Nepal Gadhimai Mela History: 7 दिसंबर से शुरू होने जा रहा नेपाल का ऐतिहासिक मेला, जहां चढ़ती है असंख्य जानवरों की बलि

Nepal Gadhimai Mela History: नेपाल में लगने वाले इस मेले में काफी भीड़ देखने को मिलती है लेकिन यहाँ होती पशुओं की बलि को लेकर चिंता भी जताई जा रही है।;

Report :  Jyotsna Singh
Update:2024-12-07 13:03 IST

Nepal Mela (Image Credit-Social Media)

Nepal Gadhimai Mela History: अपनी मान्यताओं के चलते हजारों वर्ष पूर्व से लगातार चला आ रहा विश्व प्रसिद्ध बलि चढ़ावा दिए जाने वाला नेपाल का गढ़ी माई मेला इस वर्ष 7 दिसंबर से आरंभ होने जा रहा है, जो कि 9 दिसंबर तक चलेगा। हर वर्ष इस मेले में करीब करोंड़ों की संख्या में श्रद्धालु एकत्र होते हैं। भक्तों की मनोकामना पूरी करने वाली गढ़ी माई को हर वर्ष लाखों की संख्या में बलि चढ़ावा दिए जाने की परंपरा रही है। गढ़ी माई मेला का आयोजन प्रत्येक 5 वर्ष पर किया जाता है। इससे पहले साल 2019 में गढ़ी माई मेला लगा था। जिसमें नेपाल, भारत, चाइना, दुबई, अमेरिका समेत सार्क राष्ट्र से गढ़ी माई भक्त यहां आते हैं।

गढ़ी माई मंदिर का इतिहास

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गढ़ीमाई मंदिर में पुजारी ब्राह्मण की बजाए हमेशा चौधरी कुल से जुड़े होते हैं। इस मंदिर की स्थापना 850 वर्ष पूर्व हुई थी। इस मंदिर के संस्थापक और पूर्वज भगवान चौधरी जब नेपाल की राजधानी काठमांडू नाखु जेल में बंद थे। तब अचानक देवी प्रकट हुई और बोली मुझे यहां से ले चलो। इसके उपरांत जेल का दरवाजा अपने आप खुल गया। सुरक्षाकर्मी ने स्थिति को देख अधिकारी को सूचना दी। इसके बाद गढ़ी माई ने स्वयं वहां अपने भक्त पूर्वज भगवान चौधरी के साथ बरियारपुर निर्जन स्थल पहुंच बोली मैं यहीं रहूंगी और जानवरों की बलि देने की भी बात कही। पूर्वज भगवान चौधरी ने देवी के आदेशानुसार मंदिर का निर्माण करवाया और देवी की इच्छानुसार वहां भैंसों की बलि भी दी गई। मंदिर की स्थापना के बाद से यह मेला पांच वर्ष पर लगता है। जहां देवी आज भी स्वयं प्रकट होती हैं और उनके प्रकट होते ही उनके सम्मुख रखा हुआ दीप स्वयं प्रज्वलित हो जाता है। इस मेले में हजारों भक्त देश के कोने-कोने से लोग पहुंचते है और गढ़ी माई से मन्नते मांगते है। वहीं मन्नते पूरी होने पर पशुओं की बलि देते है।

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बड़े पैमाने पर पशुओं की बलि देने की है परंपरा

यह मेला मुख्य रूप से मधेसी लोगों द्वारा मनाया जाता है । इस आयोजन में बड़े पैमाने पर जानवरों की बलि दी जाती है , जिसमें भैंस ,सूअर, बकरी, मुर्गियाँ और कबूतर शामिल होते हैं, जिसका लक्ष्य शक्ति की देवी गढ़ीमाई को प्रसन्न करना होता है। यहां लोग नारियल, मिठाई और लाल रंग के कपड़े सहित अन्य प्रसाद भी चढ़ाते हैं।

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अब तक चढ़ चुकी असंख्य पशुओं की बलि

ऐसा अनुमान है कि 2009 के गढ़ीमाई त्यौहार के दौरान 250,000 जानवरों की बलि दी गई थी। नेपाल के मंदिर ट्रस्ट ने जुलाई 2015 में देश के गढ़ीमाई त्यौहार पर भविष्य में सभी पशु बलि को रद्द करने की घोषणा की थी। इस आयोजन पर एचएसआई इंडिया द्वारा “प्रतिबंध“ भी लगाया गया था, हालांकि इसका कोई कानूनी बल नहीं मिला था। 2019 में, यह बताया गया कि यहां त्यौहार फिर से हुआ और बलि में जल भैंस, बकरियाँ, चूहे, मुर्गियाँ, सूअर और कबूतर शामिल थे।

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यहां आने वाले श्रद्धालुओं का मानना ​​है कि हिंदू देवी गढ़ीमाई को जानवरों की बलि देने से बुराई खत्म हो सकती है और समृद्धि आ सकती है। इस बलि प्रथा ने पहाड़ी क्षेत्र के पशु अधिकार कार्यकर्ताओं और नेपाली हिंदुओं द्वारा कई विरोध प्रदर्शनों का भी सामना किया है।

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2009 में, कार्यकर्ताओं ने अनुष्ठान को रोकने के लिए कई प्रयास किए; इसमें ब्रिजिट बार्डोट और मेनका गांधी शामिल थीं , जिन्होंने नेपाली सरकार को पत्र लिखकर हत्याओं को रोकने के लिए कहा। जबकि एक सरकारी अधिकारी ने टिप्पणी की कि वे “मधेशी लोगों की सदियों पुरानी परंपरा में हस्तक्षेप नहीं करेंगे।”

PETA ने बलि प्रथा को रोकने के लिए जताई चिंता

इस खास परम्परा से जुड़े आयोजन के दौरान पशुओं के सामूहिक वध पर रोक लगाने के लिए एक बार फिर PETA ने नेपाली प्रधानमंत्री के अलावा बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को पत्र लिख कर चिंता जताई है।

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इस पत्र में कहा गया है कि, “सामूहिक पशु बलि को रोका जाना चाहिए, जो पशुओ की सुरक्षा के लिए बेहद जरूरी है। साथ ही इंसानों के लिए भी सुरक्षित नहीं है। ऐसे स्थानों पर पशु वध के दौरान उनके शारीरिक तरल पदार्थों के आपस में मिलने से जूनोटिक बीमारियां पनपने का भय रहता है। जो कि इंसानों के लिए खतरनाक साबित हो सकती है।“ 

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पत्र में बताया गया, “पशुओं का सिर काटने से मौके पर उपस्थित लोग रोगाणुओं के संपर्क में आते हैं, जिससे एवियन इन्फ्लूएंजा, एंथ्रेक्स, लेप्टोस्पायरोसिस जैसी जूनोटिक बीमारियां फैलती हैं।“

2009 में हुई 5 लाख से अधिक पशुओं की बलि के बाद से इस प्रथा पर प्रतिबंध लगाने के लिए HSI और PFA 2014 से गढ़ीमाई में पशु बलि को रोकने का काम कर रहे हैं। हालांकि, आगे के सालों में जागरूकता बढ़ने और सख्ती करने से यह कम होती गई। 2014 और 2019 में यह घटकर करीब आधी ढाई लाख हो गई। पशु संगठन 7 दिसंबर, 2024 से आरंभ होने वाले इस आयोजन पर पशु वध को पूरी तरह से प्रतिबंधित किए जाने के लिए प्रयासरत हैं।

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पशु तस्करी पर हो रही कड़ी कारवाई

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रिपोर्ट के अनुसार इस बड़ी प्रथा से जुड़े मेले में करीब 70 से 75 प्रतिशत पशुओं की तस्करी होती है। कुछ संगठनों की रिपोर्ट का कहना है कि इस उत्सव में सिर्फ नेपाल ही नहीं बल्कि आसपास के देशों से भी पशुओं को शामिल किया जाता है। भारत-नेपाल सीमा पर पशुओं की अवैध तस्करी रोकने के लिए कुछ पशु संगठन ह्यूमन सोसाइटी इंटरनेशनल और पीपुल फॉर एनिमल्स की टीम सशस्त्र सीमा बल की सहायता कर रही है।तस्करी के दौरान जब्त हुए जानवर सुरक्षित जगह पर भेजे जा रहे हैं।

चल रही मेले की तैयारी

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नेपाल बारा जिलान्तर्गत महागढ़ी माई नगरपालिका द्वारा भक्तों की भीड़ को देखते हुए गढ़ी माई मेला समिति का गठन किया जा रहा है। साथ ही चढ़ावा का अलग बैरक बनाया जा रहा है। वहीं, आम लोगों के मनोरंजन के लिए झूला, खेल आदि के साथ कतारबद्ध दुकान की व्यवस्था की जा रही है। नेपाल के मधेश प्रदेश और महागढ़ी माई नगरपालिका की तरफ से भक्तों के सुविधा और सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए शौचालय, रहने, भोजन की सुविधा के साथ-साथ स्वच्छ पेय जल की सुविधा की खासा व्यवस्था की गई है। वहीं, भारतीय गढ़ी माई भक्तों को कोई असुविधा न हो, इसके लिए भारत सरकार से अनुरोध किया है। मेला में माता का आगमन और स्वतः दीप प्रज्ज्वलित होने पर आगामी 8 दिसंबर को भैंसा और 9 दिसंबर को खंसी, मुर्गा आदि की बलि चढ़ायी जाएगी। 7 दिसंबर को मंदिर के पुजारी मंगल चौधरी अपने शरीर के पांच स्थान से खून निकाल कर माता को चढ़ाकर माता के आगमन का आह्वान करेंगे। माता के आगमन के साथ ही रात 12 बजे माता के स्थान पर और ब्रह्म स्थान पर स्वयं दीप प्रज्ज्वलित हो जाएगा। उसके बाद पंच बलि दी जाएगी। श्रद्धालुओं के द्वारा लाए जाने वाले पशुओं की बलि चढ़ायी जाएगी। बलि के लिए 250 कसाई का रजिस्ट्रेशन किया गया है। 

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