मायावती का बुरा समय: क्या बसपा खत्म हो रही, कमजोर हुई सियासी जमी पर
मायावती और बसपा के लिए उसका दलित वोट ही आधार वोट बैंक है। बसपा सुप्रीमों जानती है कि केवल दलित वोट बैंक उन्हे सत्ता तक पहुंचाने के लिए काफी नहीं है। ऐसे में बसपा के पास भाजपा के साथ जाने के अलावा और कोई विकल्प बचा भी नहीं है।
मनीष श्रीवास्तव
लखनऊ। राज्यसभा चुनाव के दौरान बसपा में हुई बगावत से बिफरी बसपा सुप्रीमों मायावती ने सपा को सबक सिखाने के लिए आगामी एमएलसी चुनाव में भाजपा को वोट करने का एलान करके साफ संकेत दे दिए है कि आगामी विधानसभा चुनाव में भाजपा के साथ खड़े होने में उन्हे कोई गुरेज नहीं है लेकिन यह कोई नई बात नहीं है। बसपा जब-जब कमजोर हुई है तो उसने फिर से मजबूती पाने के लिए किसी न किसी दल का सहारा लिया है। बसपा एक बार फिर कमजोर हुई है, चुनावों में उसे मिलने वाला मत प्रतिशत लगातार गिरता जा रहा है।
सपा के साथ गठबंधन का प्रयोग लोकसभा चुनाव असफल रहा
पार्टी की सियासी हैसियत भी लगातार गिरती जा रही है और उसके नेता दूसरे दलों का दामन थामने को बेकरार नजर आ रहे है। इसके अलावा भीम आर्मी जैसे सियासी खतरे भी पैदा हो गए है जो उनके कैडर वोट बैंक पर निशाना लगा रहे हैं। यूपी में मौजूद मुख्य सियासी दलों में कांग्रेस की वह धुर विरोधी है तो सपा के साथ गठबंधन का प्रयोग भी बीते लोकसभा चुनाव में बुरी तरह असफल हो चुका है। ऐसे में बसपा के पास भाजपा के साथ जाने के अलावा और कोई विकल्प बचा भी नहीं है। अब यह विकल्प बसपा के लिए कितना मुफीद साबित होगा यह तो आने वाला समय ही बतायेगा लेकिन फिलहाल मायावती के सामने अपनी सियासी आस्तित्व को बचाये रखने के लिए इसके अलावा और कोई रास्ता भी नहीं है।
बसपा के लिए उसका दलित वोट ही आधार वोट बैंक
दरअसल, मायावती और बसपा के लिए उसका दलित वोट ही आधार वोट बैंक है। बसपा सुप्रीमों जानती है कि केवल दलित वोट बैंक उन्हे सत्ता तक पहुंचाने के लिए काफी नहीं है। इसीलिए वह या तो किसी दूसरे दल के साथ गठबंधन करती है या फिर अन्य जातिगत वोटों के साथ सोशल इंजीनियरिंग करती है। पहले उन्होंने मुस्लिमों को साथ लाने की कोशिश की लेकिन मुस्लिम बिरादरी पूरी तरह से उनके साथ न खड़ी होकर, बसपा, सपा और कांग्रेस में बंट गई।
जिससे मायावती के सियासी मंसूबे पूरे नहीं हो पाये। इसके बाद उन्होंने वर्ष 2007 में दलितों के साथ ब्राहम्णों का समीकरण बना कर सोशल इंजीनियरिंग की। इस प्रयोग में वह सफल रही और वर्ष 2007 में पूर्ण बहुमत के साथ सरकार बनायी। वर्ष 2007 से 2012 तक पूर्ण बहुमत की सरकार चलाने के बाद वर्ष 2012 के विधानसभा चुनाव में बसपा हारी तो उसके बाद से लगातार कमजोर होती चली गई।
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कई बसपाई दिग्गजों ने छोड़ दी पार्टी
पार्टी की लगातार खस्ता हो रही हालत को देखते हुए उसके कई नेता दूसरी पार्टियों का रूख करने लगे। स्वामी प्रसाद मौर्य, बृजेश पाठक जैसे कई बसपाई दिग्गजों ने भाजपा का दामन थाम लिया तो नसीमुद्दीन सिद्दीकी कांग्रेस के पाले में जा कर बैठ गए। वर्ष 2007 में करीब 30.43 प्रतिशत मतों के साथ बहुमत हासिल कर सत्ता पर काबिज हुई मायावती की बसपा का मत प्रतिशत वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव में भी थोड़ा ही कम हुआ और यह 27.4 प्रतिशत रहा।
2012 के विधानसभा चुनाव में नहीं मिली सफलता
लेकिन वर्ष 2012 के विधानसभा चुनाव में यह कम हो कर 25.95 प्रतिशत की निर्णायक कमी पर आ गया, बसपा को 80 सीटों पर सफलता मिली और सपा यूपी की सत्ता पर काबिज हो गई। इसके बाद वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में बसपा के मत प्रतिशत में एक बार फिर करीब 06 प्रतिशत की कमी आ गई और वह एक भी सीट जीतने में कामयाब नहीं हो पायी। नतीजा यह हुआ कि उसके कई नेता पार्टी छोड़ गये।
2017 के विधानसभा चुनाव में वोट प्रतिशत कुछ ठीक रहा
हालांकि वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव में पार्टी ने पिछले लोकसभा के मुकाबले वोट प्रतिशत में वृद्धि कर 22.2 प्रतिशत मत हासिल किए लेकिन 18 सीटों के साथ तीसरे नंबर पर ही रही। वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में भी मायावती ने सपा के साथ गठबंधन कर एक नया प्रयोग करने की कोशिश की लेकिन असफल रही। इस चुनाव में बसपा का मत प्रतिशत 19.26 रहा और कुल 10 सीटों पर कामयाबी हासिल हुई।
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केवल नेताओं के हाथ मिलाने से कुछ नहीं होगा
इसके बाद उन्हे समझ में आ गया कि केवल नेताओं के हाथ मिलाने से कुछ नहीं होगा, क्षेत्र में मौजूद कार्यकर्ताओं की मानसिकता भी मिलनी जरूरी है। इसके अलावा मौजूदा समय में देश और प्रदेश में जो राजनीति चल रही है उसमे मोदी फैक्टर के आगे सभी मुद्दे छोटे पड़ रहे है। ऐसे में मायावती को किसी और सोशल इंजीनियरिंग के विकल्प से बेहतर भाजपा से गठबंधन का विकल्प लग रहा है। वह जानती है कि उनके आधार वोट बैंक को भी भाजपा के साथ जाने में कोई खास दिक्कत नहीं पेश आयेगी।
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