उपसंग्राम के संदेश: योगी के राजनीतिक उभार पर असर डालेंगे गोरखपुर व फूलपुर उपचुनाव के नतीजे 

Update:2018-03-16 12:25 IST

योगेश मिश्र

लखनऊ: यह भारतीय राजनीति का पहला ऐसा उपचुनाव था जिसने इतनी ज्यादा सुर्खियां बटोरी क्योंकि इसमें एक मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री की साख कसौटी पर थी। दोनों हार गये। तब हारे जब केंद्र और राज्य में इनकी अपनी सरकार है। दिलचस्प है कि इन्हें हराने के लिए दो ऐसी पार्टियों ने गठजोड़ किया जो पिछले 23 साल से एक-दूसरे की दुश्मन बनी हुई थीं। समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के गठबंधन के मद्देनजर आए नतीजों के आधार पर कहा जा सकता है कि यह साधारण किस्म का उपचुनाव नहीं था। इसे महत्वपूर्ण परिघटना के रूप में देखा जाना चाहिए क्योंकि भारतीय राजनीति में महज एक वर्ष पहले उभरे योगी फैक्टर, जिन्हें अचानक नरेंद्र मोदी और अमित शाह के बाद सबसे ताकतवर और उभरते नेता के रूप में माना जाने लगा था, जो त्रिपुरा से लेकर गुजरात कर्नाटक में पार्टी के स्टार प्रचारक हुआ करते थे, उनके राजनीतिक उभार पर इन नतीजों का असर जरूर पड़ेगा।

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यह इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि जिस सीट पर पिछले 29 साल से गोरक्षनाथ पीठ का कब्जा था वह तब उसके हाथ से निकल गयी जब सूबे पर उसका शासन है। 29 साल के प्रवीण निषाद ने 29 साल से गोरक्षनाथ मंदिर के गोरखपुर लोकसभा सीट पर प्रभुत्व का खात्मा कर दिखाया। इससे पहले भी एक चुनाव में समाजवादी पार्टी के जमुना निषाद ने मुख्यमंत्री आदित्यनाथ को सांसद के चुनाव में कड़ी टक्कर दी थी। इसे भांप और समझकर ही सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने चतुर सुजान राजनीतिज्ञ की तरह अपनी ओर से पहल कर निषाद पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष संजय निषाद के बेटे प्रवीण निषाद को साइकिल पर सवारी करने को राजी कर लिया।

संजय निषाद ने गोरखपुर की ग्रामीण सीट से पिछला विधानसभा चुनाव लड़ा था। तब उन्हें 39 हजार के आसपास वोट मिले थे। अपने उम्मीदवारों के मार्फत अखिलेश यादव ने गोरखपुर और फूलपुर में जाति का विजय रसायन तैयार किया। पिछड़े-दलित गठबंधन की नयी कास्ट केमिस्ट्री ने उनकी जीत का रास्ता प्रशस्त किया। गोरखपुर में भाजपा का ब्राह्मण उम्मीदवार भी कभी ब्राह्मण प्रतीक पुरुष रहे हरिशंकर तिवारी के खिलाफ जिला प्रशासन की ज्यादती के बाद ब्राह्मणों को बूथ पर जाने से रोके रहा।

रास नहीं आया नौकरशाही को बचाना

हर चुनाव में कोई न कोई संदेश और संकेत होता है। इस चुनाव ने इस बात पर मुहर लगाई है कि जाति का सच कम से कम विकास से अधिक है। दोनों चुनाव के नतीजे बहुत सारे असंतोषों के मौन प्रतिकार हैं। ऐसी जातियों और तत्वों का मौन असंतोष जो योगी और केशव प्रसाद मौर्य से नाराज होकर इन चुनावों में मुखरित हुआ। उत्तर प्रदेश सरकार के नेताओं, खासकर मंत्रियों के अहम जवाब है यह परिणाम क्योंकि चुनाव के दौरान दोनों लोकसभा क्षेत्रों में यह जेरे-बहस था कि सरकार को झटका देना जरूरी है।

गोरखपुर में जिस तरह सरकार मेडिकल कालेज और अन्य मामलों में नौकरशाही को बचाने की मुद्रा में नजर आई, वह गोरखपुर के मतदाताओं को नहीं भाया। मेडिकल कालेज की घटना में सरकार ने जिलाधिकारी समेत कुछ लोगों को बचाने के लिए जिस तरह से लोगों की आंखों में धूल झोंकी वह गले उतरने वाली बात नहीं थी क्योंकि सरकार कह रही थी कि ऑक्सीजन कम होने की वजह से बच्चों की मौत नहीं हुई, लेकिन गैस आपूर्ति करने वाली कंपनी के अफसर समेत 9 लोग आज भी जेल में हैं। सरकार के पास इसका जवाब नहीं था।

सरकार से लोगों का मोहभंग

सांसद रहते हुए योगी आदित्यनाथ मानबेला के किसानों की भूमि अधिग्रहण की लड़ाई लड़ते रहे, लेकिन मुख्यमंत्री बनते ही किसानों पर लाठी चलवाकर आवंटियों को जमीन का आवंटन कर दिया गया। नतीजतन 542 वोट वाले मानबेला बूथ पर भाजपा को महज 92 वोट मिले हैं जबकि सपा को 432। सत्ता में रहने के चलते जो भाजपा से लोगों की उम्मीद जगी या बढ़ी, वह पूरा करने में भाजपा कामयाब नहीं हुई।

योगी आदित्यनाथ 28-29 साल से जब भी गोरखपुर की सीट पर जीतते थे तो उनकी पार्टी की प्रदेश और देश में सत्ता नहीं होती थी। जब-जब दूसरी पार्टियां सत्ता में रहती थीं तो जनपक्षधर राजनीति के चलते सडक़ नापने वाले योगी आदित्यनाथ मनपंसद हो जाते थे। जनता को ठीक लगते थे, लेकिन जब अपनी सत्ता थी तो हार गये क्योंकि जिन सवालों को लेकर वे सड़क पर उतरते थे वे अभी तक अनुत्तरित हैं। लोगों के मन में सरकार से मोहभंग की स्थिति इस चुनाव का संदेश है।

भारी पड़ी कार्यकर्ताओं की उपेक्षा

कार्यकर्ताओं की उपेक्षा और अफसरों पर निर्भरता ने भाजपा का खेल बिगाड़ दिया। बेलगाम नौकरशाही का खामियाजा सरकार को भुगतना पड़ा। गोरखपुर के जिलाधिकारी राजीव रौतेला की छवि मिनी मुख्यमंत्री सरीखी हो गयी थी जो लोगों को खटकने लगी थी। अवैध खनन को लेकर हाईकोर्ट की टिप्पणी के बाद जिलाधिकारी रौतेला को लेकर सरकार का रवैया कटघरे में रहा। कार्यकर्ताओं की हालत यह हो गयी है कि विधायक राधेमोहन दास अग्रवाल की शराब की दुकान को लेकर एक अफसर चारू निगम से कहासुनी हुई, अफसर का रुतबा बरकरार रहा। सांसद पासवान और उनके विधायक भाई विमलेश पासवान के खिलाफ जमीन कब्जे के आरोप में ऐन चुनाव के बीच मुकदमा दर्ज कर छापेमारी शुरू कर दी गयी।

निकाय चुनाव के दौरान भाजपा के क्षेत्रीय अध्यक्ष धर्मेंद्र सिंह से बदसलूकी के मामले पर सरकार चुप्पी साधे रही। ऐसी कई नजीरें गोरखपुर और इलाहाबाद में पसरी पड़ी हैं। कार्यकर्ता तहसील से लेकर थाने तक इज्जत बचाते घूम रहे हैं जबकि सपा और बसपा के शासनकाल में उनके कार्यकर्ताओं की हनक और धमक देखते बनती थी। इन नतीजों का भाजपा के लिए खटकने वाला संदेश यह है कि विपक्ष ने शुरू से बढ़त बनाई वह किसी राउंड में कम ही नहीं हुई। नतीजों ने विपक्षी एकता की कोशिशों को मजबूत होने की जमीन दे दी है। मायावती और अखिलेश यादव अगर मिलकर लोकसभा चुनाव लड़ते हैं तो भाजपा के लिए बहुत दिक्कत होगी। हालांकि दो उपचुनाव के नतीजों से सामाजिक न्याय की वापसी की बात नहीं कही जा सकती। दुश्मन का दुश्मन दोस्त होने के मुहावरे को भी खारिज नहीं किया जा सकता है। यह भी सच है कि सपा की जीत ने बसपा को संजीवनी दी है। इससे बसपा में बगावत थमेगी और सपा से मोहभंग रुकेगा। फूलपुर में आजादी के बाद पहली बार खिला कमल ढाई साल में मुरझा गया।

क्षेत्रीय दलों को संजीवनी

इन चुनावों में जिस तरह क्षेत्रीय दलों की संजीवनी दी है। राष्ट्रीय राजनीति के लिए नए समीकरणों का जो प्रस्थान बिंदु तैयार किया है तथा पिछड़ों, दलितों अल्पसंख्यकों की नई उभरी एकता और ब्राह्मण, वैश्य और कायस्थ के मोहभंग का जो नजारा पेश किया है वह मोदी-योगी की अपराजेय जोड़ी के लिए खतरा बन सकता है। उसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। वह भी तब जबकि नतीजों के ठीक एक रात पहले सोनिया गांधी की डिनर डिप्लोमैसी पर 20 राजनीतिक दलों के नेता जुटे हों।

नोएडा का टोटका

अखिलेश यादव ने इस ‘मास्टर स्ट्रोक’ से पार्टी के आंतरिक कलह का भी जवाब पेश कर दिया है। राज्यसभा चुनाव में रामगोपाल यादव के पसंदीदा उम्मीदवार नरेश अग्रवाल को टिकट न देकर उन्होंने खुद को रामगोपाल की छाया से मुक्त भी साबित कर दिया है। इन चुनाव ने नोएडा जाने के टोटके को भी सच साबित कर दिखाया है। योगी आदित्यनाथ दो बार नोएडा गए थे। कहा जाता है कि जो भी मुख्यमंत्री नोएडा गया उसकी कुर्सी ज्यादा दिनों तक सुरक्षित नहीं रह पाती। हालांकि योगी ने जानकर इस मिथ को तोडऩे की कोशिश की थी। पीएम मोदी ने भी इसकी तारीफ की थी। इन नतीजों का असर राज्यसभा चुनाव पर भी पड़ेगा अब सपा और बसपा में सेंधमारी कर जीत के आंकड़े इक_ा कर लेना भाजपा के लिए बेहद मुश्किल होगा। उसके पास कांग्रेस में सेंधमारी के सिवाय कोई बड़ी उम्मीद नहीं दिखती है।

मायावती के लिए रास्ता गठबंधन का

मायावती के लिए इन चुनाव से निकले जनादेश में यह संदेश है कि लोकसभा में शून्य, विधानसभा में 19 के आंकड़े को देखकर जिस तरह पार्टी के कमजोर होने के संदेश जा रहे हैं उसे रोकने का इकलौता रास्ता गठबंधन है। अकेले दलित वोटों की सियासत उनका बेड़ा पार नहीं लगा पाएगी। नरेंद्र मोदी ने अल्पसंख्यक वोटों के आधार पर सियासत करने वाले राजनीतिक दलों के लिए एक नई लक्ष्मण रेखा खींच दी है। इंदिरा गांधी के जमाने से शुरू हुए तुष्टीकरण के बाद से राजनीति में यह समीकरण बन गया था कि अल्पसंख्यक वोट ही सरकार बनाएंगे, लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी ने राजनीति के एक नए सिद्धांत का प्रतिपादन किया जिसके मुताबिक बहुसंख्यक बहुमत की सरकार बना सकते हैं।

लड़ाई अस्तित्व की

राजनीति का यह नया सिद्धांत पूरे देश में आकार ले चुका है। ऐसे में मायावती का दलित और मुस्लिम या अखिलेश यादव का यादव-मुस्लिम समीकरण अकेले कोई गुल खिलाने वाला नहीं है। अस्तित्व की लड़ाई में हाथी और साइकिल साथ-साथ होंगे तभी बच पाएंगे। नहीं तो बहुसंख्यक बहुमत की सरकार बनाने वाला फार्मूला इनके राजनीतिक कद को कम करता रहेगा। पिछले लोकसभा चुनाव में सपा 22.35 फीसदी और बसपा 19.77 फीसदी वोट पाई थी जबकि 2017 के विधानसभा चुनाव में सपा को 21.82 फीसदी, बसपा को 22.23 फीसदी वोट मिले थे। इन दोनों चुनाव की बात की जाए तो लोकसभा में भाजपा को 42.63 फीसदी और विधानसभा में 39.67 फीसदी वोट हाथ लगे थे। उपचुनाव आम चुनाव के लिए संदेश नहीं होते, लेकिन ये चुनाव सपा-बसपा एकता का नया प्रस्थान बिंदु है। बिहार में भाजपा की पराजय लालू और नीतीश के एकता का प्रस्थान था। इन दोनों में भी एक दौर में बेहद प्रतिद्वंद्विता थी।

सुशासन की ओर ही लौटना होगा

उपचुनाव सरकार के कामकाज का भी पैमाना नहीं होता, लेकिन यह चुनाव महत्वपूर्ण इसलिए था क्योंकि यह मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री की साख से जुड़ा था। इस लिहाज से देखें तो सरकार को बयानों से अलग सुशासन की ओर लौटना होगा क्योंकि जनादेश बता रहा है कि सरकार ठीक नहीं चल रही है। मध्यम वर्ग जो भाजपा का खास समर्थक रहा है वह इन चुनावों में उदासीन बैठा रहा। इस वर्ग की उम्मीदों के अनुरूप सरकार कुछ करके दिखा नहीं सकी है। इस वर्ग के घर से न निकलने का ही नतीजा रहा कि मतदान प्रतिशत बहुत कम रहा। इस वर्ग की अपेक्षाओं पर खरा उतरने की चुनौती भी पूरी करनी होगी।

बहरहाल, गोरखपुर में भाजपा के पांच फीसदी और फूलपुर में 14 फीसदी वोट कम हुए हैं। योगी और केशव मौर्य के बीच रिश्ते के खिंचाव का फायदा भी नौकरशाही उठा रही है। यही वजह है कि ईमानदार और परिश्रमी मुख्यमंत्री होने का लाभ जनता को नहीं मिल पा रहा है। मायावती और अखिलेश यादव की सरकार जिन आरोपों की जद में अपने कार्यकाल के दूसरे और तीसरे साल में आती थी, दो-तीन मंत्रियों को छोड़ उन आरोपों में यह सरकार पहले साल ही घिर गयी है। कांग्रेस के लिए यह संदेश है कि यूपी में उसका कोई फार्मूला अकेले काम आने वाला नहीं है। उसे केंद्र की सरकार के सपने को पूरा करने के लिए उत्तर प्रदेश में इस गठबंधन में शरीक होना होगा। किसी छोटे हिस्से पर भी संतोष करना होगा क्योंकि जीत के बाद सपा और बसपा यूपीए के साथ ही रहेंगे। उनका एनडीए के साथ जाना अब मुश्किल होगा।

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