जन्मदिन स्पेशल दलाई लामा: किसान के घर में हुआ था जन्म, ऐसे बने तिब्बतियों के 14 वें धर्म गुरु
नई दिल्ली: तिब्बती धर्मगुरु दलाई लामा का आज जन्मदिन है। उनका असली नाम 'तेनजिन ग्यात्सो' है। वह किसान के घर पैदा हुए थे। आप यह जानकर हैरान हो जाएंगे कि शांति का नोबेल पुरस्कार जीतने वाले दलाई लामा 62 में चीन और भारत के बीच हुई जंग की वजह में से ही एक वजह थे। चीन उन्हें एक अलगाव नेता मानता है।
newstrack.com आज आपको दलाई लामा की अनटोल्ड स्टोरी के बारे में बता रहां हैं।
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किसान के घर में हुआ था जन्म
तिब्बतियों के अनुसार वर्तमान दलाई लामा 14वें लामा हैं। उनका जन्म नार्थ तिब्बत के आमदो स्थित एक गांव जिसे तकछेर कहते हैं, वहां पर छह जुलाई 1935 को एक किसान के घर में हुए थे। जब उनकी उम्र सिर्फ दो साल की थी तब उन्हें 13वें दलाई लामा थुबतेन ग्यात्सो का अवतार माना गया और बाद में इस बच्चे को 14वां दलाई लामा घोषित किया गया।
संस्कृत के अलावा इन विषयों की ली शिक्षा
संस्कृत की भी शिक्षा छह वर्ष की उम्र से दलाई लामा को मठ की शिक्षा दी जाने लगी। उनकी शुरुआती शिक्षा में पांच बड़े और पांच छोटे विषय थे। जो बड़े विषय थे उनमें तर्क विज्ञान, तिब्बत की कला और संस्कृति, संस्कृत, मेडिसिन और बौद्ध धर्म के दर्शन की शिक्षा शामिल थी। दर्शन की शिक्षा को भी पांच हिस्सों में बांटा गया था। इसके अलावा उन्हें काव्य, संगीत, ड्रामा, ज्योतिष और ऐसे विषयों की शिक्षा भी दी गई थी। वर्ष 1959 में जब दलाई लामा 23 वर्ष के थे तो उन्होंने ल्हासा में अपने फाइनल एग्जाम दिए और इस एग्जाम को उन्होंने ऑनर्स के साथ पास किया।
ऐसे चुने जाते है लामा
किसी तिब्बती बौद्ध धर्मगुरु की मौत के बाद उत्तराधिकारी की खोज की जाती है। ये पूरी प्रोसेस काफी पेचीदा होती है। उत्तराधिकारी का चुनाव वंश परंपरा या वोट के बजाय पुनर्जन्म के आधार पर तय होता है। कुछ मामलों में धर्मगुरु अपने ‘अवतार’ संबंधी कुछ संकेत छोड़ जाते हैं। धर्मगुरु की मौत के बाद इन संकेतों की मदद से ऐसे बच्चों की लिस्ट बनाई जाती है, जो धर्मगुरु के अवतार जैसे हों। इसमें सबसे ज्यादा जिस बात का ध्यान रखा जाता है। वो है ऐसे बच्चों की लिस्ट बनाना जो धर्मगुरु की मौत के 9 महीने बाद पैदा हुए हों। 1959 में तिब्बत पर चीनी अधिकार से पहले सभी अवतार आस पास के देशों में मिल जाते थे। पर अब लामा की खोज दुनियाभर में की जाने लगी है।
ऐसे बने तिब्बतियों के 14 वे धर्म गुरु
1933 में 13वें दलाई लामा की मौत हुई थी। इसके बाद नए दलाई लामा की खोज शुरू हुई। खोज के वक्त ये पाया गया कि मृत लामा का शरीर दक्षिण दिशा से मुड़कर कुछ ही दिन में पूर्व दिशा की ओर आ गया। बताया जाता है कि जिस दिशा में शव आया, उस दिशा में अजीब किस्म के बादल देखे गए और वहीं बने महल के खंबे पर तारे की शेप वाली फंफूद भी उग आई। इस खोजी अभियान के कार्यवाहक राजाध्यक्ष ने कई दिन के ध्यान और पूजा के बाद पवित्र झील में ‘अ, क, म’ अक्षरों की आकृतियां, हरे गोमेज और सुनहरी छत वाला एक मठ और मूंगिया रंग की एक छत वाला घर देखा। इसके साल भर बाद ल्हासा से गए खोजी दल ने पूर्व के आम्ददो प्रांत में एक ऐसी ही छत वाले कुंबुंभ मठ के पास मूंगिया छत वाले घर में रहने वाले एक किसान के बच्चे को खोज लिया। उसका नाम तेनजिन ग्यात्सो था। इस बच्चे ने 13वें दलाई लामा के कई सहयोगियों, मालाओं, छड़ी और दूसरी चीजों को आसानी से पहचान लिया। यही बच्चा आज 14वें दलाई लामा है।
दलाई लामा को अलगाववादी मानता है चीन
चीन दलाई लामा को एक अलगाववादी नेता मानते हुए उन्हें देश के लिए खतरा बताता है। वह हमेशा दूसरे देशों पर 'वन चाइना पॉलिसी' के तहत दलाई लामा का स्वागत न करने का दबाव डालता है। जब चीन ने तिब्बत पर हमला कर दिया तो उसके बाद दलाई लामा ने संयुक्त राष्ट्रसंघ में गुहार लगाई। उनकी अपील पर संयुक्त राष्ट्रसंघ की ओर से तिब्बत पर वर्ष 1959, 1969 और 1965 में तीन प्रस्ताव पास किए गए। वर्ष 1963 में दलाई लामा ने तिब्बत का नया संविधान पेश किया। इस संविधान के बाद तिब्बत के सुधार और उसकी लोकतांत्रिक व्यवस्था को मजबूत बनाने के लिए यहां पर कई बदलाव किए गए जिसमें तिब्बत के लोगों के लिए अभिव्यक्ति की आजादी का नियम भी आया।
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तिब्बत सरकार को दे दी थी राजनीतिक शक्तियां
तिब्बत के राष्ट्राध्यक्ष 14वें दलाई लामा के रूप में वह 29 मई 2011 तक तिब्बत के राष्ट्राध्यक्ष रहे थे। इस दिन उन्होंने अपनी सारी शक्तियां तिब्बत की सरकार को दे दी थीं और आज वह सिर्फ तिब्बती धर्मगुरु हैं। वर्ष 1949 में चीन ने तिब्बत पर हमला किया और इस हमले के एक वर्ष बाद यानी वर्ष 1950 में दलाई लामा से तिब्बत की राजनीतिक विरासत को संभालने के लिए अनुरोध किया गया।
अरुणाचल से दलाई लामा का रिश्ता
मार्च 1959 में जब दलाई लामा जब चीनी सेना से बचकर भारत में दाखिल हुए तो वह सबसे पहले अरुणाचल प्रदेश के तवांग पहुंचे। यहां से वह 18 अप्रैल को असम के तेजपुर पहुंचे। वर्ष 2003 में दलाई लामा ने बयान दिया और कहा कि तवांग असल में तिब्बत का हिस्सा है। वर्ष 2008 में उन्होंने अपनी स्थिति बदल ली। मैकमोहन रेखा पहचानते हुए उन्होंने तवांग को भारत का हिस्सा बताया।
ऐसे शुरू हुआ तिब्बत के लिए संघर्ष
चीन तिब्बत को अपना हिस्सा मानता है। वर्ष 1954 में दलाई लामा चीन के माओ जेडॉन्ग और दूसरे चीनी नेताओं के साथ शांति वार्ता के लिए बीजिंग गए। इस ग्रुप में चीन के प्रभावी नेता डेंग जियोपिंग और चाउ एन लाइ भी शामिल थे। वर्ष 1959 में चीन की सेना ने ल्हासा में तिब्बत के लिए जारी संघर्ष को कुचल दिया। तब से ही दलाई लामा हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला में निर्वासित जिंदगी बिता रहे हैं। धर्मशाला आज तिब्बती की राजनीति का सक्रिय केंद्र बन गया है।
चीन के साथ 62 की लड़ाई
दलाई लामा मार्च 1959 में जब दलाई लामा भारत आए तो उनका जोरादार स्वागत हुआ और इस स्वागत से चीन के शीर्ष नेता माओ जेडॉन्ग को काफी नाराजगी थी। जब माओ ने बयान दिया कि ल्हासा में विद्रोह की वजह भारत है तो चीन और भारत के बीच तनाव एक नए स्तर पर पहुंच गया।
भारत ने दिया तिब्बत मुद्दे में हस्तक्षेप का प्रस्ताव
जब चीन ने वर्ष 1959 में इस बात का ऐलान किया था कि वह तिब्बत पर कब्जा करेगा तो भारत की ओर से एक चिट्ठी भेजी गई थी। भारत ने चीन को तिब्बत मुद्दे में हस्तक्षेप का प्रस्ताव दिया था। चीन उस समय मानता था कि तिब्बत में उसके शासन के लिए भारत सबसे बड़ा खतरा बन गया है। वर्ष 1962 में चीन और भारत के बीच युद्ध की यह एक अहम वजह थी।
शांति के लिए मिला नोबेल पुरस्कार
दलाई लामा को वर्ष 1989 में शांति के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। अब तक दलाई लामा 62 से भी ज्यादा देशों की यात्रा कर चुके हैं और कई देशों के राष्ट्राध्यक्षों से भी मुलाकात कर चुके हैं। उन्हें वर्ष 1959 से लेकर अब तक 84 से भी ज्यादा सम्मान से नवाजा जा चुका है। उन्होंने 72 से भी ज्यादा किताबें लिखी हैं।