Jigar Moradabadi death anniversary: कभी रेलवे स्टेशनों पर बेचा करते थे चश्मा, जाने कैसे बने जिगर मुरादाबादी मशहूर शायर
Jigar Moradabadi death anniversary: मशहूर शायर जिगर मुरादाबादी सच्चे देश भक्त और अपने वतन से बेपनाह मोहब्बत करते थे
Jigar Moradabadi death anniversary: 'उन का जो फ़र्ज़ है वो अहल-ए-सियासत जाने, मेरा पैग़ाम मुहब्बत है जहां तक पहुंचे' इन पंक्तियों के माध्यम से हालात की उथल-पुथल, सियासी उतार-चढ़ाव और नफ़रतों के बीच भी प्यार बांटने को अपना कर्तव्य समझने वाले मशहूर शायर जिगर मुरादाबादी सच्चे देश भक्त और अपने वतन से बेपनाह मोहब्बत करते थे। इसीलिए तमाम दुश्वारियों से लड़ने का फैसला लेते हुए उन्होंने देश की मिट्टी में ही मिल जाने की कसम खाई। कई रियासतों ने उन्हें अपने दरबार से सम्बद्ध करना चाहा लेकिन उन्होंने इसे स्वीकार नहीं किया।
जब पाकिस्तान में ऐश-ओ-आराम की ज़िंदगी का वास्ता दिया गया तो उन्होंने साफ़ कह दिया 'जहां पैदा हुआ हूं वहीं मरुंगा'। शायद यही वजह थी, जब एक बार पाकिस्तान में एक आदमी जो उप्र के मुरादाबाद का ही था उनसे मिलने आया और हिन्दुस्तान की बुराई करने लगा तो जिगर को ग़ुस्सा आ गया और बोले, "नमक हराम तो बहुत देखे, आज वतन हराम भी देख लिया।" वैसे तो जिगर देश और प्रदेश के तमाम स्थानों पर घूमे और नामचीन हस्तियों को अपना गुरु बनाया लेकिन उनके कलाम में गम्भीरता, उच्चता और स्थायित्व गोंडा जिले के तबके मशहूर शायर असगर गोंडवी की संगति के प्रभाव से आया।
प्रारंभिक जीवन एवं शिक्षा
जिगर का जन्म 06 अप्रैल 1890 को शायर पिता मौलाना अली 'नज़र' के घर मुरादाबाद में हुआ। शुरुआती शिक्षा(Education) तो उन्होने प्राप्त कर ली लेकिन घोर अस्वस्थता के साथ-साथ कुछ घरेलू परेशानियों के कारण उन्होने आगे की पढ़ाई नहीं की। वैसे भी किताबी पढ़ाई को शायरी के लिए वे नुकसानदेह समझते थे। हालांकि अपने व्यक्तिगत शौक़ के कारण उन्होंने घर पर ही फ़ारसी की पढ़ाई पूरी की। इस समय तक उनका नाम अली सिकंदर था। उनके पूर्वज मौलवी मुहम्मद समीअ़ दिल्ली निवासी थे और शाहजहां बादशाह के शिक्षक थे। किसी कारण से बादशाह के कोप-भाजन बन गए। अतः वे दिल्ली छोड़कर मुरादाबाद जा बसे थे। 'जिगर' के दादा हाफ़िज़ मुहम्मदनूर 'नूर' भी शायर थे। जिगर की आरम्भिक शिक्षा घर पर और फिर मकतब में हुई। प्राच्य शिक्षा की प्राप्ति के बाद अंग्रेज़ी शिक्षा के लिए उन्हें चाचा के पास लखनऊ भेज दिया गया, जहां उन्होंने नौवीं जमाअत तक शिक्षा प्राप्त की। उनको अंग्रेज़ी शिक्षा में कोई दिलचस्पी नहीं थी और नौवीं कक्षा में दो साल फ़ेल हुए थे। इसी बीच उनके वालिद का भी देहांत हो गया था और जिगर को वापस मुरादाबाद आना पड़ा।
बचपन में हो गया शायरी, इश्क का शौक
जिगर को बचपन में स्कूल के दिनों से ही शायरी का शौक़ पैदा हो गया था, लेकिन विद्यार्थी जीवन में वह उसे अवाम के सामने नहीं लाए। शिक्षा छोड़ने के बाद उनके चाचा ने उन्हें मुरादाबाद में ही किसी विभाग में नौकरी दिला दी थी और उनके घर के पास ही उनके चचा के एक तहसीलदार दोस्त रहते थे, जिन्होंने एक तवाएफ़ से शादी कर रखी थी। जिगर का उनके यहां आना जाना था। उस वक़्त जिगर की उम्र 15-16 साल थी और उसी उम्र में तहसीलदार की पत्नी से इश्क़ करने लगे और उन्हें एक मुहब्बतनामा थमा दिया, जो उन्होंने तहसीलदार साहिब के हवाले कर दिया और तहसीलदार ने वह पत्र जिगर के चाचा को भेज दिया। चाचा को जब उनकी हरकत की ख़बर मिली तो उन्होंने जिगर को लिखा कि वो उनके पास पहुंच रहे हैं। घबराहट में जिगर ने बड़ी मात्रा में भांग खा ली। बड़ी मुश्किल से उनकी जान बचाई गई, जिसके बाद वो मुरादाबाद से फ़रार हो गए और कभी चाचा को शक्ल नहीं दिखाई। कुछ ही समय बाद चाचा का इंतक़ाल हो गया था। मुरादाबाद से भाग कर जिगर आगरा पहुंचे और वहां एक चश्मा बनाने वाली कंपनी के विक्रय एजेंट बन गए। शराब की लत उन्हें विद्यार्थी जीवन ही में लग चुकी थी। नतीजन उन दौरों में शायरी और शराब उनकी हमसफ़र रहती थी। आगरा में उन्होंने वहीदन नाम की एक लड़की से शादी कर ली थी। जिगर के यहां वहीदन के एक रिश्ते के भाई का आना-जाना था और हालात कुछ ऐसे बने कि जिगर को वहीदन के चाल चलन पर शक पैदा हुआ और बात इतनी बढ़ी कि वो घर छोड़कर चले गए।
रेलवे स्टेशनों पर बेचते थे चश्मा
जिगर मुरादाबादी की गणना आज भी उर्दू के चोटी के शायरों में की जाती है। शायर बनने से पहले जिगर मुरादाबादी चश्मे की फर्म एसएम आकिल एण्ड संस में सेल्समैन थे। यह दुकान आकिल साहब की पत्नी की देखरेख में चलती थी। जिगर रेलवे स्टेशनों पर घूम-घूमकर चश्मा बेचा करते थे। कहा जाता है कि मैडम की कोई बात जिगर को पसंद नहीं आई और उन्होंने काम छोड़ दिया। वह बहुत ख़ुद्दार इंसान थे और बड़ी से बड़ी परेशानी की किसी को भनक भी नहीं लगने देते थे। मुंबई के एक मुशायरे में वह इसलिए शामिल नहीं हुए क्योंकि प्रसिद्ध अभिनेता दिलीप कुमार उन्हें 10 हजार रुपए सहायता के तौर पर देने वाले थे। हालांकि वह बहुत तंगहाली में जीवन गुज़ार रहे थे लेकिन उनकी ख़ुद्दारी ने यह गंवारा न किया। तेरह-चौदह वर्ष की आयु में उन्होंने शायरी पढ़ना शुरू कर दिया था। उन्होंने विविध विषयों पर लिखा और उनकी रचनायें सादगी से अपूर्व होते हुए भी गहराई से भरपूर होती थीं।
असगर गोंडवी की संगति से बदला जीवन
मात्र 14 वर्ष की आयु में शायर बने अली सिकंदर से जिगर मुरादाबादी हो जाने तक की यात्रा उनके लिए सहज और सरल नहीं रही थी। हालांकि शायरी उन्हें विरासत में मिली थी। लेकिन शिक्षा बहुत साधारण और वे अंग्रेज़ी से बस वाकिफ़ भर थे। जिगर साहब का शेर पढ़ने का ढंग कुछ ऐसा था कि उस समय के युवा शायर उनके जैसे शेर कहने और उन्हीं के अंदाज़ को अपनाने की कोशिश किया करते थे। उनके पढ़ने का ढंग इतना दिलकश और मोहक था कि सैकड़ों शायर उसकी नकल करने का प्रयत्न करते थे। अंग्रेजी बस नाममात्र को जानते थे। शक्ल सूरत भी बहुत साधारण थी लेकिन ये सब कमियां अच्छे शेर कहने की योग्यता तले दबकर रह गयीं। पहले वह अपनी रचना में पिता से सुधार करा लेते थे, फिर "दाग" देहलवी, मुंशी अमीरुल्ला "तस्लीम" और "रसा" रामपुरी को अपनी गजलें दिखाते रहे। लेकिन खानाबदोष की तरह बेघर-बार और बिना किसी दोस्त, मददगार जिगर की नई मानसिक और भावनात्मक पीड़ा का समाधान उनकी जिगरी दोस्ती बनी शराब भी नहीं कर पा रही थी। इसी दौर में वह घूमते-घूमते गोंडा पहुंचे जहां उनकी मुलाक़ात असग़र गोंडवी से हुई। असग़र ने उनकी सलाहियतों को भांप लिया, उनको संभाला, दिलासा दिया और अपनी साली नसीम से उनका निकाह करा दिया। इस तरह जिगर उनके घर के एक सदस्य बन गए। मगर सफ़र, शायरी और मदिरापान ने जिगर को इस तरह जकड़ रखा था कि शादीशुदा ज़िंदगी की बेड़ी भी उनको बांध कर नहीं रख सकी। जगह जगह सफ़र की वजह से जिगर का परिचय विभिन्न जगहों पर एक शायर के रूप में हो चुका था। शायरी की तरक्क़ी की मंज़िलों में भी जिगर इस तरह के अच्छे शेर कह लेते थे-
"हाँ ठेस न लग जाये ऐ दर्द-ए-ग़म-ए-फुर्क़त
दिल आईना-ख़ाना है आईना जमालों का"
असग़र' की संगत के कारण उनके जीवन में बहुत बडा़ परिवर्तन आया। पहले उनके यहां हल्के और आम कलाम की भरमार थी। अब उनके कलाम में गम्भीरता, उच्चता और स्थायित्व आ गया। जिगर की शायरी में सूफियाना अंदाज भी "असगर" गोंडवी की संगति से ही आया। हालांकि जिगर शायरी में नैतिकता की शिक्षा नहीं देते लेकिन उनकी शायरी का नैतिक स्तर बहुत ऊंचा है। शराब पीने की लत उन्हें बुरी तरह लग गयी थी लेकिन यहीं उन्होंने इससे तौबा कर ली और मरते दम तक हाथ न लगाया। लेकिन इस कारण वे बीमार भी बहुत हुए तब उन्होंने सिगरेट पीनी शुरू की। फिर उसे भी छोड़ दिया और ताश खेलने में मन लगाया। उनकी सर्वाधिक प्रशंसित कविता संग्रह "आतिश-ए-गुल" के लिए उन्हें साल 1958 में साहित्य अकादमी पुरस्कार प्रदान किया गया।
वतन से थी बेपनाह मोहब्बत
जिगर मुरादाबादी के पिता, दादा और परदादा भी शायर थे। शायरी उन्हे विरासत में मिली थी। उन्होंने जब आंख खोली तो आज़ादी की लड़ाई अपने चरम पर थी। उस वक्त शायरी में बग़ावत के इंकलाबी सुर उभर रहे थे। जिगर भी इससे प्रभावित हुए बग़ैर न रह सके। वे सच्चे देशभक्त थे और अपने वतन से बेपनाह मोहब्बत करते थे। इसीलिए तमाम दुश्वारियों से लड़ने का फैसला लेते हुए उन्होंने देश की मिट्टी में ही मिल जाने की कसम खाई। कई रियासतों के प्रमुख उनको अपने दरबार से सम्बद्ध करना चाहते थे और उनकी शर्तों को मानने को तैयार थे लेकिन उन्होंने इस पेशकश को स्वीकार नहीं किया। जब पाकिस्तान में ऐश-ओ-आराम की ज़िंदगी का वास्ता दिया गया तो उन्होंने साफ़ कह दिया 'जहां पैदा हुआ हूं वहीं मरुंगा'। गोपी नाथ अमन से उनके बहुत पुराने सम्बन्ध थे। जब वे रियासत के वज़ीर बन गए और एक मुशायरे की महफ़िल में उनको शिरकत की दावत दी तो जिगर सिर्फ़ इसलिए शामिल नहीं हुए कि निमंत्रण पत्र मंत्रालय के लेटर हेड पर भेजा गया था। एक बार पाकिस्तान में एक आदमी जो उप्र के मुरादाबाद का ही था उनसे मिलने आया और हिन्दुस्तान की बुराई करने लगा तो जिगर को ग़ुस्सा आ गया और बोले, "नमक हराम तो बहुत देखे, आज वतन हराम भी देख लिया।" एक बार लखनऊ के वार फ़ंड के मुशायरे में जिसकी सदारत एक अंग्रेज़ गवर्नर कर रहा था, उन्होंने अपनी नज़्म "क़हत-ए-बंगाल" पढ़ कर सनसनी मचा दी थी। वतनपरस्ती की गूंज उनकी शायरी में सुनाई देती है। उन्होंने इस दौर में भी मुहब्बत को सिवा रखा और ग़ज़ल को नई बुलंदी प्रदान की। वह देश वासियों को संदेश देते हैं-
यह सुनता हूं कि प्यासी है बहुत खाक-ए-वतन साकी,
खुदा हाफिज़ चला मैं बांध कर दार-व-रसन साकी।
सलामत तू तेरा मेहखाना, तेरी अंजुमन साकी,
मुझे करनी है अब कुछ खि़दमत दार-व-रसन साकी।
हुश्न और इश्क के शायर जिगर
हुश्न व इश्क का जिक्र आते ही जिगर मुरादाबादी का नाम बेसाख्ता ज़बान पर आ जाता है। ताउम्र मोहब्बत में महरुमी और मायूसी का सामना करने वाले जिगर की शायरी में ये एहसास शिद्दत से बयां होतें हैं-
हम इश्क के मारों का इतना ही फ़साना है,
रोने को नहीं कोई हंसने को ज़माना है।
इश्क़ में आशिक़ का हाल कैसा हो जाता है ये तो सारा ज़माना जानता है, लेकिन जिगर इसे अपने अंदाज़ में बयां करते हैं-
इब्तिदा वो थी कि जीना था मुहब्बत में मुहाल,
इंतिहा ये है कि अब मरना भी मुश्किल हो गया।
मुहब्बत में एक ऐसा वक़्त भी दिल पर गुज़रता है,
कि आंसू ख़ुश्क हो जाते हैं तुगयानी नहीं जाती।
जिगर की शायरी से पता चलता है कि मुहब्बत में एक वक्त ऐसा भी आता है-
मोहब्बत में ये क्या मक़ाम आ रहे हैं,
कि मंजिल पे हैं और चले जा रहे हैं।
ये कह कह के दिल को बहला रहे हैं,
वो अब चल चुके हैं वो अब आ रहे हैं।
जिगर की यादें संजोए है गोंडा शहर
मात्र 14 वर्ष की आयु में शायर बन गए जिगर मुरादाबादी आखि़री समय में बहुत धार्मिक हो गए थे। लेकिन मजहबी कट्टरता से हमेशा दूर रहे। साल 1953 में उन्होंने हज किया। ज़िंदगी की लापरवाहियों ने उनके दिल दिमाग़ को तबाह कर दिया था। साल 1941 में ही एक बार उनको दिल का दौरा पड़ा। इसके बाद उनका वज़न घट कर सिर्फ़ 100 पौंड रह गया था। 1958 में उन्हें दिल और दिमाग़ पर क़ाबू नहीं रह गया था। लखनऊ में उन्हें दो बार पुनः दिल का दौरा पड़ा और आक्सीजन पर रखे गए। नींद की दवाओं के बावजूद रात रात-भर नींद नहीं आती थी। वर्ष 1960 के शुरुआत में ही उनको अपनी मौत का यक़ीन हो गया था और लोगों को अपनी चीज़ें बतौर यादगार देने लगे थे। आखिरकार जिगर मुरादाबदी का निधन गोंडा में 09 सितम्बर 1960 को 70 वर्ष की आयु में हो गया। उनके निधन के बाद गोंडा शहर में एक आवासीय कालोनी का नाम उनकी स्मृति में जिगरगंज रखा गया, जो उनके घर के काफी करीब था। साथ ही यहां के एक इण्टर कालेज का नाम भी उनके नाम पर "जिगर मेमोरियल इंटर कालेज" रखा गया है। तोपखाना मोहल्ले में स्थित जिगर मुरदाबादी मज़ार आज भी उनके चहेतों और साहित्य प्रेमियों के लिए किसी तीर्थ से कम नहीं है। साहित्य प्रेमी और नगर पालिका के पूर्व चेयरमैन कमरुद्दीन एडवोकेट बताते हैं कि जिगर साहब की समृतियों को अक्षुण्ण रखने के लिए उनके मजार का रंग रोगन, परिसर की साफ सफाई और देखरेख का पूरा ध्यान रखा जाता है।