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Guru Shishya Stories in Hindi : संक्षेप में जानें धर्मग्रंथों मेंं वर्णित नौ महान गुरूओं की कथायें

9 Guru Shishya Stories in Hindi: हमारे धर्म ग्रंथों में ऐसे अनेक गुरुओं का वर्णन मिलता है, जिन्होंने गुरु-शिष्य परंपरा को नई ऊंचाइयां प्रदान की है। गुरु का अर्थ है अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने वाला यानी गुरु ही शिष्य को जीवन में सफलता के लिए उचित मार्गदर्शन करता है।

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Published on: 2 April 2023 11:47 PM IST
Guru Shishya Stories in Hindi : संक्षेप में जानें धर्मग्रंथों मेंं वर्णित नौ महान गुरूओं की कथायें
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(Pic: Social Media)

9 Guru Shishya Stories in Hindi: मित्रो आज गुरुवार है, आज हम आपको धर्मग्रंथो में वर्णित नौ महान गुरुओं की कथायें संक्षेप में बतायेगें

बंदउँ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि।

महामोह तम पुंज जासु बचन रबि कर निकर॥

भावार्थ:- मैं उन गुरु महाराज के चरणकमल की वंदना करता हूँ, जो कृपा के समुद्र और नर रूप में श्री हरि ही हैं और जिनके वचन महामोह रूपी घने अन्धकार का नाश करने के लिए सूर्य किरणों के समूह है। सनातन धर्म में प्रारंभ से ही गुरुओं के सम्मान की परंपरा रही है। हमारे धर्म ग्रंथों में ऐसे अनेक गुरुओं का वर्णन मिलता है, जिन्होंने गुरु-शिष्य परंपरा को नई ऊंचाइयां प्रदान की है। गुरु का अर्थ है अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने वाला यानी गुरु ही शिष्य को जीवन में सफलता के लिए उचित मार्गदर्शन करता है। आज हम आपको धर्म ग्रंथों में बताए गए महान गुरुओं के बारे में बता रहे हैं-

1. भगवान शिव

भगवान शिव आदि व अनंत हैं। अर्थात न तो कोई उनकी उत्पत्ति के बारे में जानता है और न कोई अंत के बारे में। यानी शिव ही परमपिता परमेश्वर हैं। भगवान शिव ने भी गुरु बनकर अपने शिष्यों को परम ज्ञान प्रदान किया है। अगर कहा जाए कि भगवान शिव सृष्टि के प्रथम गुरु हैं तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।

भगवान विष्णु के अवतार परशुराम को अस्त्र शिक्षा शिव ने ही दी थी। शिव के द्वारा दिए गए परशु (फरसे) से ही परशुराम ने अनेक बार धरती को एक विशेष आताताई काम करने वाले क्षत्रिय विहीन कर दिया था। ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार नागों की बहन जरत्कारु (मनसा) के गुरु भी भगवान शिव ही हैं।

शुक्राचार्य को दी मृत संजीवनी विद्या

शिव ने दानवों के गुरु शुक्राचार्य को मृत संजीवनी विद्या सिखाई थी। एक बार देवता व दानवों में भीषण युद्ध हुआ। देवता जितने भी राक्षसों का वध करते, शुक्राचार्य मृत संजीवनी विद्या से उन्हें पुन: जीवित कर देते। यह देख भगवान शिव ने शुक्राचार्य को निगल लिया तथा युद्ध समाप्त के बाद पुन: बाहर निकाल दिया। शिव के द्वारा पुन: उत्पन्न होने से ही माता पार्वती ने शुक्राचार्य को अपना पुत्र माना।

2. देवगुरु बृहस्पति

देवताओं के गुरु बृहस्पति हैं। महाभारत के आदि पर्व के अनुसार बृहस्पति महर्षि अंगिरा के पुत्र हैं। ये अपने ज्ञान से देवताओं को उनका यज्ञ भाग या हवि प्राप्त कराते हैं। असुर एवं दैत्य यज्ञ में विघ्न डालकर देवताओं को क्षीण कर हराने का प्रयास करते रहते हैं। देवगुरु बृहस्पति रक्षोघ्र मंत्रों का प्रयोग कर देवताओं का पोषण एवं रक्षण करते हैं तथा दैत्यों से देवताओं की रक्षा करते हैं।

बृहस्पति ने शची को बताया था एक उपाय

धर्म ग्रंथों के अनुसार एक बार देवराज इंद्र किसी कारणवश स्वर्ग छोड़ कर चले गए। उनके स्थान पर राजा नहुष को स्वर्ग का आधिपत्य सौंपा गया। स्वर्ग का अधिपति बनते ही नहुष के मन में पाप आ गया और उसने इंद्र की पत्नी शची पर भी अधिकार करना चाहा। यह बात शची ने देवगुरु बृहस्पति को बताई। देवगुरु बृहस्पति ने शची से कहा कि तुम नहुष से कहना कि यदि वह सप्तऋषियों द्वारा उठाई गई पालकी में बैठकर आएगा, तभी तुम उसे अपना स्वामी मानोगी। शची ने यह बात नहुष से कह दी। नहुष ने ऐसा ही किया।

सप्तऋषि जब पालकी उठाकर चल रहे थे, तभी नहुष ने एक ऋषि को लात मार दी। क्रोधित होकर अगस्त्य ऋषि ने उसे उसी समय स्वर्ग से गिरने का श्राप दे दिया। इस प्रकार देवगुरु बृहस्पति की सलाह से शची का पतिव्रत धर्म बना रहा।

3. शुक्राचार्य

शुक्राचार्य दैत्यों के गुरु हैं। ये भृगु ऋषि तथा हिरण्यकशिपु की पुत्री दिव्या के पुत्र हैं। इनका जन्म का नाम शुक्र उशनस है। इन्हें भगवान शिव ने मृत संजीवन विद्या का ज्ञान दिया था, जिसके बल पर यह मृत दैत्यों को पुन: जीवित कर देते थे।

भगवान वामन ने फोड़ी थी एक आंख

ग्रंथों के अनुसार भगवान विष्णु नेवामनावतार में जब राजा बलि से तीन पग भूमि मांगी तब शुक्राचार्य सूक्ष्म रूप में बलि के कमंडल में जाकर बैठ गए, जिससे की पानी बाहर न आए और बलि भूमि दान का संकल्प न ले सकें। तब वामन भगवान ने बलि के कमंडल में एक तिनका डाला, जिससे शुक्राचार्य की एक आंख फूट गई। इसलिए इन्हें एकाक्ष यानी एक आंख वाला भी कहा जाता है।

4. परशुराम

परशुराम महान योद्धा व गुरु थे। ये जन्म से ब्राह्मण थे, लेकिन इनका स्वभाव क्षत्रियों जैसा था। धर्म ग्रंथों के अनुसार ये भगवान विष्णु के अंशावतार थे। इन्होंने भगवान शिव से अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा प्राप्त की थी। इनके पिता का नाम जमदग्नि तथा माता का नाम रेणुका था। अपने पिता की हत्या का बदला लेने के लिए इन्होंने अनेक बार धरती को हैहयवंशी क्षत्रिय विहीन कर दिया था। भीष्म, द्रोणाचार्य व कर्ण इनके महान शिष्य थे।

कर्ण को दिया था श्राप

महाभारत के अनुसार कर्ण परशुराम का शिष्य था। कर्ण ने परशुराम को अपना परिचय एक सूतपुत्र के रूप में दिया था। एक बार जब परशुराम कर्ण की गोद में सिर रखकर सो रहे थे। उसी समय कर्ण को एक भयंकर कीड़े ने काट लिया। गुरु की नींद में विघ्न न आए ये सोचकर कर्ण दर्द सहते रहे, लेकिन उन्होंने परशुराम को नींद से नहीं उठाया। नींद से उठने पर जब परशुराम ने ये देखा तो वे समझ गए कि कर्ण सूतपुत्र नहीं बल्कि क्षत्रिय है। तब क्रोधित होकर परशुराम ने कर्ण को श्राप दिया कि मेरी सिखाई हुई शस्त्र विद्या की जब तुम्हें सबसे अधिक आवश्यकता होगी, उस समय तुम वह विद्या भूल जाओगे। इस प्रकार परशुराम के श्राप के कारण ही कर्ण की मृत्यु हुई।

5. महर्षि वेदव्यास

धर्म ग्रंथों के अनुसार महर्षि वेदव्यास भगवान विष्णु के अवतार थे। इनका पूरा नाम कृष्णद्वैपायन था। इन्होंने ही वेदों का विभाग किया। इसलिए इनका नाम वेदव्यास पड़ा। महाभारत जैसे श्रेष्ठ ग्रंथ की रचना भी महर्षि वेदव्यास ने ही की है। इनके पिता महर्षि पाराशर तथा माता सत्यवती थी। पैल, जैमिन, वैशम्पायन, सुमन्तुमुनि, रोमहर्षण आदि महर्षि वेदव्यास के महान शिष्य थे।

वेदव्यास जी के वरदान से हुआ था कौरवों का जन्म

एक बार महर्षि वेदव्यास हस्तिनापुर गए। वहां गांधारी ने उनकी बहुत सेवा की। उसकी सेवा से प्रसन्न होकर महर्षि ने उसे सौ पुत्रों की माता होने का वरदान दिया। समय आने पर गांधारी गर्भवती हुई, लेकिन उसके गर्भ से मांस का गोल पिंड निकला। गांधारी उसे नष्ट करना चाहती थी। यह बात वेदव्यासजी ने जान ली और गांधारी से कहा कि वह 100 कुंडों का निर्माण करवाए और उसे घी से भर दे। इसके बाद महर्षि वेदव्यास ने उस पिंड के 100 टुकड़े कर उन्हें अलग-अलग कुंडों में डाल दिया। कुछ समय बाद उन कुंडों से गांधारी के 100 पुत्र उत्पन्न हुए।

6. वशिष्ठ ऋषि

वशिष्ठ ऋषि सूर्यवंश के कुलगुरु थे। इन्हीं के परामर्श पर राजा दशरथ ने पुत्रेष्ठि यज्ञ किया था, जिसके फलस्वरूप श्रीराम, लक्ष्मण, भरत व शत्रुघ्न का जन्म हुआ। भगवान राम ने सारी वेद-वेदांगों की शिक्षा वशिष्ठ ऋषि से ही प्राप्त की थी। श्रीराम के वनवास से लौटने के बाद इन्हीं के द्वारा उनका राज्याभिषेक हुआ और रामराज्य की स्थापना संभव हो सकी। इन्होंने वशिष्ठ पुराण, वशिष्ठ श्राद्धकल्प, वशिष्ठ शिक्षा आदि ग्रंथों की रचना भी की।

ब्रह्मतेज से हराया था विश्वामित्र को

एक बार राजा विश्वामित्र शिकार खेलते-खेलते बहुत दूर निकल आए। थोड़ी देर आराम करने के लिए वे ऋषि वशिष्ठ के आश्रम में रुक गए। यहां उन्होंने कामधेनु नंदिनी को देखा। नंदिनी गाय को देख विश्वामित्र ने वशिष्ठ से कहा यह गाय आप मुझे दे दीजिए, इसके बदले आप जो चाहें मुझसे मांग लीजिए, लेकिन ऋषि वशिष्ठ ने ऐसा करने से मना कर दिया। तब राजा विश्वामित्र नंदिनी को बलपूर्वक अपने साथ ले जाने लगे। तब ऋषि वशिष्ठ के कहने पर नंदिनी ने क्रोधित होकर विश्वामित्र सहित उनकी पूरी सेना को भगा दिया। ऋषि वशिष्ठ का ब्रह्मतेज देख कर विश्वामित्र को बड़ा आश्चर्य हुआ और उन्होंने भी अपना राज्य त्याग दिया और तप करने लगे।

7. गुरु सांदीपनि

महर्षि सांदीपनि भगवान श्रीकृष्ण के गुरु थे। श्रीकृष्ण व बलराम इनसे शिक्षा प्राप्त करने मथुरा से उज्जयिनी (वर्तमान उज्जैन) आए थे। महर्षि सांदीपनि ने ही भगवान श्रीकृष्ण को 64 कलाओं की शिक्षा दी थी। श्रीकृष्ण ने ये कलाएं 64 दिन में सीख ली थीं। मध्य प्रदेश के उज्जैन शहर में आज भी गुरु सांदीपनि का आश्रम स्थित है।

गुरु दक्षिणा श्रीकृष्ण से मांगे थे अपने पुत्र

मथुरा में कंस वध के बाद भगवान कृष्ण को वसुदेव और देवकी ने शिक्षा ग्रहण करने के लिए अवंतिका नगरी (वर्तमान में मध्यप्रदेश के उज्जैन) में गुरु सांदीपनि के पास भेजा। शिक्षा ग्रहण करने के बाद जब गुरुदक्षिणा की बात आई तो ऋषि सांदीपनि ने कृष्ण से कहा कि तुमसे क्या मांगू, संसार में कोई ऐसी वस्तु नहीं जो तुमसे मांगी जाए और तुम न दे सको। कृष्ण ने कहा कि आप मुझसे कुछ भी मांग लीजिए, मैं लाकर दूंगा। तभी गुरु दक्षिणा पूरी हो पाएगी। ऋषि सांदीपनि ने कहा कि शंखासुर नाम का एक दैत्य मेरे पुत्र को उठाकर ले गया है। उसे लौटा लाओ। कृष्ण ने गुरु पुत्र को लौटा लाने का वचन दे दिया और बलराम के साथ उसे खोजने निकल पड़े।

खोजते-खोजते सागर किनारे तक आ गए। समुद्र से पूछने पर उसने भगवान को बताया कि पंचज जाति का दैत्य शंख के रूप में समुद्र में छिपा है। हो सकता है कि उसी ने आपके गुरु पुत्र को खाया हो। भगवान ने समुद्र में जाकर शंखासुर को मारकर उसके पेट में अपने गुरु पुत्र को खोजा, लेकिन वो नहीं मिला। शंखासुर के शरीर का शंख लेकर भगवान यमलोक गए। भगवान ने यमराज से अपने गुरु पुत्र को वापस ले लिया और गुरु सांदीपनि को उनका पुत्र लौटाकर गुरु दक्षिणा पूरी की।

8. ब्रह्मर्षि विश्वामित्र

धर्म ग्रंथों के अनुसार विश्वामित्र जन्म से क्षत्रिय थे, लेकिन इनकी घोर तपस्या से प्रसन्न भगवान ब्रह्मा ने इन्हें ब्रह्मर्षि का पद प्रदान किया था। अपने यज्ञ को पूर्ण करने के लिए ऋषि विश्वामित्र श्रीराम व लक्ष्मण को अपने साथ वन में ले गए थे, जहां उन्होंने श्रीराम को अनेक दिव्यास्त्र प्रदान किए थे। रामचरितमानस के अनुसार भगवान श्रीराम को सीता स्वयंवर में ऋषि विश्वामित्र ही लेकर गए थे।

इसलिए बाद में ब्रह्मर्षि बने विश्वामित्र

विश्वामित्र के पिता का नाम राजा गाधि था। राजा गाधि की पुत्री सत्यवती का विवाह महर्षि भृगु के पुत्र ऋचिक से हुआ था। विवाह के बाद सत्यवती ने अपने ससुर महर्षि भृगु से अपने व अपनी माता के लिए पुत्र की याचना की। तब महर्षि भृगु ने सत्यवती को दो फल दिए और कहा कि ऋतु स्नान के बाद तुम गूलर के वृक्ष का तथा तुम्हारी माता पीपल के वृक्ष का आलिंगन करने के बाद ये फल खा लेना।

किंतु सत्यवती व उनकी मां ने भूलवश इस काम में गलती कर दी। यह बात महर्षि भृगु को पता चल गई। तब उन्होंने सत्यवती से कहा कि तूने गलत वृक्ष का आलिंगन किया है। इसलिए तेरा पुत्र ब्राह्मण होने पर भी क्षत्रिय गुणों वाला रहेगा और तेरी माता का पुत्र क्षत्रिय होने पर भी ब्राह्मणों की तरह आचरण करेगा। यही कारण था कि क्षत्रिय होने के बाद भी विश्वामित्र ने ब्रह्मर्षि का पद प्राप्त किया।

9. द्रोणाचार्य

द्रोणाचार्य महान धनुर्धर थे। उन्होंने ही कौरव व पांडवों को अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा दी थी। महाभारत के अनुसार द्रोणाचार्य देवगुरु बृहस्पति के अंशावतार थे। इनके पिता का नाम महर्षि भरद्वाज था। द्रोणाचार्य का विवाह शरद्वान की पुत्री कृपी से हुआ था। इनके पुत्र का महान अश्वत्थामा था। महान धनुर्धर अर्जुन इनका प्रिय शिष्य था।

अर्जुन को दिया था वरदान

एक बार गुरु द्रोणाचार्य नदी में स्नान कर रहे थे, उसी समय उन्हें एक मगर ने पकड़ लिया। वे सहायता के लिए अपने शिष्यों को पुकारने लगे। वहां दुर्योधन, युधिष्ठिर, भीम, दु:शासन आदि बहुत से शिष्य खड़े थे, लेकिन गुरु को विपत्ति में देख वे भी बहुत डर गए। तब अर्जुन ने अपने तीखे बाणों से उस मगर का अंत कर दिया। अर्जुन की वीरता देखकर गुरु द्रोणाचार्य ने उसे सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर होने का वरदान दिया।



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