दिल दुखाते हैं स्मृति चिन्ह, दुस्साहस ही नहीं, जान पर भी है खतरा एवरेस्ट से प्यार

Update:2017-01-09 16:23 IST

Govind Pant Raju

लखनऊ: एवरेस्ट के दर्शन हो चुके थे। जाने की यात्रा को काफी बेहतर रही एवरेस्ट के रास्तों में हमारे साथ क्या-क्या हो रहा था, यह तो आप पढ़ते ही आ रहे हैं। आइए आपको आगे की यात्रा के बारे में बताते हैं...

फैरिचे में जिस टी हाउस में हमें जगह मिलने की संभावना थी, वह बंद था। पता चला कि टी हाउस में जो आरोही टीम रूकी हुई थी, उसके सभी सदस्य काला पत्थर से ऊपर लोबूचे आरोहण के लिए जा चुके थे, इसलिए कुछ जरूरी चीजें लाने के लिए गेस्ट हाउस का मालिक भी नामचे बाजार चला गया था और उसके अगली सुबह से पहले वापस लौटने की कोई संभावना नहीं थी।

(राइटर दुनिया के पहले जर्नलिस्ट हैं, जो अंटार्कटिका मिशन में शामिल हुए थे और उन्होंने वहां से रिपोर्टिंग की थी। )

यानी हमारे रात वहां रूक सकने की कोई संभावना नही बची थी, लेकिन नवांग ने अपने स्थानीय संपर्काें का फायदा उठाते हुए दूसरे टी हाउसों में पूछताछ शुरू कर दी और बहुत जल्दी हमें फैरिचे रेसॉर्ट नाम के एक शानदार टी हाउस में जगह मिल गई। हालांकि उस दिन वहां हम पांचों के अलावा अन्य कोई भी नहीं था। इसलिए पूरी तरह खाली उस गेस्ट हाउस की मालकिन ने वहां मौजूद एक कर्मचारी के अलावा एक कुक को भी हमारे सत्कार में लगा दिया।

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मुझे उस समय चाय की बड़ी तलब लग रही थी। हमारे इस गेस्ट हाउस का डाइनिंग हाल आयताकार था, हालांकि इस इलाकों में ज्यादातर गेस्ट हाउसों के डाइनिंग हाॅल उपलब्ध स्थान के हिसाब से अलग अलग आकारों के होते हैं। इसीलिए इस डाइनिंग हाल का आयताकार आकार बहुत अच्छा लग रहा था। इसकी छत भी किसी पिरैमिड की तक उपर को शंक्वाकार थी। सारी दीवारों पर विभिन्न आरोही दलों के स्मृति चिन्हों के रूप में विजिटिंग कार्ड से लेकर, पोस्टर, ग्रुप फोटो और टी शर्ट आदि चीजें बोर्ड पिनों और टेप के जरिए चस्पा की गईं थे।

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स्मृतियां भी कितनी अजीब होती हैं। दीवारों पर लगे तीन स्मृति चिन्ह ऐसे आरोहियों के थे। जो यहां से उपर जाते वक्त अपने ये चिन्ह छोड़ गए थे। दो चित्रों में तो उनके मुस्कुराते हुए चेहरे थे जबकि तीसरा एक पोस्टर था, जिसमेें बेहद प्रेरणादायक पक्तियों में लिखा गया था कि, ‘पहाड़ों की ऊंचाइयां हमको अपनी जमीन में खड़ा रहना सिखाती हैं’। साथ में फ्रेंच पर्वतारोही ज्यां को हस्ताक्षर थे और तारीख पड़ी हुई थी। इसी के ठीक नीचे ज्यां टीम लीडर ने लिखा था ‘आर आई पी ज्यां’ और यह तारीख ज्यां के हस्ताक्षर के ठीक बीस दिन बाद की थी।

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बाकी दो तस्वीरों में भी टीम के सदस्यों की ओर से तस्वीरों वाले चेहरों के साथ उनके निधन की तारीखें और शोक संदेश लिखे गए थे। यानी ये तीनों आरोही आरोहण के लिए जाते समय इस टी हाउस मे रूके होंगे और उन्होंने अपने स्मृति चिन्ह यहां पर छोड़े होंगे। सामान्यतः इस इलाके में बाहरी दुनिया से आए घुमक्कड़ और आरोही अपनी पहचान के लिए टी हाउसों या अन्य स्थानों में इस तरह की चीजें छोड़ जाते हैं। कई लोग दुबारा आने पर उन चिन्हों को याद कर उन पर दूसरी बार आने की तारीख भी लिख देते हैं।

लेकिन हमें टी हाउस की दीवारों पर इन तीन स्मृति चिन्हों ने थोड़ा विचलित कर दिया क्योंकि पहाड़ोें के ये प्रेमी जीवित वापस नहीं लौट सके थे और खराब मौसम या दुर्घटनाओं के शिकार हो गए थे। कहते हैं कि प्यार करना एक दुस्साहस है और हिमालय से प्यार करना तो दुस्साहस के साथ साथ जान पर खेलने का भी काम होता है। ये तीनों वाकई में अपनी जान से खेल चुके थे, ऐसा इन्ही के स्मृति चिन्हों पर इनके साथियों को लिखे शब्दों से स्पष्ट हो रहा था। मन में थोड़ा विरक्ति भाव भर रहा था।

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मगर इन दुखद स्मृतियों के साथ फैरिचे रिसोर्ट के डाइनिंग हाल में ऐसा भी बहुत कुछ था। जो हमारी विरक्ति और उदासी को खत्म कर रहा था। एडमंड हिलेरी की एक बेहद खूबसूरत मुस्कुराती तस्वीर के साथ मेरा पीक के बेहतरीन चित्र हमारी मनोदशा को उदासी से दूर करने का काम कर रहे थे। अब तक राजेंद्र और अरूण भी फैरिचे अस्पताल से वापस आ चुके थे। राजेंद्र का अनुभव निराशजनक था। अस्पताल में कुछ नेपाली और और कुछ यूरोपीय डाक्टर मौजूद तो थे।

मगर वो सब अपना काम खत्म करके अपने आवासीय कक्षों में जा चुके थे, इसलिए उसे वहां किसी तरह की राहत नहीं मिल सकी थी। अस्पताल में नई व्यवस्था अभी शुरू नहीं हो पाई थी। अब भी वहां पर रजिस्ट्रेशन के लिए 20 डालर लग रहे थे और ऑक्सीजन सिलिण्डर के लिए 50 डालर स्थानीय नेपालियों के लिए वह अब भी अलभ्य था। लेकिन हमें बताया गया कि कुछ ही दिनों में नई व्यवस्था लागू हो जाएगी।

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अब तक हम लोग चाय का दूसरा दौर पूरा कर चुके थे, मगर अरूण ने आते ही अपने अतिव्यवहारिक अंदाज में व्यवस्थाएं ठीक करना शुरू कर दिया। टायलेट में पानी, मुंह धोने के लिए गुनगुना पानी, साबुन आदि का इंतजाम करवाने के बाद अरूण के उर्वक दिमाग ने हमें फैरिचे में गर्म पकौड़ियां, तले हुए पापड़ और गर्मा-गर्म मसाला चाय भी उपलब्ध करवा दी। शानदार दावत हो गई थी हमारी हालांकि पकौड़ियां वैसी नहीं थीं, जैसी हमने कल्पना की थी, मगर फैरिचे रेसॉर्ट चंचल, चपल और आत्मविश्वास भरी मुस्कुराहट वाले कुक ने हमारा आनंद दुगना कर दिया था और पकौड़ियों का स्वाद भी।

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दरसल फैरिचे रेसॉर्ट के मालिक जो एक पर्वतारोही भी थे, अब अमेरिका में रह रहे हैं। मगर अपना बनवाया हुआ शानदार रेसॉर्ट उन्होंने बेचा नहीं। हालांकि उन्हें इसके मुंहमांगे दाम मिल रहे थे परन्तु उन्होंने इसे बेचने के बजाय अपनी बहन नीमा को दे दिया कि वो इसका संचालन जारी रखे। नीमा इस इलाके की तमाम अन्य महिलाओं की तरह बेहद कर्मठ, मिलनसार, वाचाल और मृदुभाषी थीं। नीमा के 25-30 वर्ष के दो बेटे थे। लेकिन वो खुद 30 साल से बड़ी नहीं लगती थीं।

रेसॉर्ट में रवाना अच्छा मिल सके, इसके लिए उन्होंने अच्छे वेतन पर काठमांडू से लाकर एक अच्छे कुक को रखा था। युवराज नाम के उस मस्त नौजवान की आखों में बहुत बड़े सपने थे। वह खाना भी अच्छा बनाता था और उसे पेश करने का उसका तरीका भी लाजवाब था। थोड़ी ही देर में फैरिचे के चारों ओर की पहाड़ियों पर पड़ रही सूर्य की लालिमा धूमिल हो गई और पूरा फैरिचे रात के लबादे में छिप गया।

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रेसॉर्ट के अंदर कुछ धुंधलाते सौर ऊर्जा के बल्ब और फैरिचे अस्पताल की दो टिमटिमाती बत्तियों के अलावा हर ओर सिर्फ काला अंधेरा घिर आया था। हमारे डाइनिंग हाल में आग जल चुकी थी। इसलिए हाल काफी गर्म था। हम वहीं जमे हुए थे और खाना खाने के बाद भी वहीं जमे रहे। नवांग और ताशी आज काफी रिलैक्स लग रहे थे। राजेंद्र की हालत बहुत अच्छी नहीं थी। मगर वह भी हम सबके साथ पूरी शिद्दत से जुटा रहा।

आज राजेंद्र और अरूण एक कमरे में सोने वाले थे और मैं बगल वाले कमरे में। करीब दस बजे तक अभियान की अब तक की स्मृतियों को याद करते करते जब नींद ने जोर मारना शुरू किया। तो हमने अपने अपने स्लीपिंग बैगों की शरण ली और जल्द ही नींद के आगोश में पहुंच गए हम सब।

गोविंद पंत राजू

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