मजाज़ लखनवी: वो शायर जिसकी मौत लखनऊ के मयकदे की छत पर हुई थी

तो दूसरा किस्सा उनका जोश मलीहाबादी के साथ है। दरअसल, कुछ शायर मजाज़ की शराब की लत को लेकर फिक्रमंद रहते थे। एक बार जब जोश मलीहाबादी ने एक बार उन्हें सामने घड़ी रखकर पीने की सलाह दी तो जवाब मिला, ‘आप घड़ी रख के पीते हैं, मैं घड़ा रख के पीता हूं।’ इस पर उनका एक मशहूर शे'र याद आता है।

Update:2019-12-05 17:55 IST

शाश्वत मिश्रा

'तेरे माथे पे ये आंचल बहुत ही ख़ूब है लेकिन,

तू इस आंचल से एक परचम बना लेती तो अच्छा था।'

असरारुल हक़ उर्फ मजाज़ लखनवी। उर्दू शायरी के वो नायाब हीरे जिनका नाम जब भी लिया जाएगा, बड़े ही अदब और इज्जत से लिया जाएगा। मजाज़ सिर्फ एक शायर नही थे, मजाज़ सिर्फ नज़्में नही लिखते थे बल्कि मजाज़ ने उस ज़िन्दगी को चुना, जिसको उन्होंने अपनी गजलों और नज़्मों का सहारा लेकर लोगों के सामने रखा।

मजाज़ उत्तर प्रदेश के रुदौली में 19 अक्टूबर 1911 में जन्मे थे। इनके वालिद चौधरी सिराज उल हक़ इलाके के पहले वकालत की पढ़ाई करने वाले शख़्स थे। इन्होंने अपनी शुरुआती पढ़ाई लखनऊ और आगरा से पूरी की। जिसके बाद 1931 में स्नातक(बीए) की पढ़ाई के लिए इनका अलीगढ़ जाना हुआ और इसी शहर में उनका राब्ता मंटो, चुगताई, अली सरदार ज़ाफ़री और जां निसार अख़्तर जैसों से हुआ।

लड़कियां मजाज़ की दीवानी थी

अलीगढ़ में मजाज़ ने अपनी शेरों शायरियों के दम पर ऐसी पहचान हासिल की, जिससे वह पूरी यूनिवर्सिटी में नामचीन हो गए। क्योंकि मजाज़ बेहद ख़ूबसूरत भी थे इसलिए मजाज़ का जादू पूरे कैंपस में जोरों पर था। लड़कियां मजाज़ की दीवानी थी और उनकी दीवानगी इस कदर थी कि वे मजाज़ की लिखी शायरियों और नज़्मों को अपने तकिये के नीचे रखकर सोती थी। बावजूद इसके वो ताउम्र प्यार के तलबगार रहे। इसलिए उन्होंने लिखा भी है।

''ख़ूब पहचान लो असरार हूं मैं

जिन्स-ए-उल्फ़त का तलबगार हूं मैं''

अलीगढ़ से पढ़ाई पूरी करने के बाद मजाज़ का 1935 में दिल्ली आना हुआ। यहाँ पर वो ‘ऑल इंडिया रेडियो’ में असिस्टेंट एडिटर होकर आये थे लेकिन इस शहर ने उन्हें नाकाम इश्क का दर्द दे दिया और इस इश्क़ ने उन्हें बर्बाद करके ही दम लिया। ज़ोहरा उनकी न हो सकती, जिसके बाद उन्हें शराब की ऐसी लत लगी कि लोग कहने लगे, मजाज़ शराब को नहीं, शराब मजाज़ को पी रही है। दिल्ली से विदा लेते हुए उन्होंने कहा..

"रूख्सत ए दिल्ली! तेरी महफिल से अब जाता हूं मैं

नौहागर जाता हूं मैं नाला-ब-लब जाता हूं मैं"

मजाज़ के कुछ किस्से भी हैं, जिसमें पहला किस्सा मशहूर अदाकारा नर्गिस के साथ है। एक बार जब नर्गिस लखनऊ आईं तो मजाज़ का ऑटोग्राफ लेने पहुंचीं। उस वक़्त नर्गिस के सर पर सफेद दुपट्टा था और तब उन्होंने नर्गिस की डायरी पर दस्तख़त करते हुए ये मशहूर शेर लिखा..

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"तेरे माथे पे ये आंचल तो बहुत ही ख़ूब है लेकिन

तू इस आंचल से इक परचम बना लेती तो अच्छा था"

तो दूसरा किस्सा उनका जोश मलीहाबादी के साथ है। दरअसल, कुछ शायर मजाज़ की शराब की लत को लेकर फिक्रमंद रहते थे। एक बार जब जोश मलीहाबादी ने एक बार उन्हें सामने घड़ी रखकर पीने की सलाह दी तो जवाब मिला, ‘आप घड़ी रख के पीते हैं, मैं घड़ा रख के पीता हूं।’ इस पर उनका एक मशहूर शे'र याद आता है।

"उस मेहफिले कैफो मस्ती में ,उस अंजुमने इरफानी में

सब जाम बक़फ बैठे ही रहे ,हम पी भी गये छलका भी गये"

फिर आती है 5 दिसंबर 1955 की वो शाम, जब वो शराब लगभग छोड़ चुके थे, लेकिन उनके कुछ दोस्त उन्हें एक जाम पकड़ाकर नशे की हालत में लखनऊ के एक शराबखाने की छत पर छोड़कर चले आए। सुबह हुई और अस्पताल पहुंचने तक वे इस दुनिया से जा चुके थे। मजाज़ वो शायर थे जिनका इंतकाल 44 वर्ष की उम्र में हो गया था। वो एक जिंदादिल और तरक्कीपसंद थे। इस पर उनकी एक नज़्म याद आती है।

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"ये रूपहली छांव ये आकाश पर तारों का जाल

जैसे सूफी का तसव्वुर, जैसे आशिक़ का ख़याल

आह लेकिन कौन समझे, कौन जाने दिल का हाल

ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूं, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूं

रास्ते में रुक के दम लूं, ये मेरी आदत नहीं

लौट कर वापस चला जाऊं मेरी फ़ितरत नहीं

और कोई हमनवा मिल जाए ये क़िस्मत नहीं

ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूं, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूं।"

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