योगेश मिश्र/अंशुमान तिवारी
लखनऊ: सैन्य विज्ञान का सिद्धांत है कि लड़ाई किसी एक मोर्चे पर ही लड़ी जानी चाहिए। यही जीत का अचूक फार्मूला भी है, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सैन्य विज्ञान के इस सिद्धांत को धता बताते हुए कई मोर्चे खोल विजय पताका फहराने वाले सैनिकों में माने जाते हैं। इसकी मिसाल उन्होंने गुजरात और 2014 के लोकसभा चुनाव में पेश भी की है। लेकिन जैसे-जैसे नए लोकसभा चुनाव नजदीक आते जा रहे हैं वैसे वैसे नरेंद्र मोदी के सामने के दूसरे सारे फ्रंट खुद ब खुद एक-एक करके इस कदर धराशायी हो रहे थे कि पूरी लड़ाई मोदी बनाम मोदी में सिमट गई थी। एक वह मोदी जो 2014 में उम्मीदों के उफान पर सवार होकर प्रधानमंत्री बने थे। दूसरे वह मोदी जिन्हें बीते पांच साल पहले जगाई गई अपनी उम्मीदों को पूरा करने की कसौटी पर खरा उतरना था।
ऐसे में लग रहा था कि कई फ्रंट पर लडक़र जीतने वाले मोदी की पराजय एक फ्रंट पर लडऩे की वजह से तय है। लेकिन इसी बीच पूरे लोकसभा चुनाव को मोदी बनाम अन्य बनाने की कोशिश में जुटे विपक्ष की एकजुटता ने लोकसभा चुनाव के मुद्दे और चौसर ही बदलकर रख दिये। वह भी इस कदर बदले कि मोदी को कई कमजोर फ्रंट हाथ लग गए।
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मोदी बनाम अन्य की लड़ाई में ममता बनर्जी की अगुवाई में 22 दलों के नेताओं ने कोलकाता में एकजुटता का जो प्रदर्शन किया उससे यह संदेश गया कि मोदी को प्रधानमंत्री बनने से रोकने के लिए बुनी गई एकजुटता लोकतंत्र अथवा धर्मनिरपेक्षता के लिए नहीं बल्कि अपने स्वार्थ के लिए है। जो भी नेता मंच पर दिखे उनके खिलाफ केंद्रीय एजेंसियां या तो उनके किये धरे की पड़ताल में जुटी हैं अथवा वे लोग दिखे जिनकी राजनीतिक प्रासंगिकता चुक सी गई है। मोदी विरोध ही उन्हें प्रासंगिक बनाता दिख रहा है।
घोटालों पर पर्दा डालने की जुगत
ममता की रैली में राहुल गांधी और मायावती को छोडक़र विपक्ष का तकरीबन हर नेता मौजूद दिखा। राहुल और मायावती ने अपने प्रतिनिधि भेजे थे। सबने मिलकर मोदी को उखाड़ फेंकने का आह्वान किया। ऐसे में इस मुद्दे पर विचार करना जरूरी है कि आखिर किस कारण से एक-दूसरे की मुखालफत करने वाले भी एक मंच पर आकर मोदी का विरोध करने लगे।
उधर, इस रण में मोदी के साथ खड़े होने वाले दोस्त लगातार कम होते जा रहे हैं, गठबंधन की ताकत घटती जा रही है। विपक्षी एकता के पीछे का सच यह बताता है कि नेता मोदी हराओ के मार्फत अपने पापों पर पर्दा डालने की जुगत में अधिक दिखते हैं, क्योंकि बिना किसी कॉमन मिनिमम प्रोग्राम अथवा एजेंडे के, धुर विरोधी दल एक-दूसरे के हाथों में हाथ डाले दिखते हैं। सपा और बसपा का उत्तर प्रदेश में एका इसकी सबसे बेहतरीन नजीर है। इन दोनों दलों के नेताओं के आसपास केंद्रीय जांच एजेंसियों का घेरा साफ तौर पर देखा जा सकता है। एनआरएचएम जो अब एनएचएम हो गया है, उसके घोटाले की पोल पूरी तरह खुली नहीं है। सीबीआई जांच जारी है। आय से अधिक संपत्ति के मामले में मायावती और अखिलेश यादव दोनों की पेशानी पर एक समय बल पड़ते देखा गया है।
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अवैध खनन और रिवर फ्रंट मामले के जांच की आंच अखिलेश यादव तक पहुंचेगी, यह आम तौर पर जेरे बहस है। मायावती के कार्यकाल के स्मारक घोटाले में भी प्रवर्तन निदेशालय ने बीते दिनों छापेमारी की है।
पिछले लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी के उभार ने सपा और बसपा दोनों को उनके अब तक के सबसे कमजोर प्रदर्शन पर लाकर छोड़ दिया था। कभी छत्तीस सांसदों की पार्टी रही सपा पांच सांसदों तक सिमट गई, वह भी एक ही परिवार के थे। कभी 26-28 सीटें जीतने वाली राजनीति के चमत्कार का तमगा हासिल करने वाली मायावती की पार्टी तो शून्य पर सिमट गई। कभी सूबे की सभी सीटें जीतने वाली कांग्रेस दो सीटों पर सिमट गई और वह भी मां-बेटे तक। अमेठी और रायबरेली को छोड़ कांग्रेस के सभी किले ध्वस्त हो गए। सपा और बसपा के किलों का तो अंदाज ही नहीं लगा।
चिटफंड घोटाले के घेरे में ममता
विपक्षी एकता की धुरी ममता बनर्जी चिटफंड घोटाले की सुनामी में फंसी हुई हैं। उनकी पार्टी में आए कई पत्रकार और राजनेता इस मामले में सीबीआई और प्रवर्तन निदेशालय के चक्कर लगाते थक से गए हैं। सीबीआई की कार्रवाई से आजिज आकर सांसद और कभी ममता के दाहिने हाथ रहे मुकुल राय ने जहां दलबदल कर लिया वहीं राज्यसभा सदस्य सृंजय बसु ने तो राजनीति को ही अलविदा कह दिया। आनंद बाजार समूह के अलावा टाइम्स समूह के बांग्ला दैनिक के संपादक रहे सुमन भट्टाचार्य और एक अन्य संपादक कुणाल घोष को जेल की सजा काटनी पड़ी। राज्य सभा सांसद केडी सिंह के खिलाफ भी ईडी ने कार्रवाई तेज कर दी है। सुप्रीम कोर्ट में दायर एक जनहित याचिका के आधार पर बंगाल में चिटफंड घोटाले की जांच सीबीआई को सौंपी गई थी। वहां सक्रिय 64 चिटफंड कंपनियों ने जनता की जेब के दस लाख करोड़ रुपए गटक लिए थे। रोजवैली चिटफंड घोटाले में सांसद सुदीप बनर्जी और तापस पॉल जेल गए। नारदा स्टिंग ने भी तृणमूल को कठघरे में खड़ा किया। इस मामले की जांच भी सीबीआई कर रही है।
कुमारस्वामी व चंद्रबाबू भी हैं घेरे में
कर्नाटक के मुख्यमंत्री एचडी कुमारस्वामी की 2014 में एक आडियो सीडी सामने आई जिसमें वह जेडीएस नेता से एमएलसी बनाए जाने के लिए 40 करोड़ रुपये मांगते हुए सुने गए। इससे पहले 2006 में उन पर 150 करोड़ रुपये घूस मांगने का आरोप लगा था। हालांकि यह उस समय की बात है जब राज्य में जेडीएस और बीजेपी की सरकार थी।
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आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू का नाम पोलावरम बांध परियोजना में घोटाला, नई राजधानी निर्माण में गड़बडिय़ों और कैश फॉर वोट मामले में कठघरे में है। नवंबर 2018 में ईडी ने नायडू के करीबी सांसद वाई.एस.चौधरी की कंपनियों पर 5700 करोड़ रुपये के कथित बैंक लोन फ्राड के मामले में छापेमारी की थी। जेरुसलम मथाई नाम के व्यक्ति ने सुप्रीम कोर्ट मे याचिका दायर कर कैश फार वोट की सीबीआई जांच की मांग कर रखी है। मथाई के मुताबिक 2015 के विधानपरिषद चुनाव में पांच विधायकों को खरीदने के लिए पांच करोड़ रुपए और मथाई को कमीशन के तौर पर 50 लाख रुपए देने का वादा किया गया था।
लालू के परिवार पर कसता शिकंजा
लालू प्रसाद यादव के बेटे तेजस्वी भी गठबंधन का एक चेहरा हैं। चारा घोटाले में सजा सुनाए जाने के बाद लालू जेल में हैं। उन्होंने अपनी राजनीतिक पारी का अंत देख तेजस्वी, तेज प्रताप और बेटी मीसा को उत्तराधिकार सौंप दिया है। पटना में बन रहे माल की जमीन को औने-पौने दाम में हथियाने तथा मिट्टी चिडिय़ाघर को बेचने के साथ ही साथ आईआरसीटीसी होटल घोटाले में तेजस्वी से सीबीआई पूछताछ कर चुकी है। मीसा भारती के दिल्ली के फार्म हाउस को ईडी ने सीज कर दिया है। इस मामले में मीसा और उनके पति से कई बार पूछताछ हो चुकी है।
हेमंत व अपांग पर भी लटकी है तलवार
झारखंड मुक्ति मोर्चा के हेमंत सोरेन के सामने झारखंड पीपुल्स पार्टी के अध्यक्ष सूर्य सिंह बेसरा का आरोप अटका पड़ा है जिसके मुताबिक उन्होंने रांची में 44 लाख की लागत से अपनी पत्नी कमला मुमरू के नाम से प्लाट खरीदा। बेचनामे में कमला के पति हेमंत के स्थान पर पिता का नाम और उनके बारीपदा, उड़ीसा स्थित आवास का पता दर्ज है। उड़ीसा का आदिवासी रांची के आदिवासी से जमीन खरीदे तो यह बेसरा के मुताबिक सीएनटी एक्ट का उल्लंघन है। इस संपत्ति का जिक्र भी सोरेने के शपथपत्र में नहीं है। अरुणाचल के पूर्व मुख्यमंत्री गेगोंग अपांग एक हजार करोड़ के राशन घोटाले में फंसे हुए हैं। इस मामले वह गिरफ्तार भी हो चुके हैं। फिलहाल वह जमानत पर हैं। अपांग अलग-अलग समय में 23 साल अरुणाचल के सीएम रहे हैं।
मोदी विरोध की राजनीतिक मजबूरी
यशवंत सिंहा, शत्रुघ्न सिन्हा, शरद यादव, अरविंद केजरीवाल, हार्दिक पटेल, जिग्नेश मेवाणी, जेके स्टालिन कोलकाता की रैली में जुटने वाले वे नेता हैं जिन पर कोई आरोप तो चस्पा नहीं है, लेकिन मोदी विरोध के अलावा इनकी राजनीति का कोई सुर बनता नहीं है। मोदी विरोध इन्हें राजनीतिक तौर पर प्रासंगिक बनाए हुए है। पार्टी में महत्व न मिलने की वजह से यशवंत सिंहा और शत्रुध्न सिन्हा नाराज हैं। तभी तो वे कभी अखिलेश यादव के मंच पर नजर आ जाते हैं कभी ममता के। मोदी को कोसने का कोई मौका ये हाथ से गंवाना नहीं चाहते। हालांकि उनका बेटा जयंत सिंहा मोदी कैबिनेट में मंत्री भी है। 75 पार फार्मूले की मार आडवाणी जोशी के साथ-साथ यशवंत सिंहा पर भी पड़ी है। शत्रुघ्न सिन्हा भी मंत्री का ख्वाब पूरा न हो पाने की वजह से पहले इशारों में बोलते रहे। बाद में बागी हो बैठे।
अगले लोकसभा चुनाव में संसद पहुंचने का उनका सपना भाजपा के बदौलत पूरा नहीं होने वाला है। नतीजतन बिहार में लालू की ओर वह उम्मीद भरी नजर से देख रहे हैं। शरद यादव नीतीश भाजपा गठबंधन के बाद एकदम अलग-थलग पड़ गए हैं। उन्होंने इस कदम का विरोध किया था। उन्हें उम्मीद थी कि पार्टी में उन्हें समर्थन हासिल होगा मगर नीतीश ने पार्टी को एकजुट बनाए रखने का चमत्कार कर दिखाया। शरद यादव के पास भाजपा-नीतीश गठबंधन के बाद विपक्ष के प्लेटफॉर्म पर जाने के अलावा कोई भी रास्ता नहीं बचा है। बहुत लंबे समय बाद वह संसद के किसी सदन के सदस्य नहीं हैं। कुछ राज्यों के विधानसभा चुनाव में उन्होंने कांग्रेस के मंचों से भी भाषण दिया। यशवंत सिन्हा, शत्रुघ्न सिन्हा, शरद यादव सब भाजपा के साथ रह चुके हैं। ऐसे में इनका भाजपा विरोध बड़ा और वैचारिक नहीं कहा जा सकता।
युवा नेताओं का विरोध
ममता बनर्जी की महारैली में जुटे युवा नेता हार्दिक पटेल और जिग्नेश मेवाणी आकर्षण के बड़े केन्द्र थे। पाटीदार आरक्षण से उभरे हार्दिक और गुजरात के दलित चेहरा जिग्नेश मेवाणी की राजनीतिक शुरुआत ही मोदी और शाह के विरोध से हुई है। इनका राजनीतिक अस्तित्व भाजपा विरोध पर टिका हुआ है। नतीजतन ये दोनों नेता भाजपा विरोध का कोई मौका हाथ से जाने नहीं देते। पर यह भी सच है कि इनका मोदी विरोध न तो राजनीति में अलग-थलग पड़ जाने की वजह से है और न ही किसी जांच की वजह से।
केजरीवाल का बदला तेवर
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के लिए भाजपा और कांग्रेस दोनों समान रूप से अस्पृश्य हैं। वे समय-समय पर दोनों पर हमला करते हैं, लेकिन कोलकाता की रैली में मंच पर मल्लिकार्जुन खडगे और अभिषेक मनु सिंघवी की उपस्थिति में उनके इस कथन से कि अगले चुनाव में हमें मिलकर अमित शाह और नरेंद्र मोदी का बोरिया बिस्तर समेटना होगा, यह ध्वनित हो रहा था कि वह कांग्रेस की वकालत कर रहे हैं। जबकि उन्हें पंजाब और दिल्ली में कांग्रेस से भी मुकाबला करना पड़ता है। दिलचस्प यह है कि एक फरवरी 2014 को आम आदमी पार्टी ने सिस्टम से भ्रष्टाचार को पूरी तरह खत्म करने की बात कही थी। उन्होंने पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में एक सूची जारी की थी और कहा था कि यह शुरुआती सूची है। अभी इसमें और नाम जुड़ेंगे। संसद में एक भी भ्रष्ट व्यक्ति नहीं होना चाहिए।
उस सूची में राहुल गांधी, सुशील कुमार शिंदे, पी.चिदंबरम, जीके वासन, सलमान खुर्शीद, वीरप्पा मोइली, श्रीप्रकाश जायसवाल, पवन बंसल, नवीन जिंदल, अवतार सिंह भडाना, अनु टंडन, सुरेश कलमाडी, तरुण गोगोई, मायावती, मुलायम सिंह यादव, शरद पवार, जगनमोहन रेड्डी, फारुक अब्दुल्ला, बीएस येदुरप्पा आदि के नाम थे। कोलकाता रैली में स्टालिन की मौजूदगी एक दूसरे तरह की मजबूरी है। अन्ना द्रमुक इन दिनों भाजपा के साथ पींगें बढ़ा रही है। तमिलनाडु की राजनीति में द्रमुक और अन्ना द्रमुक दो ही ध्रुव हैं। स्टालिन पर द्रमुक को मजबूत करने की जिम्मेदारी है। उन्हें पता है कि लोकसभा चुनाव में द्रमुक अगर दमदार उपस्थिति नहीं दर्ज करा पाई तो उनके नेतृत्व को लेकर सवाल उठने लगेंगे। क्योंकि उनके पिता करुणानिधि की अनुपस्थिति में द्रमुक का पहला चुनाव होगा।
आखिर कौन बनेगा दूल्हा
ममता बनर्जी की कोलकाता रैली में बाराती तो खूब जुटे मगर दूल्हा कौन है, यह आखिर तक पता नहीं लग सका। रैली में मोदी के खिलाफ एकजुट होकर मोर्चा बनाने की बात तो की गयी मगर दूल्हा तय करने में सभी दल हिचकते नजर आए। सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने इस बात का जिक्र भी किया। उन्होंने कहा कि हमसे यह सवाल अक्सर पूछा जाता है कि विपक्ष का दूल्हा कौन होगा।
मैं हमेशा यह कहता रहा हूं कि अभी लड़ाई लडऩे दो, दूल्हा कौन होगा यह लड़ाई के बाद तय कर लेंगे। इसका मतलब साफ है कि विपक्ष अभी तक किसी एक नाम पर सहमत नहीं हो सका है। चुनाव के बाद सांसदों की संख्या के हिसाब से दूल्हा तय हो सकता है, लेकिन जनता मोदी के बरअक्स दूल्हा देखना चाहती है। यानी वह यह जानना चाहती है प्रधानमंत्री का उम्मीदवार विपक्ष की ओर से कौन होगा क्योंकि धुर विरोधियों के एक साथ आने का कोई न्यूनतम साझा कार्यक्रम नहीं है।
कांग्रेस को छोड़ किसी की राष्ट्रव्यापी दखल नहीं है। राहुल को कोई नेता मानने को तैयार नहीं है। हालांकि बीते दिनों राहुल गांधी के अध्यक्ष की कमान संभालने के बाद से कांग्रेस का प्रदर्शन बेहतर रहा है। आपातकाल के बाद बिना प्रधानमंत्री के चेहरे के लड़ी गई लड़ाई का हश्र जनता देख चुकी है। प्रचंड बहुमत की सरकार में दो प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई और चरण सिंह बने, फिर भी देश को मध्यावधि चुनाव के दंश से गुजरना पड़ा। जिस कांग्रेस पार्टी को शिद्दत से खारिज किया गया था उसको अपनाने के सिवाय जनता के सामने अवसर देख जुटने वाले नेताओं ने कोई विकल्प नहीं छोड़ा था। यही नहीं विश्वनाथ प्रताप सिंह को जनता ने प्रचंड बहुमत दिया था पर इस बार भी विश्वनाथ प्रताप और चंद्रशेखर दो प्रधानमंत्री बने, लेकिन जनता को मध्यावधि चुनाव झेलना पड़ा।
फारुक के खिलाफ दायर हो चुकी है चार्जशीट
जम्मू-कश्मीर की राजनीति के एक मजबूत ध्रुव फारुक अब्दुल्ला भी सीबीआई जांच के घेरे में हैं। अप्रैल 2002 से दिसंबर 2011 के दौरान बीसीसीआई ने जम्मू कश्मीर में क्रिकेट को बढ़ावा देने के लिए 112 करोड़ रुपये भेजे। इसमें से 46 करोड़ रुपये इधर-उधर कर दिए गए। जब यह गड़बड़ी हुई तब फारुक अब्दुल्ला जम्मू कश्मीर क्रिकेट एसोसिएशन के अध्यक्ष थे। स्थानीय क्रिकेट खिलाड़ी मजीद याकूब दर और निसार अहमद खान की जनहित याचिका के बाद यह मामला राज्य पुलिस से सीबीआई के हाथ आया। सीबीआई ने इस मामले में फारुक तथा तीन अन्य के खिलाफ धोखाधड़ी गबन और साजिश की धाराओं में चार्जशीट दायर की है।
शरद पवार भी दूध के धुले नहीं
महाराष्ट्र की राजनीति में कांग्रेस के लिए बेहद अनिवार्य शरद पवार गेहूं घोटाला, जमीन घोटाला और चीनी घोटाले की जांच की आंच में तप रहे हैं। जब वह कृषि मंत्री थे तो 2007 में गेहूं खरीद के टेंडर आमंत्रित किए गए। लोएस्ट टेंडर 263 डालर प्रति टन का था पर यह टेंडर रद कर दिया गया। सरकार ने निजी व्यापारियों और किसानों से गेहूं खरीदने की इजाजत दी। नतीजतन एफसीआई के पास गेहूं का स्टाक कम होने के चलते जुलाई में ऊंचे दाम पर गेहूं आयात करना पड़ा। पवार पर आरोप लगा कि उन्होंने अपने खास व्यापारियों को उपकृत किया है। 2007 में बाम्बे हाईकोर्ट ने शरद पवार, अजित पवार और सदानंद सुले तथा महाराष्ट्र कृष्णा वैली डेवलपमेंट कारपोरेशन को एक जनहित याचिका पर सुनवाई के बाद नोटिस जारी किया। साढ़े बारह रुपये प्रति किलो की दर से चीनी निर्यात और 36 रुपये के दर से चीनी आयात के कृषि मंत्री के फैसले ने भी पवार को कठघरे में खड़ा किया। अन्ना हजारे ने बाम्बे हाईकोर्ट में याचिका दायर कर 25 हजार करोड़ रुपये के शक्कर सहकारी फैक्ट्री घोटाले की सीबीआई जांच की मांग की है।