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A Village In Bihar: बिहार का एक गांव..जहां ब्राह्मण खां सरनेम लगाते हैं: यहां आबादी 80% ब्राह्मणों की; अलग-अलग गोत्र
A Village In Bihar:आखिर क्यों खुद को शुद्ध मैथिल ब्राह्मण कहने वाले लोग अपने नाम के साथ खां सरनेम लगाते हैं। ये जानने के लिए हम पटना से लगभग 180 किलोमीटर दूर सहरसा पहुंचे। जानिए पूरा मामला...
A Village In Bihar: बिहार के सहरसा जिला मुख्यालय से 8KM दूर है ‘बनगांव’ गांव। यह बिहार में सबसे ज्यादा ब्राह्मणों की आबादी वाले गांव में से एक है। लगभग 50 हजार से ज्यादा आबादी वाले इस गांव में 80% आबादी ब्राह्मणों की है। यहां के ब्राह्मण झा और ठाकुर के अलावा खां सरनेम लगाते हैं। गांव बड़ा है और यहां हर गोत्र के ब्राह्मण हैं, इसलिए शादी भी यहीं हो जाती है।
आखिर क्यों खुद को शुद्ध मैथिल ब्राह्मण कहने वाले लोग अपने नाम के साथ खां सरनेम लगाते हैं। ये जानने के लिए हम पटना से लगभग 180 किलोमीटर दूर सहरसा पहुंचे। सहरसा शहर से 8KM दूर बसा है बनगांव। यहां की सड़कें, एक-दूसरे से सटे पक्के मकान और सकरी गलियां किसी भी लिहाज से गांव की तस्वीर नहीं दिखाती हैं। ये सहरसा का एक अर्ध शहरी इलाका है। इसके विकसित होने का अंदाजा इसी बात से लगा सकते हैं कि केवल एक गांव को नगर पंचायत बनाया गया है। गांव में थाना, बैंक सब कुछ है।
आरएम कॉलेज सहरसा के पूर्व प्राचार्य प्रो. अरुण कुमार खां से हुई। ये पूछने पर कि बनगांव के ब्राह्मण खां सरनेम क्यों लगाते हैं? वो कहते हैं कि अभी तक इसका कोई प्रमाणिक इतिहास नहीं है। कहीं भी इस संबंध में आधिकारिक तौर पर कुछ भी लिखा नहीं गया है। वो कहते हैं कि खां टाइटल लगाने के पीछे बहुत सारी किंवदंतियां हैं। वो कहते हैं कि हमारे पूर्वज मूल रूप से उपाध्याय थे। उपाध्याय से झा बने। इसके बाद खां लिखने लगे। यहां के जो मूल वाशिंदे हैं, केवल वही खां सरनेम लगाते हैं। खां सरनेम वाले मैथिल ब्राह्मण हैं, वो कात्यायन गोत्र से आते हैं। सभी कात्यायन ऋषि के संतान हैं। इनकी ओरिजिन कुंजिलवार समूह (ब्राह्मणों) से है। मूल रूप से यही लोग हैं जो खां सरनेम लगाते हैं।
प्रो. अरुण कमुार खां कहते हैं कि मौजूदा बनगांव नगर पंचायत के दक्षिण किनारे में कभी मुगल सल्तनत के एक जागीरदार और तहसीलदार रहा करते थे। ये टैक्स वसूलते थे। इस दौरान वे यहां की जनता पर अत्याचार करते थे। उनकी तरफ से यहां के लोगों को तंग-तबाह किया जाता था। इनके अत्याचार से तंग आकर ग्रामीणों ने इन्हें जवाब देने की योजना बनाई। एक दिन पूरी योजना बना कर ग्रामीणों ने उनके ऊपर हमला कर दिया। उन्हें परास्त कर उन्हें मार दिया।
उनके मरने के बाद भी ये मुगल दरबार में जाने वाले लगान को भेजना बंद नहीं किया। ताकि मुगल दरबार में किसी को कोई भनक न लगे। उन्हें बस टैक्स से मतलब था कि फ्लां इलाके से आ रहा है कि नहीं। जिन्हें ग्रामीणों ने मिलकर मारा था वे खां सरनेम लगाते थे। इसलिए ग्रामीणों ने खां सरनेम लगाकर लगान भेजते थे। तब से शुरू हुई ये परंपरा आज तक जारी है।
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राष्ट्रपति पुरस्कार अवार्डी पंडित रघुवंश झा कहते हैं कि ये कहानी सदियों पुरानी है। अकबर के राज में यहां कुछ लोग आए थे। उन्होंने यहां के लोगों की वीरता पर के चैलेंज दिया था। गाय के ऊपर बैठी कोयल को मारने के लिए बोला। उन्होंने कहा कि शर्त ये है कि गाय को कोई नुकसान नहीं होना चाहिए।
तब गांव के शिव झा और गजाधर झा नाम के दो भाइयों ने उनके इस चैलेंज को स्वीकार किया। उन्होंने तीर-धनुष उठाकर कोयल को मार दिया। गाय को कोई नुकसान नहीं पहुंचाया। उनकी इस वीरता से खुश होकर दोनों भाइयों को यहां का राज दे दिया गया। राज के साथ-साथ दोनों भाइयों के सरनेम को भी बदल दिया गया। शिव झा को शिव खां बना दिया और गजाधर झा को गजाधर ठाकुर। तब इसे इसका पालन किया जा रहा है।
बीजमंत्र खृंग का अपभ्रंश खां हो गया, तब से लोग खां ही बोलते आ रहे हैं: प्रो. अरुण कुमार खां कहते हैं कि ब्राह्मणों के जीवन में बीजमंत्र का भी महत्व होता है। एक अलग-अलग होते हैं, जैसे- हृंग, श्रृंग, कृंग आदि। इसी में कृंग बीजमंत्र का एक अक्षर है खृंग। खृंग शब्द का अपभ्रंश ही व्यवहार करते हुए खां हो गया। इसके कारण लोग खां सरनेम लिखते आ रहे हैं।
बस सरनेम खां लगाते हैं, जीवन शुद्ध मैथिली ब्राह्मण का जीते हैं ये पूछने पर कि क्या खां सरनेम से क्या जीने की शैली में भी कोई बदलाव आया है। इस सवाल पर प्रो.अरुण कुमार खां बताते हैं कि बिलकुल नहीं। हमलोग सनातन धर्म के अनुयायी हैं। ब्राह्मण का जो रिति-रिवाज है उसे मानते हैं। पंडित हैं। वेद, रामायण गीता का अध्ययन करते हैं। यहां संस्कृत स्कूल, संस्कृत कॉलेज सबकुछ है। हिंदू धर्म और सनातन धर्म का वैदिक अध्यात्म से जो रिश्ता है उसका हमलोग पालन करते हैं। खां को बस सरनेम तक ही सीमित रखा गया है। ग्रामीणों ने बताया कि बनगांव मुख्य रूप से मैथिल ब्राह्मणों का गांव है। यहां विभिन्न गोत्र और मूल के ब्राह्मण निवास करते हैं। खां टाइटल के लगभग 10 हजार ब्राह्मण हैं। यहां के अलावा खां सरनेम बिहार के किसी हिस्से में ब्राह्मण नहीं लगाते हैं। इसी गोत्र और मूल के ब्राह्मण बिहार के अन्य जिलों में भी हैं, लेकिन वो खां सरनेम नहीं लगाते हैं।
यहीं से निकलकर जो दूसरी जगह बसे हैं वही खां सरनेम लगाते हैं। जैसे यहीं के बगल में एक बस्ती है पर्री। यहीं से जाकर लोग वहां बसे हैं तो वे खां सरनेम लगाते हैं। इसके अलावा पूरे बिहार में 2-4 हजार आबादी है। हालांकि गांव के नए जेनरेशन के लोग अब इस रिवाज को बहुत तेजी से बदल रहे हैं। वो खां सरनेम लगाने के बजाय अपने गोत्र का नाम लिखने लगे हैं। वे अब खां की जगह कात्यायन लिख रहे हैं।
लगभग सभी ग्रामीणों के पास एक ही जवाब है-”क्योंकि बनगांव एक ऐसा गांव है जहां हर गोत्र और मूल के ब्राह्मण रहते हैं, इसलिए यहां आसानी से शादियां हो जाती हैं। रघुवंश झा कहते हैं कि बेटी के कुल से पांच पीढ़ी छोड़कर और पिता के पक्ष से 7 पीढ़ी छोड़कर शादी होती है। इसलिए यहां शादी होने में कोई परेशानी नहीं है। उन्होंने बताया कि ये एक-दो वर्षों से नहीं वर्षों से यहां गांव में शादियां होते आ रही हैं।
गांव के जितेंद्र कुमार खां कहते हैं कि बनगांव अब केवल गांव भर नहीं रह गया है। यहां की आबादी इतनी बड़ी है कि ये गांवों का एक समूह है। यहां 19 वार्ड और कई टोले हैं। यहां विभिन्न मूल-गोत्र के लोग निवास करते हैं। एक ही गोत्र में विवाह विधि सम्मत और शास्त्र सम्मत नहीं है, लेकिन अलग-अलग गोत्र में शादी-विवाह संभव है। यहां की आबादी इतनी बड़ी है कि लोग एक-दूसरे को जानते तक नहीं है। साथ ही लोगों को विवाह के लिए जरूरी हर मेल मिल जाता है, इसलिए लोग गांव में ही शादी करना प्रिफर करते हैं।
अंकित झा की शादी 12 मई को अपने घर से 500 मीटर दूरी पर बनगांव में ही हुई है। पढ़ाई के दौरान उन्हें अपने गांव की ही एक लड़की से प्रेम हुआ। एक साल की मशक्कत के बाद दोनों के घर वाले उनकी शादी के लिए तैयार हो गए। उनकी शादी अब अरेंज हो गई है। अंकित ने बताया उससे पहले उसके पिता की भी शादी इसी गांव में ही हुई है। यानी उसका घर, ननिहाल और ससुराल भी सब एक गांव बनगांव बन गया।अंकित इसके फायदे गिनाते हुए कहता है यह एक अच्छी रिवाज है। इसे बढ़ावा देना चाहिए। वे कहते हैं कि ससुराल पास होने से हम किसी भी फंक्शन को आसानी से अटेंड कर लेते हैं बिना किसी परेशानी के।
मिहिर झा की शादी 2017 में अपने गांव में हुई थी। वे कहते हैं एक कॉमन संबंधी के माध्यम से उनकी शादी तय हुई थी। जैसे एक अरेंज मैरिज प्रक्रिया अपनाई जाती है, सारी प्रक्रिया उनकी शादी में भी अपनाई गई। बात हुई, दोनों परिवार एक-दूसरे को जानें-समझे… फिर मैथिल रिति-रिवाज से शादी हुई। वे कहते हैं कि एक ही गांव में रहने के बाद भी कभी वो अपनी पत्नी को देखे तक नहीं थे। कभी उनकी मुलाकात नहीं हुई थी। वे कहते हैं कि परिवार का पूरा बैकग्राउंड आसानी से पता चल जाता। ऐसे में शादी से पहले परिवार से जुड़ी हर बातें आसानी से पता चल जाती है। ऐसे में अच्छा रिश्ता स्थापित करने में मदद होती है। मुसीबत के वक्त में दोनों एक -दूसरे के पास आसानी से पहुंच जाते हैं।
बनगांव की होली की भी चर्चा पूरे बिहार में होती है। यहां हिन्दू-मुस्लिम मिलकर होली खेलते हैं। ग्रामीणों की माने तो बनगांव की होली को घुमौर होली कहा जाता है। ये ब्रज की लठमार होली की तर्ज पर मनाई जाती है। इसमें सभी धर्मों के हजारों लोग एक जगह इकट्ठा होते हैं और साथ में होली खेलते हैं। इसकी शुरुआत 18वीं शादी में संत लक्ष्मी नाथ गोसाईं ने की थी। इसी परंपरा का पालन आज तक किया जा रहा है। उन्होंने बताया कि यहां की होली को राज्य सरकार की तरफ से होली महोत्सव का दर्जा दिया गया है। सहरसा जिला प्रशासन की तरफ से इस अवसर पर दो दिवसीय कार्यक्रम आयोजित कराती है।