लखनऊ: बिहार की धरती पर एक साधारण से दलित परिवार के घर में जन्म लिए जगजीवन राम ने जीवन में उन ऊंचाईयों को छूआ। जिसकी लालसा हर इंसान को रहती है। उन्होंने उस वक्त वो कर दिखाया जब देश अस्पृश्यता की मार्मिक पीड़ा के दौर से गुजर रहा था। जहां दलितों को सम्मान नहीं दिया जाता था। उन्हें हेय दृष्टि से देखा जाता था। तब बाबू जगजीवन राम ने उनके हक की लड़ाई तो लड़ी। साथ ही, राजनीति में अपनी मजबूत दावेदारी दिखाई।
राष्ट्रीय संघर्ष की उपज
सच्चाई तो यही थी कि जगजीवन राम राष्ट्रीय संघर्ष की उपज थे। बचपन से ही उन्हें अस्पृश्यता की मार्मिक पीड़ा के दौर से गुजरना पड़ा था। यही नहीं साल 1978 में केंद्रीय मंत्री के रूप में जब वो बनारस में सम्पूर्णानंद की प्रतिमा का अनावरण करने गए तो सम्पूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय के स्वर्ण छात्रों ने 'जग्गू चमरा हाय-हाय, बूट पालिश कौन करेगा' जैसे भद्दे जातिगत नारों से उनका स्वागत किया और इतना ही नहीं, उनके जाने के बाद उस मूर्ति को वेद मंत्रों के उच्चारण के साथ गंगा जल से धोया। स्वर्ण छात्रों के अनुसार में एक दलित के स्पर्श से मूर्ति अपवित्र हो गयी थी।
वैज्ञानिक बनना चाहते थे
दरअसल ये ही वो लोग थे और आज भी सभी जगह हैं, जिनके कारण स्वर्ण कहा जाने वाला समाज न केवल दूसरी दलित जातियों और उनकी नई पीढ़ी को नफरत से देखता है, बल्कि उसे निरंतर सामाजिक वैमनस्यता के लिए भी जिम्मेदार भी मानता है, लेकिन जगजीवन राम ने कभी हार नहीं मानी और अपनी प्रतिभा की बल पर अपने कार्यक्षेत्र में छाए रहे।
वे दलितों, पिछड़ों, खेतिहर मजदूरों का दर्द अच्छी तरह समझते थे। वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे और वैज्ञानिक बनना चाहते थे, लेकिन अपने सपने को दरकिनार कर वे शोषित वर्ग के राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक उत्थान के लिए पूरा जीवन अर्पित कर दिए।
राजनीति में उनकी दूरदर्शिता का सब लोहा मानते थे तभी तो वे किसी जमाने में इंदिरा गांधी खास भी थे, लेकिन बाद में कुछ वैचारिक मतभेद की वजह से वे अलग हो गए। हुआ यूं कि 1969 में जब कांग्रेस अध्यक्ष निजलिंगप्पा ने नीलम संजीवा रेड्डी को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार घोषित किया तो इंदिरा गांधी ने इसे स्वीकार नहीं किया
और उन्होंने उप राष्ट्रपति वीवी गिरि को अपना उम्मीदवार घोषित कर दिया। इसका नतीजा हुआ कि राष्ट्रपति के मुद्दे पर कांग्रेस दो भागों में बंट गई। उस घड़ी जगजीवन राम इंदिरा गांधी के साथ खड़े रहे। जगजीवन राम ने ही राष्ट्रपति पद के चुनाव में 'अंतरात्मा की आवाज' के अनुसार वोट देने को कहा। नतीजा हुआ कि वीवी गिरि राष्ट्रपति निर्वाचित हुए।
बाद में इंदिरा गांधी से हो गए अलग
कांग्रेस के विभाजन के बाद जगजीवन राम को इंदिरा गांधी ने कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया और उनके नेतृत्व में 1971 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस को 352 सीटें प्राप्त हुईं, पर शायद यहीं से जगजीवन राम और इंदिरा गांधी के बीच तनाव भी बढ़ने लगा।
चुनाव बाद गठित सरकार में जगजीवन राम मंत्री पद से तो नवाजे गए, लेकिन कांग्रेस अध्यक्ष पद से हटा दिये गए। इस बीच उत्पन्न परिस्थितियों से बौखलाकर इंदिरा गांधी ने जून 1975 में आपातकाल की घोषणा कर दी। जगजीवन राम के लिए ये दौर राजनीतिक अनिश्चितता का था।
इंदिरा गांधी ने 18 जनवरी 1977 को लोकसभा के विघटन की घोषणा कर दी और इसी के साथ 2 फरवरी 1977 को जगजीवन राम ने मंत्रिमंडल और कांग्रेस की प्राथमिक सदस्यता से इस्तीफा देकर 'कांग्रेस फार डेमोक्रेसी' पार्टी का गठन किया। जगजीवन राम ने अगला लोकसभा चुनाव जनता पार्टी के साथ मिलकर लड़ा और पूर्ण बहुमत पाकर सरकार बनाने में सफल भी हुए।
प्रधानमंत्री बनने से चुक गए
जगजीवन राम उस समय प्रधानमंत्री पद के प्रबल दावेदार थे, लेकिन चौधरी चरण सिंह और आचार्य जेबी कृपलानी ने मोरारजी देसाई का पक्ष लिया। इस कारण वे प्रधानमंत्री पद से वंचित हो गए, बाद में चौधरी चरण सिंह के प्रधानमंत्री बनने पर जगजीवन राम उप प्रधानमंत्री बने।
जनता पार्टी सरकार के ढाई साल के कार्यकाल में आपसी कलह पहले दिन से ही शुरू हो गई थी। कुछ लोगों का तब ये भी मानना था कि जगजीवन राम को प्रधानमंत्री बनाने से इस कलह को रोका जा सकता है, क्योंकि उनमें एक अनुभवी राजनीतिज्ञ और कुशल प्रशासक के गुण थे, दूरदर्शिता थी।
बाद में चौधरी चरण सिंह के प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देने पर उनके लिए एक बार फिर ऐसा मौका आया। जब कि राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी उन्हें सरकार बनाने का निमंत्रण दे सकते थे, पर तमाम संविधान विशेषज्ञों की राय के बावजूद उन्होंने ऐसा नहीं किया।
देश में दलित क्रांति के महानायक और उसके असली सूत्रधार तो बाबू जगजीवन राम ही थे। जिन्होंने विषम स्थितियों में दलित समाज के वास्तविक उत्थान के लिए धरातल पर कार्य किया और स्वर्ण समाज से अपना लोहा भी मनवाया।