नई दिल्ली : केवल 6 बरस ही तो बीते हैं जब निर्भया कांड से पूरा देश गुस्से में था। अब गुस्से का कारण मंदसौर कांड बन गया है। मंदसौर की आग बुझती कि ठीक चार दिन बाद मप्र के ही सतना के परसमनिया गांव में दुष्कर्म की शिकार चार साल की बालिका गंभीर हालत में मिली। उसे एयरलिफ्ट कर 3 जुलाई को एम्स दिल्ली में भर्ती कराया गया।
दोनों मामलों में पीड़ित बच्चियां सूनी जगहों पर मरणासन्न हालत में मिलीं। दोनों घटनाओं के तीनों आरोपी 20 से 25 साल के आवारा तथा नशे की लत के शिकार नौजवान हैं। यकीनन ये समाज से अलग-थलग होंगे इस कारण भी भयमुक्त होंगे। सोशल थेरेपी की कमीं भी डिप्रेशन या कुंठित मानसिकता के शिकार ऐसे अपराधियों को बढ़ावा देती है, जिससे कई बार गंभीरता को समझते और जानते हुए भी तो कई बार लचर कानून और सजा का भय न होना भी ऐसी घटनाओं का कारण बनते हैं।
राष्ट्रीय क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों बताते हैं कि देश के नौनिहालों की सुरक्षा की हालत बेहद खस्ता है। 2010 में दर्ज 5,484 बलात्कार के मामलों की संख्या बढ़कर 2014 में 13,766 हो गई थी। संसद में पेश आंकड़े बेहद चौंकाते हैं। अक्टूबर 2014 तक पॉक्सो एक्ट के तहत दर्ज 6,816 एफआईआर में केवल 166 को ही सजा हो सकी है, जबकि 389 मामले में लोग बरी कर दिए गए, जो 2.4 प्रतिशत से भी कम है।
यदि कानून की कमी को दोष दें तो धीमी न्याय प्रक्रिया और सबूतों की मजबूती के तर्क पर कई बार बच जाने वाले जघन्य अपराधों के दोषियों की हरकतें भी नए अपराधों में छिपी होती हैं। लेकिन सवाल फिर वही कि इससे निपटा कैसे जाए? कौन इसके लिए पहल करेगा? किस तरह से तैयारी करनी होगी और तैयारी के बाद अमल में कैसे लाया जाए? लेकिन आज हकीकत ठीक उलट है।
घटना घटने के बाद गुस्सा स्वाभाविक है। लेकिन राजनीतिक रोटी का सेंका जाना जरूर सवालिया है। देखा भी गया है कि ऐसी घटनाओं में राजनीतिकरण के आवरण में असली दर्द छिप जाता है और मरहम के बजाय मातम पुरसी का दौर चल पड़ता है। हालाकि केंद्रीय मंत्रिमंडल ने इसी 21 अप्रैल को 12 साल से कम उम्र के बच्चों से दुष्कर्म के दोषियों को अदालतों द्वारा मौत की सजा देने संबंधी एक अध्यादेश को मंजूरी दे दी। लेकिन फिर भी घटनाएं हैं कि थम नहीं रही हैं।
इस तरह कुल मिलाकर यह फंड 3409 करोड़ रुपये का हो गया, जिसका कोई इस्तेमाल नहीं किया गया, जबकि इससे पूरे देश में 660 उज्ज्वला वन स्टॉप सेंटर बनने थे, जिसमें पीड़ितों का इलाज भी हो। चप्पे-चप्पे पर सीसीटीवी लगें, उन्हें कानूनी और आर्थिक मदद मिले और पहचान भी छुपी रहे। लेकिन हकीकत उलट है। आम लोगों को इस बारे में पता तक नहीं कि कितने सेंटर कहां-कहां हैं!
चाहे दिल्ली, मंदसौर, सतना सहित न जाने कितनी अनाम निर्भया हों या मुंबई की नर्स अरुणा शानबाग हो जो सहकर्मी की यौन प्रताड़ना से बचने के खातिर उसके गुस्से का ऐसा शिकार हुई कि 23 नवंबर, 1973 को कोमा में पहुंचने के बाद 19 मई, 2015 को मौत होने तक लगातार 42 साल रोज मरकर भी जिंदा रही।
-आईएएनएस