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शरीर पर श्मशान की राख, बेतरतीब बाल, खुद का किया पिंडदान, जानिए इनके बारे में
अगर मुर्दे की राख उपलब्ध ना हो तो हवन की राख को लगाते हैं। नागा साधु गले व हाथों में रुद्राक्ष और फूलों की माला धारण करते हैं। नागा साधुओं को सिर्फ जमीन पर सोने की अनुमति होती है।
लखनऊ: जब भी कुंभ लगता है तब आकर्षण का केंद्र नागा साधु होते है।दुनिया से बैराग लिए लाखों की संख्या में नागा इस मेले में आते हैं। और आस्था की डूबकी लगाते है। कहते हैं कि नागा साधुओं का जीवन अन्य साधुओं की तुलना में सबसे ज्यादा कठिन है। इनका संबंध शैव परंपरा की स्थापना से मानते है। कुंभ मेले में 13 अखाड़ों में से सबसे ज्यादा नागा साधु जूना अखाड़े से बनाए जाते हैं।
कठिन परीक्षाओं से गुजरना
नागा साधु बनने के लिए इतनी कठिन परीक्षाओं से गुजरना पड़ता है कि शायद कोई आम आदमी इसे पार ही नहीं कर पाए। नागाओं को आम दुनिया से अलग और विशेष बनना होता है। इस प्रक्रिया में सालों लग जाते हैं। उनकी और उनके पूरे परिवार की जांच की जाती है। उन्हें कई सालों तक अपने गुरुओं की सेवा करनी पड़ती है। साथ ही अपनी इच्छाओं को त्यागना पड़ता है। जानिए कौन सी प्रक्रियाओं से एक नागा को गुजरना होता है।
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महाकुंभ के दौरान ही प्रक्रिया शुरू
इतिहास के पन्नों में नागा साधुओं का अस्तित्व सबसे पुराना है। नागा साधु बनने के लिए महाकुंभ के दौरान ही प्रक्रिया शुरू हो जाती है। इसके लिए उन्हें ब्रह्मचर्य की परीक्षा देनी पड़ती है। इसमें 6 महीने से लेकर 12 साल तक का समय लग जाता है। ब्रह्मचर्य की परीक्षा पास करने के बाद व्यक्ति को महापुरुष का दर्जा दिया जाता है। उनके लिए पांच गुरु भगवान शिव, भगवान विष्णु, शक्ति, सूर्य और गणेश निर्धारित किए जाते हैं। इसके बाद नागाओं के बाल कटवाए जाते है।
कुंभ के दौरान इन लोगों को गंगा नंदी में 108 डुबकियां भी लगानी पड़ती हैं महापुरुष के बाद ही नागाओं की अवधूत बनने की प्रक्रिया शुरू होती है। उन्हें स्वयं का श्राद्ध करके अपना पिंडदान करना पड़ता है।इस दौरान साधु बनने वाले लोगों को पूरे 24 घंटे तक बिना कपड़ों के अखाड़े के ध्वज के नीचे खड़ा रहना पड़ता है। परीक्षाओं में सफल होने के बाद ही उन्हें नागा साधु बनाया जाता है।
स्वयं का पिंडदान
अपना श्राद्ध, मुंडन और पिंडदान करते हैं तथा गुरु मंत्र लेकर संन्यास धर्म मे दीक्षित होते है इसके बाद इनका जीवन अखाड़ों, संत परम्पराओं और समाज के लिए समर्पित हो जाता है, अपना श्रध्या कर देने का मतलब होता है सांसरिक जीवन से पूरी तरह विरक्त हो जाना, इंद्रियों मे नियंत्रण करना और हर प्रकार की कामना का अंत कर देना होता है।
यहां बनते हैं नागा
कुंभ का आयोजन हरिद्वार में गंगा, उज्जैन की शिप्रा, नासिक की गोदावरी और इलाहाबाद में जहां गंगा, यमुना और सरस्वती का मिलन होता है, इन चार पवित्र स्थानों पर होता है। इसलिए नागा साधु बनने की प्रक्रिया भी इन्हीं चार जगहों पर होती है। मान्यता है कि इन्हीं चार जगहों पर अमृत की बूंदें गिरी थीं। तब से आजतक कुंभ का आयोजन इन्हीं चार जगहों पर किया जाता है। अलग-अलग स्थानों पर नागा साधुओं की दीक्षा लेने वाले साधुओं को अलग-अलग नाम से जाता है। इलाहाबाद, प्रयागराज में दीक्षा लेने वालों को 'नागा' कहते हैं। हरिद्वार में दीक्षा लेने वालों को 'बर्फानी नागा' कहा जाता है। उज्जैन में दीक्षा लेने वालों को 'खूनी नागा' कहते हैं। वहीं नासिक में दीक्षा लेने वालों को 'खिचड़िया नागा' कहते हैं।
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गुप्त स्थान पर रहकर ही तपस्या
नागा साधु बनने के बाद ये सभी अपने शरीर पर किसी मुर्दे की राख को शुद्ध करके लगाते हैं। अगर मुर्दे की राख उपलब्ध ना हो तो हवन की राख को लगाते हैं। नागा साधु गले व हाथों में रुद्राक्ष और फूलों की माला धारण करते हैं। नागा साधुओं को सिर्फ जमीन पर सोने की अनुमति होती है। इसके लिए वह गद्दे का भी उपयोग नहीं कर सकते हैं।
नागा साधु बनने के बाद उन्हें हर नियम का पालन करना अनिवार्य होता है। नागा साधुओं का जीवन बहुत रहस्मयी होता है। कुंभ के बाद वह कहीं गायब हो जाते हैं। कहा जाता है कि नागा साधु जंगल के रास्ते से देर रात में यात्रा करते हैं। नागा साधु समय-समय पर अपनी जगह बदलते रहते हैं। इस कारण इनकी सही स्थिति का पता लगाना बहुत मुश्किल होता है। ये लोग गुप्त स्थान पर रहकर ही तपस्या करते हैं।
लंबे बाल, चेहरे पर श्मशान की राख निर्वस्त्र जिन साधुओं का देखकर आपको आश्चर्य और डर दोनों लगता है। वाकई में वो निरमोही, परब्रह्म की खोज में निकले दूत होते हैं, जिन्हें जीवन में कई चीजों से विरक्ति के बाद ये पद प्राप्त होता है।