RSS मुस्लिम विंग ने क़ुर्बानी का किया विरोध, कहा- जानवर की जगह केक काटें

आरएसएस से जुड़े राष्ट्रीय मुस्लिम मंच ने बक़रीद पर क़ुर्बानी का विरोध किया है, और मुसलमानों को जानवर की जगह केक काटने की सलाह दी है।

Update: 2017-09-01 12:00 GMT

लखनऊ: आरएसएस से जुड़े राष्ट्रीय मुस्लिम मंच ने बक़रीद पर क़ुर्बानी का विरोध किया है, और मुसलमानों को जानवर की जगह केक काटने की सलाह दी है। मुस्लिम उलेमा राष्ट्रीय मुस्लिम मंच के इस विरोध के खिलाफ खड़े हो गए हैं। उलेमा कहते हैं 1400 साल से क़ुर्बानी दी जाती रही हैं यह आरएसएस की मज़हब में दखलअंदाज़ी है। जिस का उलेमा विरोध करेंगे।

राष्ट्रीय मुस्लिम मंच ने क़ुर्बानी का किया विरोध

राष्ट्रीय मुस्लिम मंच के लोग मुसलमानों से अपील कर रहे हैं कि वो जानवरों की क़ुर्बानी देने के बजाये बकरे के आकार का केक काटें। राष्ट्रीय मुस्लिम मंच के संयोजक राजा रईस मुसलमानों से कह रहे हैं कि क़ुर्बानी इस्लाम में ज़रूरी नहीं है। पशु, पक्षी, पेड़ - पौधे अल्लाह की रहमत है। इस लिए इन पर रहम होना चाहिए। इसी लिए मुसलमानो को जानवरों की क़ुर्बानी देना बंद कर देना चाहिए और बकरे के आकार का केक काट कर बक़रीद मानना चाहिए।

उलेमा ने राष्ट्रीय मुस्लिम मंच की सलाह पर किया विरोध

राष्ट्रीय मुस्लिम मंच के बक़रीद पर क़ुर्बानी को लेकर आये बयान के बाद मुस्लिम धर्मगुरुओं ने तीखी प्रतिकिर्या दी है। ऑल इंडिया शिया पर्सनल ला बोर्ड के कन्वीनर यासूब अब्बास कहते हैं कि क़ुर्बानी रोकना मज़हब में दखलंदाज़ी है जिस का वो विरोध करते हैं। यासूब कहते हैं सभी में अलग अलग नाम से क़ुर्बानी दी जाती है चाहे वो धर्म कोई भी है।

ऑल इण्डिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड के सदस्य मौलाना खालिद रशीद फिरंगी महली कहते हैं कि क़ुरआन के सूरे आस सफत की आयत नंबर 101 से 107 तक और सूरा अल हज की आयत 34 से 37 तक और सूरे अल बक़रा में तफ्सील से क़ुर्बानी का ज़िक्र है। मौलाना कहते हैं कि जानवरों की बलि तो तमाम मंदिरों में भी होती है। इस लिए सिर्फ मुसलमानो को ही इस तरह की राय नहीं दी जा सकती है।

क्यों मनाई जाती है ईद - उल - अज़हा

ईद - उल - अज़हा को सुन्नते इब्राहीम भी कहा जाता है। इस्लामी रवायतों के मुताबिक़ अल्लाह ने हज़रते इब्राहीम का इम्तेहान लेने के मक़सद से अपनी सब से प्रिय चीज़ को क़ुर्बानी देने का हुक्म दिया। जिस के बाद हज़रते इब्राहीम ने अपने बेटे को अल्लाह की राह में क़ुर्बान करने का फैसला लिया। हज़रते इब्राहीम जबी क़ुर्बानी देने के लिए जा रहे थे, तो उन्हें लगा की क़ुर्बानी देते वक़्त उन की भावनाएं कही आड़े न आ जाये इस लिए उन्ही ने अपनी आखों पर पट्टी बाँध ली थी। क़ुर्बानी देने के बाद हज़रते इब्राहीम ने आँखों पट्टी हटाई तो देखा उन का बेटा सामने ज़िंदा खड़ा था और सामने दुम्बा पड़ा हुवा था। उसी के बाद से क़ुर्बानी देने की प्रथा चली आ रही है।

बक़रीद पर क्या है क़ुर्बानी की परम्परा?

हज के दौरान ही बक़रीद के मौके पर रिश्तेदारों के अलावा पड़ोसियों और गरीबो का ख़ास ख़याल रखा जाता है। क़ुर्बानी के बाद गोश्त को तीन हिस्सों में बराबर बराबर बाँट दिया जाता है। एक हिस्सा खुद के लिए जब दूसरा हिस्सा पड़ोसियों / रिश्तेदारों में बांटा जाता है जबकि तीसरा हिस्सा में गरीबो के बीच बाँट दिया जाता है। जिस का मक़सद यह होता है अपने दिल की क़रीबी चीज़ भी दूसरों की बेहतरी के लिए अल्लाह की राह में क़ुर्बान कर देते हैं।

 

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