रेप से जुड़े ये आंकड़े उड़ा देंगे आपके होश, जानें किसका कितना दोष

Update: 2018-07-06 08:04 GMT

नई दिल्ली : केवल 6 बरस ही तो बीते हैं जब निर्भया कांड से पूरा देश गुस्से में था। अब गुस्से का कारण मंदसौर कांड बन गया है। मंदसौर की आग बुझती कि ठीक चार दिन बाद मप्र के ही सतना के परसमनिया गांव में दुष्कर्म की शिकार चार साल की बालिका गंभीर हालत में मिली। उसे एयरलिफ्ट कर 3 जुलाई को एम्स दिल्ली में भर्ती कराया गया।

दोनों मामलों में पीड़ित बच्चियां सूनी जगहों पर मरणासन्न हालत में मिलीं। दोनों घटनाओं के तीनों आरोपी 20 से 25 साल के आवारा तथा नशे की लत के शिकार नौजवान हैं। यकीनन ये समाज से अलग-थलग होंगे इस कारण भी भयमुक्त होंगे। सोशल थेरेपी की कमीं भी डिप्रेशन या कुंठित मानसिकता के शिकार ऐसे अपराधियों को बढ़ावा देती है, जिससे कई बार गंभीरता को समझते और जानते हुए भी तो कई बार लचर कानून और सजा का भय न होना भी ऐसी घटनाओं का कारण बनते हैं।

अगर आंकड़ों को देखें तो बेहद चौंकाते हैं। 2017 में ही 19000 हजार से ज्याद दुष्कर्म के मामले हुए। जबकि बीते 5 बरस में बच्चों से दुष्कर्म मामलों में 151 फीसदी बढ़ोतरी हुई है यानी हर दिन करीब 55 बच्चे दुष्कर्म का शिकार होते हैं। ये वो हकीकत है जो पुलिस तक पहुंचती है। परंतु ऐसे मामलों का कोई हिसाब नहीं हैए जिनमें मासूमों ने छेड़छाड़ तथा दुष्कर्म से जुड़ी मानसिक और शारीरिक प्रताड़ना को सहा और मजबूरन चुप रहना पड़ा या डराकर नहीं तो पैसों के बल पर चुप करवा दिया गया।

राष्ट्रीय क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों बताते हैं कि देश के नौनिहालों की सुरक्षा की हालत बेहद खस्ता है। 2010 में दर्ज 5,484 बलात्कार के मामलों की संख्या बढ़कर 2014 में 13,766 हो गई थी। संसद में पेश आंकड़े बेहद चौंकाते हैं। अक्टूबर 2014 तक पॉक्सो एक्ट के तहत दर्ज 6,816 एफआईआर में केवल 166 को ही सजा हो सकी है, जबकि 389 मामले में लोग बरी कर दिए गए, जो 2.4 प्रतिशत से भी कम है।

इसी तरह 2014 तक 5 साल से दर्ज मामलों में 83 फीसदी मामले लंबित थेए जिनमें से 95 फीसदी पॉक्सो के और 88 फीसदी बच्चियों के 'लाज भंग' यानी दुष्कर्म के थे। भारतीय दंड संहिता की धारा 354 के तहत महिला की लाज भंग के इरादे से किए गए हमले के 11,335 मामले दर्ज किए गए।

यदि कानून की कमी को दोष दें तो धीमी न्याय प्रक्रिया और सबूतों की मजबूती के तर्क पर कई बार बच जाने वाले जघन्य अपराधों के दोषियों की हरकतें भी नए अपराधों में छिपी होती हैं। लेकिन सवाल फिर वही कि इससे निपटा कैसे जाए? कौन इसके लिए पहल करेगा? किस तरह से तैयारी करनी होगी और तैयारी के बाद अमल में कैसे लाया जाए? लेकिन आज हकीकत ठीक उलट है।

घटना घटने के बाद गुस्सा स्वाभाविक है। लेकिन राजनीतिक रोटी का सेंका जाना जरूर सवालिया है। देखा भी गया है कि ऐसी घटनाओं में राजनीतिकरण के आवरण में असली दर्द छिप जाता है और मरहम के बजाय मातम पुरसी का दौर चल पड़ता है। हालाकि केंद्रीय मंत्रिमंडल ने इसी 21 अप्रैल को 12 साल से कम उम्र के बच्चों से दुष्कर्म के दोषियों को अदालतों द्वारा मौत की सजा देने संबंधी एक अध्यादेश को मंजूरी दे दी। लेकिन फिर भी घटनाएं हैं कि थम नहीं रही हैं।

निर्भया कांड के बाद 2013-14 में निर्भया फंड बनाया गया। सरकार ने 1 हजार करोड़ रुपये से शुरुआत की। 2014-15 में इसमें फिर 1 हजार करोड़ और डाले। 2015-16 में कुछ नहीं दिया, जबकि 2016-17 में रकम घटाकर 550 करोड़ कर दी गई। केवल 2016 में महज 191 करोड़ रुपये खर्चे गए, जबकि 2017-18 में इसमें साढ़े 500 करोड़ रुपये और इस साल 500 करोड़ डाले गए।

इस तरह कुल मिलाकर यह फंड 3409 करोड़ रुपये का हो गया, जिसका कोई इस्तेमाल नहीं किया गया, जबकि इससे पूरे देश में 660 उज्ज्वला वन स्टॉप सेंटर बनने थे, जिसमें पीड़ितों का इलाज भी हो। चप्पे-चप्पे पर सीसीटीवी लगें, उन्हें कानूनी और आर्थिक मदद मिले और पहचान भी छुपी रहे। लेकिन हकीकत उलट है। आम लोगों को इस बारे में पता तक नहीं कि कितने सेंटर कहां-कहां हैं!

सुप्रीम कोर्ट भी इस पर केंद्र व सभी राज्यों से पूछ चुका है कि निर्भया फंड का इस्तेमाल क्यों नहीं किया जा रहा है, नोडल अथॉरिटी के रूप में महिला एवं बाल विकास मंत्रालयए महिला उत्थान व सुरक्षा के लिए खर्च की छूट के बावजूद केवल 600 करोड़ खर्च करने और 2400 करोड़ बचे रहने का ठोस जवाब नहीं दे पाया।

चाहे दिल्ली, मंदसौर, सतना सहित न जाने कितनी अनाम निर्भया हों या मुंबई की नर्स अरुणा शानबाग हो जो सहकर्मी की यौन प्रताड़ना से बचने के खातिर उसके गुस्से का ऐसा शिकार हुई कि 23 नवंबर, 1973 को कोमा में पहुंचने के बाद 19 मई, 2015 को मौत होने तक लगातार 42 साल रोज मरकर भी जिंदा रही।

ऐसे अपराधों को रोकने के लिए फंड तो है, लेकिन बेहद कठोर कानून, फास्ट ट्रैक अदालतें उससे जरूरी हैं, ताकि यौन तथा बाल अपराधियों पर लगाम लगा सके। अपराधियों में खौफ पैदा हो, वरना यह सवाल बना ही रहेगा और कितनी निर्भयाएं?

-आईएएनएस

Similar News