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पितृपक्ष की शुरुआतः इस दिन से करें श्राद्ध कर्म, ये है तरीका, जानें महत्व

हर साल पितृपक्ष पर पूर्वजों के लिए श्राद्ध कर्म किया जाता है। इन दिनों में पिंडदान, तर्पण, हवन और अन्न दान मुख्य होते हैं। ये श्राद्ध के दिन पितरों को समर्पित होते हैं।

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Published on: 29 Aug 2020 8:50 AM IST
पितृपक्ष की शुरुआतः इस दिन से करें श्राद्ध कर्म, ये है तरीका, जानें महत्व
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इस दिन से शुरू हो रहा है पितृपक्ष, जानें इसका महत्व

पं. गिरीश किशोरीलाल शास्त्री, ज्योर्तिविद

झाँसी: हर साल पितृपक्ष पर पूर्वजों के लिए श्राद्ध कर्म किया जाता है। इन दिनों में पिंडदान, तर्पण, हवन और अन्न दान मुख्य होते हैं। ये श्राद्ध के दिन पितरों को समर्पित होते हैं। ऐसी मान्यता है कि जो लोग पितृ पक्ष में पूर्वजों का तर्पण नहीं कराते, उन्हें पितृदोष लगता है। श्राद्ध के बाद ही पितृदोष से मुक्ति मिलती है। श्राद्ध से पितरों को शांति मिलती हैं। वे प्रसन्‍न रहते हैं और उनका आशीर्वाद परिवार को प्राप्‍त होता है।

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पितृपक्ष के दौरान वैदिक परंपरा के अनुसार ब्रह्म वैवर्त पुराण में यह निर्देश है कि इस संसार में आकर जो सद्गृहस्थ अपने पितरों को श्रद्धा पूर्वक पितृपक्ष के दौरान पिंडदान, तिलांजलि और ब्राह्मणों को भोजन कराते है, उनको इस जीवन में सभी सांसारिक सुख और भोग प्राप्त होते हैं। वे उच्च शुद्ध कर्मों के कारण अपनी आत्मा के भीतर एक तेज और प्रकाश से आलोकित होते है। मृत्यु के उपरांत भी श्राद्ध करने वाले सदगृहस्थ को स्वर्गलोक, विष्णुलोक और ब्र्रह्मलोक की प्राप्ति होती है।

भिण्डी, कच्चे केले की सब्जी ही भोजन मे मान्य

श्राद्ध के लिए तैयार भोजन की तीन तीन आहुतियों और तीन तीन चावल के पिण्ड तैयार करने बाद प्रेत मंजरी के मत्रोच्चार के बाद ज्ञात और अज्ञात पितरो को नाम और राशि से सम्बोधित करके आमंत्रित किया जाता है । कुशा के आसन में बिठाकर गंगाजल से स्नान कराकर तिल जौ और सफेद फूल और चन्दन आदि समर्पित करके चावल या जौ के आटे के पिण्ड आदि समर्पित किया जाता है । फिर उनके नाम का नैवेद्ध रखा जाता है श्राद्ध के दिन लहसुन प्याज रहित सात्विक भोजन घर की रसोई में बनना चाहिए जिसमें उड़द की दाल, बडे, चावल, दूध घी बने पकवान, खीर, मौसमी सब्जी जो बेल पर लगती है .जैसे तोरई, लौकी, सीतफल, भिण्डी कच्चे केले की सब्जी ही भोजन मे मान्य है ।

पं. गिरीश किशोरीलाल शास्त्री, ज्योर्तिविद ( File photo)

प्रयाग में 12 रूपों में विराजमान है भगवान विष्णु

महानिर्वाणी अखाड़ा प्रयाग के संत स्वामी नित्यानंद गिरी के मुताबिक धर्म शास्त्रों में भगवान विष्णु को मोक्ष अर्थात मुक्ति के देवता माना जाता है। प्रयाग में भगवान विष्णु बारह भिन्न रूपों में विराजमान हैं। माना जाता है कि त्रिवेणी में भगवान विष्णु बाल मुकुंद स्वरूप में वास करते हैं।

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पहला प्रयाग, काशी मध्य और गया अंतिम द्वार

प्रयाग को पितृ मुक्ति का पहला और सबसे मुख्य द्वार माना जाता है। काशी को मध्य और गया को अंतिम द्वार कहा जाता है। उसके बाद तिल, जौ और आटे से 17 पिंड बनाकर विधि विधान के साथ उनका पूजन करके उन्हें गंगा में विसर्जित करने और संगम में स्नान कर जल का तर्पण किए जाने की परंपरा है। त्रिवेणी संगम में पिंडदान करने से भगवान विष्णु के साथ ही प्रयाग में वास करने वाले 33 करोड़ देवी-देवता भी पितरों को मोक्ष प्रदान करते हैं।

घर के बाद यहां किए जाते हैं 17 पिंडदान

गरुण पुराण में कहा गया है, पितृपक्ष में सनातन धर्मावलंबी बड़े बुजुर्ग अपने पुरखों को गया धाम पहुंचाने के लिए निकलते हैं। पिंडदान की प्रक्रिया घर से शुरू होती है, गया धाम यात्रा पर निकलने वाले लोग सर्वप्रथम अपने घर में 16 पिंड दान करते हैं। वहां से चलकर वह संगम तट पर पहुंचते हैं और वहां मुंडन कराने के बाद 16 पिंडदान करते हैं। -तीर्थ पुरोहित रामेश्वर नाथ पांडे के अनुसार,संगम में पिंडदान का भाग भगवान विष्णु के मुख में जाता है। इसलिए पहले यहां पर दान किया जाता है। गया धाम में किया गया पिंडदान भगवान विष्णु के चरण में जाता है और वहीं से पूर्वजों को मोक्ष प्राप्त होता है पिंडदान से पहले तर्पण और तर्पण से पहले मुंडन का प्राविधान है।

आखिर क्यों किए जाते हैं प्रयाग क्षेत्र में केस दान

हमारे धर्म शास्त्रों में कहा गया है, किसी भी पाप और दुष्कर्म की शुरुआत केश यानी बाल से होती है। इसलिए कोई भी धार्मिक कृत्य करने से पहले मुंडन कराया जाता है। खासतौर से प्रयाग क्षेत्र में मुंडन कराने का विशेष महत्व है। प्रयाग क्षेत्र में एक केश यानी बाल का गिरना 100 गायों के दान के बराबर पुण्यलाभ देता है। धर्मशास्त्रों में कहा गया है, काशी में शरीर का त्याग कुरुक्षेत्र में दान और गया में पिंडदान का महत्व प्रयाग में मुंडन संस्कार कराए बिना अधूरा रह जाता है। प्रयाग क्षेत्र में मुंडन कराने से सारे मानसिक शारीरिक और वाचिक पाप नष्ट हो जाते हैं।

प्रयाग क्षेत्र से गया धाम चलने के लिए पुरखों को दिया जाता है निमंत्रण

तीर्थ पुरोहित रामानंद मिश्रा के अनुसार, इस निमंत्रण का मकसद यह होता है कि प्रयाग क्षेत्र मैं वैदिक मंत्रों के मध्य मुंडन तर्पण और पिंडदान करने से किसी भी मनुष्य के 3 पीढ़ियों के पुरखों को निमंत्रण पहुंच जाता है और यह निमंत्रण उन्हें गया धाम चलने के लिए होता है। लोगों को 3 पीढ़ियों के पूर्व सभी पुरखों का नाम याद करने में दिक्कत होती है, इसलिए प्रयाग क्षेत्र में सामुहिक रुप से आवाहन करके उन्हें निमंत्रित किया जाता है। तीर्थराज प्रयाग में आने पर मुंडन अवश्य करा लेना चाहिए, यहां बाल दान करने से अक्षय पुण्य का लाभ मिलता है जो प्रलय काल में भी नष्ट नहीं होता है।

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तर्पण करने के भारत में कई स्थान

वैसे तो श्राद्ध कर्म या तर्पण करने के भारत में कई स्थान है, लेकिन पवित्र फल्गु नदी के तट पर बसे प्राचीन गया शहर की देश ही नहीं बल्कि विदेशों में भी पितृपक्ष और पिंडदान को लेकर अलग पहचान है। पुराणों के अनुसार पितरों के लिए खास आश्विन माह के कृष्ण पक्ष या पितृपक्ष में मोक्षधाम गयाजी आकर पिंडदान एवं तर्पण करने से पितरों को मोक्ष की प्राप्ति होती है और माता-पिता समेत सात पीढ़ियों का उद्धार होता है। पितृ की श्रेणी में मृत पूर्वजों, माता, पिता, दादा, दादी, नाना, नानीसहित सभी पूर्वज शामिल होते हैं। व्यापक दृष्टि से मृत गुरू और आचार्य भी पितृ की श्रेणी में आते हैं।

कहा जाता है कि गया में पहले विभिन्न नामों के 360 वेदियां थीं जहां पिंडदान किया जाता था। इनमें से अब 48 ही बची है। यहां की वेदियों में विष्णुपद मंदिर, फल्गु नदी के किनारे और अक्षयवट पर पिंडदान करना जरूरी माना जाता है। इसके अतिरिक्त वैतरणी, प्रेतशिला, सीताकुंड, नागकुंड, पांडुशिला, रामशिला, मंगलागौरी, कागबलि आदि भी पिंडदान के लिए प्रमुख है। यही कारण है कि देश में श्राद्घ के लिए 55 स्थानों को महत्वपूर्ण माना गया है जिसमें बिहार के गया का स्थान सर्वोपरि है।

इस वरदान के चलते लोग भयमुक्त होकर पाप करने लगे...

गयासुर नामक असुर ने कठिन तपस्या कर ब्रह्माजी से वरदान मांगा था कि उसका शरीर देवताओं की तरह पवित्र हो जाए और लोग उसके दर्शन मात्र से पापमुक्त हो जाएं। इस वरदान के चलते लोग भयमुक्त होकर पाप करने लगे और गयासुर के दर्शन करके फिर से पापमुक्त हो जाते थे। इससे बचने के लिए यज्ञ करने के लिए देवताओं ने गयासुर से पवित्र स्थान की मांग की। गयासुर ने अपना शरीर देवताओं को यज्ञ के लिए दे दिया। जब गयासुर लेटा तो उसका शरीर पांच कोस में फैल गया। यही पांच कोस जगह आगे चलकर गया बना।

देह दान देने के बाद गयासुर के मन से लोगों को पाप मुक्त करने की इच्छा नहीं गई और फिर उसने देवताओं से वरदान मांगा कि यह स्थान लोगों को तारने वाला बना रहे। तब से ही यह स्थान मृतकों के लिए श्राद्ध कर्म कर मुक्ति का स्थान बन गया। कहते हैं कि गया वह आता है जिसे अपने पितरों को मुक्त करना होता है। लोग यहां अपने पितरों या मृतकों की आत्मा को हमेशा के लिए छोड़कर चले जाता है। मतलब यह कि प्रथा के अनुसार सबसे पहले किसी भी मृतक को तीसरे वर्ष श्राद्ध में लिया जाता है और फिर बाद में उसे हमेशा के लिए जब गया छोड़ दिया जाता है तो फिर उसके नाम का श्राद्ध नहीं किया जाता है।

अंतिम श्राद्ध बदरीका क्षेत्र के ब्रह्मकपाली में किया जाता है

कहते हैं कि गया में श्राद्ध करने के उपरांत अंतिम श्राद्ध बदरीका क्षेत्र के ब्रह्मकपाली में किया जाता है। गया क्षेत्र में भगवान विष्णु पितृदेवता के रूप में विराजमान रहते हैं। भगवान विष्णु मुक्ति देने के लिए गदाधर के रूप में गया में स्थित हैं। गयासुर के विशुद्ध देह में ब्रह्मा, जनार्दन, शिव तथा प्रपितामह स्थित हैं। अत: पिंडदान के लिए गया सबसे उत्तम स्थान है। पुराणों अनुसार ब्रह्मज्ञान, गयाश्राद्ध, गोशाला में मृत्यु तथा कुरुक्षेत्र में निवास- ये चारों मुक्ति के साधन हैं- गया में श्राद्ध करने से ब्रह्महत्या, सुरापान, स्वर्ण की चोरी, गुरुपत्नीगमन और उक्त संसर्ग-जनित सभी महापातक नष्ट हो जाते हैं।

रिपोर्ट: बी.के. कुशवाहा

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