लखनऊः एक आज के बच्चों का बचपन है, जरा सी चीजें पहचानने की उम्र में ही उन्हें गैजेट्स वगैरह थमा दिये जाते हैं। एक बचपन हमारे बडे बुजुर्गों का था, जरा सी समझदारी आने पर उन्हें सबसे पहले चिड़िया रानी से मिलवाया जाता था। क्या आपको याद आया कुछ? थोडा सा दिमाग पर और जोर डालिए। जी हां, वही खूबसूरत से छोटे छोटे पंखों, पीली चोंच और भूरे रंग की गौरेया, जिसके घर में आते ही मानो पूरा घर चहकने सा लगता है। वैसे तो यह पूरी दुनिया में पाई जाती है, लेकिन हमारे भारत में इसकी एक अलग ही पहचान है। पूरे भारत भर में शायद ही कोई ऐसा आंगन होगा, जिसमें गौरेया की चूं चूं न सुनाई दी हो। चाहे वह घर की मुंडेर हो या घर का आंगन हो, गौरेया रानी अक्सर इठलाती हुई दिख जाती हैं।
आज भी आप अगर देखें, तो इनके झुंड के झुंड पानी में शरारत करते नजर आ जाएंगे। पुराने समय में हमारे देश में महिलाएं अनाज के दानों को आंगन में बिखेर देती और नन्हें शिशुओं को आंगन में खेलने के लिए छोड़ देती थी। जैसे ही गौरेया अपने झुंड के साथ दाना चुगने आती थी, बच्चे उन्हें पकड़ने के लिए आतुर होते थे। बच्चों के परिचय की सबसे पहली पाखी गौरेया होती थी। 20 मार्च को पूरे देश में गौरेया को बचाने के उद्देश्य से विश्व गौरेया दिवस मनाया जाएगा।
तो ऐसी है चिड़ियों की रानी गौरेया
गौरेया एक घरेलू चिड़िया है, जो ज्यादातर मनुष्यों के घरों और कालोनियों के आस पास अपना घोंसला बनाती है। इसकी जानी मानी प्रजातियां हाउस स्पैरो, स्पैनिश स्पैरो, डेड सी स्पैरो और टी स्पैरो आदि हैं। इनमें से सबसे ज्यादा स्पैरो हाउस की चहचहाट सुनाई देती है। इनके शरीर पर छोटे छोटे पंख होते हैं। इनकी चोंच पीली और लम्बाई लगभग 14 से 16 सेमी होती है। रंग हल्का भूरा होता है। यह काफी समझदार और संवेदनशील पक्षी के रूप में जानी जाती है। झुंड में रहने वाली इस चिड़िया को जमीन पर बिखरे हुए अनाज के दाने और कीड़े मकोड़े बहुत पसंद आते हैं। यह घर के रोशनदानों, कोनों और कालोनियों के आसपास के पेडों के झरोखों में अपने आशियाने बनाना पसंद करती है।
रूठ गई गौरेया रानी
अब बहुत कम ऐसी सुबह होती हैं, जब हमारी नींद गौरेया रानी की चूं चूं से खुलती हो। अचानक से ये चिड़िया दिखाई देना कम हो गई। आंगन से लेकर घरों की छतें सूनी लगने लगी। इसका सबसे बडा कारण पेडों का अंधाधुंध कटना है। कल तक जहां इस चिड़िया के घरौंदे होते थे, वहां आज हम मनुष्यों ने अपनी इमारतें बना ली हैं। रोशनदानों और विंडों में अब ए सी और एक्जार्टर दिखाई देते हैं। ऐसे में गौरेया अगर अपने घरौंदे बनाना भी चाहे, तो आखिर कहां बनाए। अब न तो इनके चुगने के लिए कोई दाने डालता है और न ही कोई पीने के लिए मटकों में पानी रखता है। मोबाइल टावरों से बढ़े हुए रेडिएशन ने इनकी जनन क्षमता को भी कम कर दिया है। घरों में चलते हुए पंखों में कटकर अक्सर ये मर जाती हैं। ऐसे तमाम कारण हैं, जिनकी वजह से लगातार गैारेया की संख्या में कमी आ रही है। इनकी इतनी तेजी से घट रही संख्या का कारण कोई् और नहीं बल्कि हम इंसान ही हैं।
यूं मनाएं रूठी गौरेया को
अगर आज गौरेया को बचाने के लिए कदम नहीं उठाए गए, तो वो दिन दूर नहीं, जब हम गौरेया को केवल किताबों में देख व सुन सकेंगे। भारत सरकार भी गौरेया को बचाने के लिए लकडी के घर बांट रही है। लेकिन सेव ह्यूमेनिटी, सेव नेचर फाउंडेशन के सेक्रेटरी आदित्य तिवारी का कहना है कि घर बांटना अच्छा है, लेकिन उससे ज्यादा जरूरी गौरेया के लिए एक अच्छा माहौल तैयार करना है। अगर हम चाहते हैं कि गौरेया फिर से हमारे आंगन और छतों पर फुदकना शुरू करे, तो हमें लोगों को जागरूक करना होगा। पर्यावरण में रूठी गौरेया का अस्तित्व बनाए रखने के लिए हमें कुछ ऐसे कदम उठाने होंगे।
-ज्यादा से ज्यादा पेड़ लगाने होंगे।
-किसी पेड़ या बरामदे में किसी पतली छडी को बांधकर गौरेया के बैठने का स्थान बनाएं।
-घर की छतों या आंगन में मिटटी के बर्तनों में पानी भरकर रखें।
-गमलों में फूलों वाले पेड़ लगाएं ताकि इनके कीडे मकोडों से गौरेया अपना पेट भर सके।
-घरों के बाहरी किनारों पर अनाज के दाने बिखराएं।
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