पूनम नेगी
जीवन रस का सामूहिक गान भारतीय त्योहारों की मूल संवेदना है। आर्य संस्कृति की महत गरिमा से मंडित आलोक पर्व दीपावली युगों-युगों से सभ्यता के घाटों को प्रदीप्त करता रहा है। वैदिक काल में यह प्रकाश अग्नि रूप में था जो बाद में मंदिर के आरतीदीप के रूप में प्रतिष्ठित हो गया। इस पर्व में समायी हमारी ज्ञान-गामिनी सांस्कृतिक धरोहर उतनी ही प्राचीन है जितनी कि हमारी संस्कृति। वैदिक काल से वर्तमान तक दीपावली की पांच दिवसीय पर्व शृंखला संस्कृति की अनेकानेक आध्यात्मिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और भौतिक धाराओं को समाहित करती आई है। तमसो मा ज्योतिर्गमय का दिव्य शिक्षण देने वाले इस प्रकाशपर्व का शुभारम्भ कब क्यों व कैसे हुआ? इस बाबत तमाम धार्मिक, पौराणिक, ऐतिहासिक व सामाजिक साक्ष्य उपलब्ध हैं। मान्यता है कि होली महोत्सव है और दशहरा महानुष्ठान, जबकि एकमात्र दीपावली ही सम्पूर्ण अर्थों में महापर्व है। सर्वाधिक ऐतिहासिक संदर्भ व मान्यताएं, परम्पराएं हमारे इस महापर्व से जुड़ी हैं।
भगवान राम का दीपों से स्वागत
यदि पौराणिक संदर्भों की बात करें इस पर्व का सर्वाधिक लोकप्रिय त्रेतायुगीन संदर्भ मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के जीवन से जुड़ा है। रावण को हराकर चौदह वर्ष का वनवास पूर्ण कर जिस दिन श्रीराम अयोध्या लौटे, उस रात्रि कार्तिक मास की अमावस्या थी। ऐसे में अयोध्यावासियों ने श्रीराम के स्वागत में घी के दीए जलाकर पूरी अयोध्या को दीपों के प्रकाश से जगमग कर धरती पर ही सितारों को उतार दिया। श्रीराम के स्वागत में अयोध्यावासियों ने की थी भारतवर्ष की पहली दीपावली। तभी से दीपोत्सव की परम्परा चली आ रही है। तमाम सनातनधर्मियों की मान्यता है कि आज भी दीपावली के दिन प्रभु श्रीराम, भाई लक्ष्मण और पत्नी सीता के साथ अपनी वनवास स्थली चित्रकूट में विचरण कर श्रद्धालुओं की मनोकामनाओं की पूर्ति करते हैं। यही कारण है कि दीपावली के दिन लाखों श्रद्धालु चित्रकूट में मंदाकिनी नदी में डुबकी लगाकर कामदगिरि की परिक्रमा कर दीप दान करते हैं।
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दीपपर्व से जुड़े अन्य संदर्भ
वैसे यह जानना दिलचस्प है कि इससे पूर्व के कुछ अन्य संदर्भ भी दीपपर्व से जुड़े हैं। पद्म व भविष्य पुराण में इस पर्व का सम्यक विवेचन मिलता है जहां इस पर्व को लौकिक मान्यताओं, वैभव एवं प्रदर्शन से पृथक सुसंस्कारिता आवरण पहनाकर सात्विकता से ज्योति मण्डित किया गया है। पौराणिक कथानुसार इसी दिन सागर मंथन के दौरान अमृत घट लेकर आयुर्वेद के प्रणेता धन्वंतरि ऋषि प्रकट हुए थे। सुश्रुत व चरक संहिताओं के साथ रामायण, महाभारत व श्रीमद्भागवत पुराण आदि पुरा साहित्य में आचार्य धन्वंतरि की आयुर्वेदिक उपलब्धियों का विस्तृत उल्लेख मिलता है।
एक अन्य पौराणिक कथानक के अनुसार इस अवसर पर आचार्य धन्वंतरि के अतिरिक्त माता लक्ष्मी व कुबेर भी समुद्रमंथन के दौरान प्रकट हुए थे। कहा जाता है कि माता ने सम्पूर्ण जगत के प्राणियों को सुख-समृद्धि का वरदान दिया और उनका उत्थान किया। इसलिए दीपावली के दिन माता लक्ष्मी की पूजा की जाती है। आदिकाल में दीपावली को यक्षरात्रि के रूप में मनाए जाने के भी पौराणिक उल्लेख मिलते हैं। लक्ष्मी और विष्णु जी का विवाह भी इसी दिन सम्पन्न होना माना गया है। यही नहीं, दीपावली की रात्रि को यक्ष राज कुबेर अपने गणों के साथ हास-विलास व आमोद-प्रमोद करते थे। दीपावली पर रंग-बिरंगी आतिशबाजी, छत्तीस प्रकार के व्यंजन तथा मनोरंजन के विविध कार्यक्रम यक्षों की ही देन हैं। कई जगहों पर अभी भी दीपावली के दिन देवी लक्ष्मी के साथ कुबेर की भी पूजा होती है। हालांकि कालान्तर में दीपावली में देवी लक्ष्मी के साथ गणेश जी को मंचासीन करने में भौव-सम्प्रदाय का काफी योगदान है। ऋद्धि-सिद्धि के दाता के रूप में उन्होंने दीपोत्सव की पूजन वेदिका पर गणेश जी को प्रतिष्ठित किया। यदि तार्किक आधार पर देखें तो कुबेर जी मात्र धन के अधिपति हैं जबकि गणेश जी संपूर्ण ऋद्धि-सिद्धि के दाता माने जाते हैं। इसी प्रकार लक्ष्मी जी मात्र धन की स्वामिनी नहीं वरन ऐश्वर्य एवं सुख-समृद्धि की भी स्वामिनी मानी जाती हैं।
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माना जाता है कि इसी दिन मृत्यु के देवता यमराज ने जिज्ञासु बालक नचिकेता को ज्ञान की अंतिम वल्लरी का उपदेश दिया था। यम-नचिकेता का यह संवाद कठोपनिषद में विस्तार से वर्णित है। महान पतिव्रता सावित्री ने भी इसी दिन अपने अपराजेय संकल्प द्वारा यमराज के मृत्युपाश को तोड़कर मनोवांछित वरदान पाया था। पौराणिक कथा के अनुसार दैत्यराज हिरण्यकश्यप अपने पुत्र प्रहलाद की विष्णु भक्ति से अप्रसन्न हो उसे जान से मारना चाहता था। तमाम उपाय जब असफल हो गये तो कुपित होकर खड्ग उठाकर जैसे ही वह स्वयं अपने पुत्र की हत्या करने को आगे बढ़ा वैसे ही बालक प्रहलाद के आराध्य विष्णु ने नृसिंह रूप में खंभे से प्रकट होकर अपने नख से दैत्यराज का वध कर डाला। वह कथा तो सभी को सुविदित है पर कम ही लोग यह जानते होंगे कि यह घटनाक्रम कार्तिक अमावस्या के संध्याकाल में घटित हुआ था।
महान दानवीर दैत्यराज बलि और श्री हरि के वामन अवतार का प्रसंग भी दीपोत्सव से जुड़ा है। वह कथा भी सुविज्ञ है। महाप्रतापी राजा बलि ने भगवान विष्णु की मंशा जानकर भी उनको निराश नहीं किया। तब राजा बलि की दानशीलता से प्रभावित होकर भगवान विष्णु ने उन्हें पाताल लोक का राज्य दे दिया, साथ ही यह भी आश्वासन दिया कि उनकी याद में भूलोकवासी प्रत्येक वर्ष दीपावली मनाएंगे। वह पावन तिथि भी कार्तिक पूर्णिमा की थी। इसी तरह द्वापर युग में श्रीकृष्ण द्वारा नरकासुर का वध दीपावली के एक दिन पहले चतुर्दशी को किया था। इस घटना की स्मृति में नरक चतुर्दशी (छोटी दीपावली) मनायी जाती है। चक्रवर्ती सम्राट युधिष्ठिर का राजसूय यज्ञ भी इसी दिन सम्पन्न हुआ था। कहा जाता है कि राक्षसों का वध करने के लिए मां देवी ने महाकाली का रूप धारण किया। राक्षसों का वध करने के बाद भी जब महाकाली का क्रोध कम नहीं हुआ तब भगवान शिव स्वयं उनके चरणों में लेट गए। भगवान शिव के शरीर स्पर्श से ही देवी महाकाली का क्रोध समाप्त हो सका। वह तिथि भी कार्तिक अमावस्या की ही थी।
मुगल शासकों की दीपावली
तमाम ऐतिहासिक साक्ष्य मुगल शासकों द्वारा दीपावली का उत्सव धूमधाम से मनाने की तस्दीक करते हैं। राज्य में हिंदू व मुस्लिम सम्प्रदाय के मध्य सद्भाव स्थापित करने की मंशा से नाम से नया पंथ चलाने वाले बादशाह अकबर को दीपावली का त्योहार काफी पसंद था। अबुल फजल द्वारा लिखित 'आईने अकबरी' में उल्लेख मिलता है कि दिवाली के दिन किले के महलों व शहर के चप्पे-चप्पे पर घी के दीपक जलाए जाते थे। बादशाह अकबर के दौलतखाने के बाहर एक चालीस गज का दीपस्तंभ टांगा जाता था, जिस पर विशाल दीपज्योति प्रज्जवलित की जाती थी। इसे आकाशदीप के नाम से पुकारा जाता था। दीपावली के अगले दिन वे सुंदर रंगों और विभिन्न आभूषणों से सजी गायों का मुआयना कर ग्वालों को इनाम भी देते थे। अकबर के वारिस जहांगीर दिवाली के दिन को शुभ मानकर चौसर खेला करते थे। राजमहल और निवास को विभिन्न प्रकार की रंग-बिरंगी रोशनियों से सजाया जाता था और जहांगीर रात्रि के समय अपनी बेगम के साथ आतिशबाजी का आनंद लेते थे। इसी तरह मुगल बादशाह शाहजहां जितनी शानोशौकत के साथ ईद को मनाते थे उसी तरह दीपावली भी मनाते थे। बादशाह शाहजहां दीपावली पर्व पर किले को रोशनी कर सजाते थे। शाहजहां अपने दरबारियों, सैनिकों और जनता में इस अवसर पर मिठाई बंटवाते थे। उनके बेटे दाराशिकोह ने भी दिवाली परंपरा को जीवित रखा। दारा शिकोह इस त्योहार को पूरे हर्षोल्लास के साथ मनाते और अपने नौकरों को बख्शीश बांटते थे। उनकी शाही सवारी रात्रि के समय शहर की रोशनी देखने निकलती थी। पुस्तक 'तुजुके जहांगीरी' में दीपावली पर्व की भव्यता और रौनक का विस्तृत वर्णन किया गया है। मुगल वंश के अंतिम सम्राट बहादुर शाह जफर का दिवाली मनाने का निराला ही अंदाज था। जफर की दिवाली तीन दिन पहले ही शुरू हो जाती थी। दीपावली के दिन वे तराजू के एक पलड़े में बैठते और दूसरा पलड़ा सोने-चांदी से भर दिया जाता था। तुलादान के बाद यह सब गरीबों को दान कर दिया जाता था। तुलादान की रस्म-अदायगी के बाद किले पर रोशनी की जाती थी। कहार खील-बतीशे, खांड और मिट्टी के खिलौने घर-घर जाकर बांटते थे।
इतिहास के आइने में
गौरतलब हो कि 500 ईसा पूर्व की मोहनजोदड़ो व हड़प्पा की खुदाई में बड़ी संख्या में पकी हुई मिट्टी के दीपक प्राप्त हुए हैं। साथ ही खुदाई में प्राप्त भवनों में दीपकों को रखने के लिए बनाए गए आलों व ताखों के अवशेष भी मिले हैं। सिंधु घाटी की सभ्यता के अवशेषों में मिले मिट्टी के दिये, चाक तथा एक पुरुष मूर्ति इस बात की ओर इशारा करती है कि उस समय भी दीपावली मनायी जाती रही होगी। जैन धर्म में तो दीपावली का विशिष्ट महत्व है। जैन तीर्थंकर भगवान महावीर ने दीपावली के दिन ही बिहार के पावापुरी में निर्वाण प्राप्त किया था और देवलोक के देवताओं ने दीप जलाकर उनकी स्तुति की थी। जैन धर्म के प्रमुख ग्रन्थ 'कल्पसूत्र' में कहा गया है कि महावीर-निर्वाण के साथ जो अन्त ज्योति सदा के लिए महाकाश में विलीन हो गयी है, आओ उसकी क्षतिपूर्ति के लिए हम वाह्य आकाश को दीप ज्योति से आलोकित करें। कहा जाता है कि बौद्ध धर्म के प्रवर्तक गौतम बुद्ध संबोधि प्राप्त करने के उपरान्त 17 वर्ष बाद जब अनुयायियों के साथ अपने गृह नगर कपिलवस्तु लौटे तो उनके स्वागत में नगरवासियों ने लाखों दीप जलाकर दीपावली मनाई थी। साथ ही उस अवसर पर महात्मा बुद्ध ने अपने प्रथम प्रवचन के दौरान अप्प दीपो भव का उपदेश देकर दीपावली को नया आयाम प्रदान किया था। मौर्य साम्राज्य की दीपावली के तो रंग ही अनूठे थे।
मगध सम्राट अजातशत्रु के शासनकाल में इस शुभ पर्व पर कौमुदी महोत्सव का आयोजन किया जाता था। ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में रचित कौटिल्य के अर्थशास्त्र के अनुसार आमजन कार्तिक अमावस्या के अवसर पर मंदिरों और घाटों पर बड़े पैमाने पर दीप जलाकर दीपदान महोत्सव मनाते थे। लोग बाग मशालें लेकर नाचते थे। मौर्य राजवंश के चक्रवर्ती सम्राट अशोक ने अपना दिग्विजय का अभियान इसी दिन प्रारम्भ किया था तथा इसी खुशी में दीपदान किया गया था। आर्यावर्त के यशस्वी सम्राट चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने ईसा से 269 वर्ष पूर्व दीपावली के ही दिन तीन लाख शकों व हूणों को युद्ध में खदेड़कर परास्त किया था। इस खुशी में उनके राज्य के लोगों ने असंख्य दीप जलाकर जश्न मनाया था। विक्रम संवत के प्रवर्तक चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य का राज्याभिषेक भी दीपावली के दिन ही हुआ था। सिखों के लिए भी दीपावली का पर्व बहुत माने रखता है। इसी दिन ही अमृतसर में 1577 में स्वर्ण मन्दिर का शिलान्यास हुआ था और इसके अलावा 1618 में दिवाली के दिन सिखों के छठे गुरु हरगोबिन्द सिंह जी को मुगल बादशाह जहांगीर की कैद से जेल से रिहा किया गया था। भारतीय संस्कृति के महान जननायक तथा आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द ने बनकर दीपावली के दिन अजमेर के निकट देहावसान हुआ था।
इसी तरह पंजाब में जन्मे स्वामी रामतीर्थ का जन्म व महाप्रयाण दोनों दीपावली के दिन ही हुआ। इन्होंने दीपावली के दिन गंगातट पर स्नान करते समय ओम कहते हुए समाधि ले ली। कहा जाता है कि महान संत स्वामी रामकृष्ण परमहंस को दीपावली के ही दिन मां काली ने प्रथम दर्शन हुए थे। इसीलिए इस दिन बंगाली समाज में काली पूजा का विधान है। कहा जाता है कि साईं बाबा ने दीपावली पर पानी से दिए जलाकर दीपोत्सव मनाया था। इस बाबत एक रोचक कथा है। कहा जाता है कि साईं बाबा संध्या समय शिरडी में घर-घर जाकर दुकानदारों से भिक्षा में तेल मांगते और दिए जलाया करते थे। दीपावली के दिन साईं बाबा तेल मांगने गए, लेकिन लोगों ने तेल देने से मना कर दिया। बाबा के खाली हाथ लौटने पर भक्तों को बड़ी निराशा हुई। तब साईं बाबा ने मस्जिद के अंदर बने कुएं से एक घड़ा पानी खींचकर उस जल को दीयों में भर दिया। उस पानी से सारे दिये जल उठे। इस चमत्कार को शिरडी वालों ने अपनी आंखों से देखा था। यही वजह है कि साई भक्त दीपावली के दिन बाबा का विशेष पूजन व आरती करते हैं।