यानी Test, ODI, T20 फॉर्मेट में डीआरएस लेने की संख्या भी अलग-अलग होती है। अगर फैसला अंपायर के पक्ष में गया तो रिव्यू लेने वाली टीम को दूसरा मौका नहीं मिलता है और वह रिव्यू बेकार चला जाता है। वहीं, अगर फैसला टीम के पक्ष में गया तो उस टीम को दोबारा रिव्यू लेने का मौका दिया जाता है। टेस्ट क्रिकेट में हर इनिंग में 2 और वनडे और टी20 में हर पारी में एक-एक डीआरएस मिलने का ऑप्शन मौजूद है।

DRS का पहली बार कब और कैसे किया गया था इस्तेमाल

डीआरएस मैथड का इस्तेमाल आज से 17 साल पहले हुआ था। अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट में DRS को सबसे पहली बार भारत के ही मैच में इस्तेमाल किया गया था। साल 2008 में टेस्ट क्रिकेट में DRS का इस्तेमाल किया गया था। जानकारी के लिए बता दें कि, भारत और श्रीलंका के बीच खेले गए टेस्ट मैच में DRS का इस्तेमाल हुआ था।


DRS का इस्तेमाल किस खिलाड़ी के लिए हुआ था

डिसीजन रिव्यू सिस्टम यानी DRS का इस्तेमाल पहली बार भारत और श्रीलंका मैच में हुआ था। DRS का पहला शिकार कोई और नहीं बल्कि भारतीय क्रिकेट टीम के घातक बल्लेबाज वीरेंद्र सहवाग बने थे। वीरेंद्र सहवाग को भारत-श्रीलंका टेस्ट सीरीज में अंपायर ने नॉटआउट करार दे दिया था जिसके बाद श्रीलंका क्रिकेट टीम ने रिव्यू लिया था। DRS के कारण फैसला श्रीलंका के पक्ष में गया था और वीरेंद्र सहवाग को एलबीडब्ल्यू करार दिया गया था।

डीआरएस कौन ले सकता है

क्रिकेट की दुनिया में सिर्फ फील्डिंग कप्तान या बल्लेबाज जिसे ऑन-फील्ड अंपायर ने आउट दिया है, उसे DRS लेने का ऑप्शन मिलता है। ये दोनों ही खिलाड़ी अपने हाथों से 'टी' का संकेत दिखाकर डीआरएस मांग कर सकते हैं। इसके लिए समय निर्धारित भी किया गया है। यानी ऑन-फील्ड अंपायर द्वारा निर्णय लिए जाने के बाद टीमों को डीआरएस मांगने के लिए 15 सेकंड का समय दिया जाता है। अगर 15 सेकेंड के अंदर DRS नहीं लिया गया तो इसका समय सीमा खत्म हो जाता है। फिर उस वक्त फील्डिंग कप्तान या बल्लेबाज को DRS लेने का ऑप्शन नहीं मिलता है।

डीआरएस का नियम समय के साथ बदला

IPL में ज्यादातर DRS का इस्तेमाल होता है। आईपीएल के नए नियमों की मानें तो अब एक टीम के पास बस चार डीआरएस होते हैं। इसमें भी कुछ नियम है। जैसे कप्तान दो DRS का इस्तेमाल बल्लेबाजी के समय कर सकता है और दो डीआरएस का इस्तेमाल गेंदबाजी के दौरान कर सकता है। ऐसे में एक डीआरएस बर्बाद होने पर टीमों के पास एक डीआरएस उपलब्ध होता है। जानकारी के लिए बता दें कि, आज से कुछ साल पहले तक आईपीएल में एक टीम को सिर्फ 2 डीआरएस लेने का ऑप्शन मिलते थे।

डीआरएस के लिए कौन से तकनीक का इस्तेमाल किया जाता है

दरअसल DRS के लिए तीन टेक्निक का इस्तेमाल किया जाता है। जो इस प्रकार है, हॉक-आई तकनीक,

हॉट-स्पॉट तकनीक और अल्ट्राएज तकनीक। ये तीनों बहुत महत्वपूर्ण टेक्निक हैं।

अल्ट्राएज तकनीक का इस्तेमाल एज चेक करने के लिए किया जाता है। इस टेक्निक में अल्ट्राएज और वीडियो के माध्यम से ये देखा जाता है कि गेंद बल्ले पर लगी भी है या नहीं। अल्ट्राएज टेक्निक के जरिए स्टंप माइक के जरिए ये आवाज सुनाई देती है। ऐसे में बल्ले का एज लगने पर इस तकनीक के जरिए खिलाड़ी को आउट या नॉटआउट का फैसला दिया जाता है। कैच आउट के लिए या गेंद बल्ले से लगी है या नहीं इसके लिए भी इस टेक्निक का इस्तेमाल किया जाता है।

हॉट-स्पॉट तकनीक का इस्तेमाल निशान चेक करने के लिए किया जाता है यानी गेंद बल्ले पर जहां टकराती वहां पर सफेद निशान बन जाता है। गेंद अगर बल्ले का किनारा ले रही है तो इसे देखने के लिए अंपायर जो हैं वो इस तकनीक का इस्तेमाल करते हैं। गेंद अगर बल्ले पर टकराती है या फिर जहां भी टकराती है वहां पर इसमें सफेद रंग का गोला जरूर नजर आ जाता है।

हॉक-आई तकनीक का का इस्तेमाल तब होता है जब मामला LBW का हो यानी इसे LBW के लिए इस्तेमाल किया जाता है। इस टेक्निक के जरिए ये तय किया जाता है कि, गेंद पिच पर गिरने के बाद कहां जाती है। जिसमें ये चेक किया जाता है कि, क्या इस गेंद का संपर्क स्टंप से हुआ है, या फिर नहीं। इसमें सबसे पहले देखा जाता है कि, गेंद कहां पर टप्पा खाई है और इसके बाद कितना कांटा बदला है। अगर ये गेंद बल्लेबाज के पैर से नहीं टकराई है तो फिर उसी एंगल के साथ गेंद कहां जाती है। 

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