रुह कंपा देंगी ठंड में खुले आसमानों तले गुजरती रातों की यह तस्वीरें, बता दो कहां हैं रैन बसेरे?

Update:2017-01-12 11:33 IST

फोटो: आशुतोष त्रिपाठी

लखनऊ: 'वो जिनके हाथ में हर वक्त छाले रहते हैं, आबाद उन्हीं के दम पर महल वाले रहते हैं।' यह लाइनें उन लोगों पर सटीक बैठती हैं, जो हाड़ कंपा देने वाली इस ठंड में खुद तो बड़े-बड़े बंगलों में अलाव तापते हैं, लेकिन जनता का क्या हाल है, इससे उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता है। वो दिन भर बेचारे इस उम्मीद में मेहनत करने में लगे रहते हैं कि शाम को उन्हें सरकार के लगाए हुए रैन बसेरों में तो पनाह मिल ही जाएगी। दिन कांपते हुए बीता तो क्या हुआ? रात में अलाव से हाथ सेंकने को मिल जाएगा। पर वह बेसहारा यह भूल जाता है कि जिला प्रशासन सिर्फ सपने दिखाता है, हकीकत से उसका वास्ता दूर-दूर तक नहीं है।

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फोटो: आशुतोष त्रिपाठी

जब एक गरीब यह सुनता है कि ठंड में उसे सरकार की तरफ से रैन बसेरे उपलब्ध करवाए जाएंगे, तो उसकी ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहता है, पर सच्चाई तो यह है कि रैन बसेरे की बात छोड़िए, इन बेबसों को एक कंबल और अलाव भी टाइम पर उपलब्ध नहीं करवाया जाता है।

जी हां, यह बड़ी-बड़ी कुर्सियों पर बैठने वाले वही बड़े लोग हैं जो सरकारी सुविधाओं के नाम पर गरीबों को एक कंबल भी नहीं टाइम पर उपलब्ध करवा पा रहे हैं। एक तरफ जहां शहर में मेट्रो से लेकर एक्सप्रेस वे की बड़ी-बड़ी बातें की जा रही हैं, शहर को स्मार्ट बनाने का प्लान जारी किया जा रहा है, वहीं दूसरी ओर इन गरीबों की गरीबी का शर्मनाक तरीके से मजाक भी उड़ाया जा रहा है। शहर में गिने-चुने 23 सरकारी रैन बसेरे हैं, वह कहां-कहां हैं, ये बेचारे रिक्शेवाले, मजदूरों और भिखारियों को पता भी नहीं है। हाल ही में हुए डालीबाग के हादसे के बाद जो रैन बसेरे लगे भी हुए थे, उन्हें हटवा दिया गया है।

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फोटो: आशुतोष त्रिपाठी

Newstrack.com के रिपोर्टर जब आधी रात को इन गरीबों का हाल देखने पहुंचे, तो उनकी आंखों में भी आंसू छलक आए। कोई अपने रिक्शे को ही अपना बसेरा बनाकर खुले आसमान के नीचे रात गुजारने को मजबूर था, तो कोई सड़कों के किनारे डिवाइडर को ही अपनी किस्मत मानकर सोने की जद्दोजहद में लगा हुआ था। जब उनसे पूछा गया कि आप रैन बसेरों में क्यों नहीं सोते, तो वो खुद ही पूछ बैठे- बाऊजी! आप ही बता दो, आखिर कहां हैं रैन बसेरे? भगवान आपका भला करेगा।

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फोटो: आशुतोष त्रिपाठी

डालीबाग में हुए हादसे के बाद से हजरतगंज, परिवर्तन चौक, डालीबाग और हनुमान सेतु जैसी जगहों पर मौजूद सभी रैन बसेरे हटा दिए। बेचारे गरीब मजदूर, रिक्शेवाले, ठेले वाले खुली आसमान के नीचे कंपकपाती ठंड में जिस तरह ठिठुर-ठिठुर कर रात गुजारते हैं, यह वही जानते हैं। हालत तो ऐसी इन गरीबों की हो गई है कि जानवर और इनमें कोई फर्क ही नहीं रह गया है। सोते हुए कब इनके साथ सड़क वाले कुत्ते आकर सो जाएं, इन बेसहारों को नहीं पता है। ऐसे में सरकार को कोई चिंता नहीं है कि शहर में बेचारे गरीब किस तरह से अपनी रातें गुजार रहे हैं?

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फोटो: आशुतोष त्रिपाठी

सुविधाओं के नाम पर बड़े-बड़े वादे करने वाले जिला प्रशासन की हकीकत तो यह है कि यह गरीबों के लिए कंबल तो क्या सिर ढकने के लिए सही से रैन-बसेरा भी उपलब्ध करवा पा रही है। गैर सरकारी संस्थाओं ने जो इन बेसहाराओं को सहारा देने के लिए रैन बसेरे लगवाए थे, उनको भी हटवा दिया गया है। लेकिन उनके एवज में अभी कोई व्यवस्था नहीं शुरू की गई है। ऐसे में बेचारे गरीब क्या करेंगे? कहां जाएंगे? ठंड गुजरती जा रही है, अब तो कम समय के लिए बची है, लेकिन जिला प्रशासन अभी भी नहीं जागा है। इन बेबस लोगों की हालत देखकर लगता है कि असली ठंड तो सरकारी सुविधाओं को लग गई है। सरकारी सुविधाओं के अभाव में कब तक ये मासूम, गरीब, ठेले वाले मजदूर यूं ही खुले आसमान के नीचे सिकुड़-सिकुड़ कर अपनी सर्द रातें बिताएंगे?

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फोटो: आशुतोष त्रिपाठी

वहीं लखनऊ में रैन बसेरों के बारे में डीएम सत्येन्द्र सिंह का कहना है कि इस टाइम लखनऊ में कुल 23 रैन बसेरे हैं, जिनमें गरीबों के ठहरने की व्यवस्था की गई है। पर जब उनसे यह पूछा गया कि इन रैन बसेरों में लोग जाते क्यों नहीं, तो वह बोले कि ज्यादा दूर स्थित होने के कारण लोग कम जाते हैं। उनका कहना है कि वैसे तो सरकार की तरफ से नगर निगम को और रैन बसेरे लगवाए जाने के डायरेक्शंस दे दिए गए हैं, पर अगर कोई कम्युनिटी सेंटर या संस्था इन गरीबों के लिए रैन बसेरे लगवाना चाहती भी है, तो उसके लिए उसे परमीशन लेनी होगी।

उनका कहना है कि रैन बैरे लगाने ही हैं, तो सड़क से अलग हटकर लगवाएं, पर सवाल तो यह है कि अगर संस्थाएं ही यह सब काम करेंगी, तो यह सरकार किसकी सेवा के लिए है? क्या जिला प्रशासन को नहीं चाहिए कि वह मुसाफिरों के लिए रैन बसेरों की व्यवस्था करे? इन गरीबों के लिए हाड़ कंपाने वाली ठंड में अलाव और कंबल की सुविधाएं उपलब्ध करवाए।

इन तस्वीरों ने सरकारी व्यवस्थाओं की पोल खोल कर रख दी है। सोचने की बात यह है कि अगर उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ की ही हालत ऐसी है, तो बाकी जगहों पर कैसा होगा?

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फोटो: आशुतोष त्रिपाठी

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फोटो: आशुतोष त्रिपाठी

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फोटो: आशुतोष त्रिपाठी

दूर-दूर तक नहीं हैं रैन बसेरे

 

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