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वेंटिलेटर पर आर्थिक सेहत
कोरोना वायरस ने इनसानी सेहत बिगाड़ने के साथ-साथ अर्थव्यवस्थाओं को भी मंदी में धकेल दिया है। हाल ये है कि जहां भारत में हर चार में से एक आदमी बेरोजगार हो गया है वहीं अमेरिका में 6 करोड़ लोगों ने बेरोजगारी भत्ते के लिए अर्जी लगाई है।
विशेष प्रतिनिधि
लखनऊ कोरोना वायरस ने इनसानी सेहत बिगाड़ने के साथ-साथ अर्थव्यवस्थाओं को भी मंदी में धकेल दिया है। हाल ये है कि जहां भारत में हर चार में से एक आदमी बेरोजगार हो गया है वहीं अमेरिका में 6 करोड़ लोगों ने बेरोजगारी भत्ते के लिए अर्जी लगाई है। एक्स्पर्ट्स का अनुमान है कि 1920 के दशक में आई भीषण मंदी जैसा ही हाल अब होने वाला है। भारत की जीडीपी वृद्धि दर नेगेटिव में जाने की आशंका है। अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष का कहना है कि ग्लोबल इकॉनमी इस साल 3 फीसदी नीचे चली जाएगी। वर्ल्ड ट्रेड ऑर्गनाइज़ेशन (डब्लूटीओ) का अनुमान तो और बुरी तस्वीर पेश करता है – विश्व व्यापार इस साल 13 से 32 फीसदी तक गिर जाएगा। होटल उद्योग को ही अब तक 220 बिलियन डालर की चोट लग चुकी है।
स्वकेन्द्रित व्यवस्था
इन हालातों में एक बहुत बड़ा बदलाव ये होने की संभावना है कि अब वैश्विक स्तर पर दुनिया के देश अधिक आत्मकेंद्रित और अपने में संकुचित हो जाएंगे। महामारी ने शायद ये सबक सिखाया है कि पहले अपने देश की चिंता करो, जैसा कि चीन हमेशा से करता आया है। अब वक्त ‘सबको सप्लाई’ करने का नहीं रहेगा। यही वजह है कि कोरोना और आर्थिक सेहत के संकट से निपटने के क्रम में दुनिया में संरक्षणवाद की भावना बढ़ेगी। भले ही इस संकट से उबरने के लिए सामूहिक प्रयास और आपसी सहयोग की जरूरत है लेकिन संरक्षणवाद बढ़ने और ग्लोबलाइज़ेशन घटने से आर्थिक रिकवरी के इस प्रयास को धक्का लगेगा।
वैसे तो संरक्षणवाद की शुरुआत करीब दस साल पहले हो चुकी थी पर पिछले कुछ बरसों में दुनिया के तमाम हिस्सों में राष्ट्रवाद तेज़ी से बढ़ा है। कोरोना काल में इसकी रफ्तार को तेजी मिल गई है। मिसाल के तौर पर फ्रांस और जर्मनी ने मार्च में ही अस्पतालों के आवश्यक उपकरणों की इंटेरनेशनल बिक्री पर प्रतिबंध लगा दिया था। यूके, साउथ कोरिया, ब्राज़ील, तुर्की और भारत समेत दर्जनों देशों ने मेडिकल सप्लाई, दवाओं, और खाद्य पदार्थों तक के निर्यात पर प्रतिबंध लगा दिये। अंतर्राष्ट्रीय सीमाएं बंद कर दी गईं, सप्लाई चेन छिन्न भिन्न हो गईं। और क्षेत्रीय आर्थिक गतिविधियां ठहर सी गई हैं।
शंघाई यूनिवर्सिटी के अर्थशास्त्री हे शुकुयन के अनुसार भले ही ये तात्कालिक उपाए हों लेकिन ये अब स्थाई रूप ले लेंगे। लगभग सभी देशों ने अपने आपको समेट लिया है और ये भी आर्थिक मंदी में योगदान कर रहा है।
एशियन ट्रेड सेंटर की निदेशक डेबोरा एल्म्स का नजरिया है कि कोरोना वायरस से हुई आर्थिक क्षति से निपटने में सरकारें अधिक से अधिक संरक्षणवादी हो जाएंगी। ये मेडिकल सप्लाई से लेकर खाद्य पदार्थों तक सबमें नजर आयेगा। इसके अलावा सभी देश अपने यहाँ खास उद्योगों के प्रति अलग नजरिया रखेंगी और उनको बचाने में ज्यादा ध्यान देंगी, ये भी संरक्षणवाद का हिस्सा होगा। खाद्य सुरक्षा, खाद्य सप्लाई और स्टॉक ये सब शीर्ष प्राथमिकताएं होंगी। व्यापार समेत ग्लोबल आर्थिक गतिविधियां बंद होने की कगार तक पहुँच सकती हैं।
विश्व बैंक संरक्षणवाद से चिंतित है। उसका कहना है कि ऐसा होने से हालात और बिगड़ेंगे। विश्व बैंक के अध्यक्ष डेविड मालपस का कहना है कि सभी देशों को ज्यादा से ज्यादा व्यापार की इजाजत देनी चाहिए। आर्थिक मंदी से बचने का यही उपाए है। वर्ल्ड बैंक के अध्यक्ष कहते हैं कि खाद्य सप्लाई की जमाखोरी चिंता की बात है।
मजबूरी या बहाना
कोरोना संरक्षणवाद की मजबूरी है या बहाना, ये भी एक सवाल है। लेकिन दोनों ही स्थितियों में अंतरराष्ट्रीय संबंध, बाज़ार और व्यापार व्यवस्थाएं बदलेंगी और उदारवाद सिमटेगा। महामारी और मंदी के बोझ तले दबी दुनिया में इस तरह की तमाम धारणाओं को और बल मिलने के आसार दिखने लगे हैं। मौजूदा हालात में जब दुनिया भर के देश अपने लोगों को महामारी से बचाने के साथ अपनी टूटती अर्थव्यवस्था से जूझ रहे हैं। तब संभलने और संभालने की कोशिश में बहुत सारे देश अंतरराष्ट्रीय नियम और व्यवस्थाओं को मानने से मुकरने लगें और समानता और संतुलन की अवधारणाओं की जगह संरक्षणवाद ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाये तो ताज्जुब की बात नहीं होगी।
कोरोना को वैश्विक महामारी बनाने में देश, विदेश में खुली आवाजाही का बड़ा हाथ है। उदार वैश्वीकरण और मुक्त व्यापार व्यवस्थाओं के चलते ये आवाजाही बढ़ी और बढ़ती जा रही है। अब जब दुनिया भर पर भयंकर आर्थिक मंदी का खतरा मंडरा रहा है तब अर्थव्यवस्था को बचाने की कोशिश का असर दुनिया के व्यापार के तरीकों पर पड़ सकता है। कंपनियों की कहीं भी जाकर धंधा जमाने की या पैसा लगाकर पैसा कमाने की आज़ादी पर अंकुश लग सकता हैं। निर्बाध आवागमन अब बीते जमाने की बात हो जाएगी।
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बेपटरी अर्थव्यवस्था
भारत में लंबे लॉकडाउन के कारण अर्थव्यवस्था लड़खड़ा गई है। लॉकडाउन के चलते आईएमएफ, बार्कलेज, स्टैंडर्ड एंड पुअर जैसी अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियों ने लॉकडाउन की वजह से भारत के विकास की दर दो प्रतिशत से कम रहने की भविष्यवाणी की है। जबकि मूडीज ने इसी सप्ताह विकास दर 0.2 प्रतिशत रहने का अनुमान जताया है। लॉकडाउन की वजह से अर्थव्यवस्था को भारी नुकसान हो रहा है. हर महीने का लॉकडाउन जीडीपी ग्रोथ में 1.5 से 2 फीसदी की गिरावट करता है। भारतीय अर्थव्यवस्था लंबे समय तक बंदी झेलने की स्थिति में नहीं है। मौजूदा परिस्थितियों में सरकार की चुनौती जहां बाजार में मांग बनाए रखना है, वहीं लोगों को रोजगार के अवसर भी मुहैया कराना है। मैन्यूफैक्चरिंग और सर्विस क्षेत्र में वृद्धि की फिलहाल कोई संभावना नहीं है। सरकार की कोशिश इस क्षेत्रों में गिरावट को कम करना ही हो सकती है क्योंकि लॉकडाउन में इन दोनों क्षेत्रों में 80 से 90 फीसदी गतिविधियां बंद-सी रही है। मांग के बिना ये उद्योग शुरू भी नहीं हो पाएंगे। कोई भी ऑटो कंपनी आने वाले दिनों में कारों और दुपहियों की बिक्री की संभावना के आधार पर ही उत्पादन करेगी। यही स्थिति व्हाइट गुड्स से लेकर गारमेंट और दूसरे मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्रों की है।
बेरोजगारी दर
देश में लागू लॉकडाउन ने करोड़ों लोगों का रोजगार छीन लिया है। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी की ओर जारी सर्वे रिपोर्ट के अनुसार, तीन मई को समाप्त हुए सप्ताह में देश में बेरोजगारी दर बढ़कर 27.11 प्रतिशत पर पहुंच गई है। इस दौरान चार लोगों में से एक को अपनी नौकरी गंवानी पड़ी है। मार्च और अप्रैल में दैनिक वेतन भोगी श्रमिकों और छोटे व्यवसायी सबसे ज्यादा बेरोजगार हुए हैं। सर्वे के अनुसार इस अवधि में कुल 11.40 करोड़ लोगों की नौकरी गई है। इनमें फेरीवाले, सड़क के किनारे सामान बेचने वाले, निर्माण उद्योग में काम करने वाले कर्मचारी और कई लोग हैं जो रिक्शा और ठेला चलाकर गुजारा करते थे।
सर्विस बनाम मैन्यूफ़ैक्चरिंग सैक्टर
भारत में स्थिति बिगड़ने का बहुत बड़ा कारण बड़ी संख्या में लोगों का सर्विस सेक्टर से जुड़ा होना है। लॉकडाउन के कारण ये क्षेत्र सबसे ज्यादा अप्रभावित हुआ है। भारत की जीडीपी में इस सेक्टर का हिस्सा 60 फीसदी है। और 25 फीसदी लेबर फोर्स इसी सेक्टर से जुड़ी है।
50 दिनों में 20 फीसदी से ज्यादा वृद्धि
सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी के अनुसार मार्च के मध्य में देश की बेरोजगारी दर 7 प्रतिशत से कम थी। लॉकडाउन का दूसरा और तीसरा चरण लागू होते ही यह दर बढ़कर 27.11 प्रतिशत पर आ गई है। इस दर के और बढ़ने की आशंका है। बेरोजगारी दर ग्रमीण क्षेत्रों की अपेक्षा शहरी क्षेत्रों में ज्यादा बढ़ती है। सबसे अधिक बेरोजगारी दक्षिण भारत के राज्यों में हैं। पुड्डुचेरी में बेरोजगारी दर सबसे अधिक 75.80 प्रतिशत है तो तमिलनाडु में यह 49.80 प्रतिशत है। झारखंड में बेरोजगारी दर 47.10 प्रतिशत, बिहार में 46.60 प्रतिशत, हरियाणा में 43.20 प्रतिशत, कर्नाटक में 29.80 प्रतिशत, उत्तर प्रदेश में 21.50 प्रतिशत और महाराष्ट्र में यह दर 20.90 प्रतिशत है। देश के पहाड़ी राज्यों में यह दर सबसे कम है। मैदानी राज्यों में सबसे अधिक कंपनियां और उद्योग होने के काराण बेरोजगारी दर बढ़ी है।
सरकार की चिंता
अब सरकार की चिंता अर्थव्यवस्था को रफ्तार देने की है। अब इसके लिए केंद्र सरकार एक और आर्थिक पैकेज देने की तैयारी है। प्रधानमंत्री का जोर सबसे पहले असंगठित क्षेत्र सहित ऐसे उद्योगों की मदद करना है जिनसे तुरंत रोजगार पैदा हो सकें। सरकार की प्रॉयरिटी में वे लोग पहले हैं जिनकी नौकरी चली गई है। इसके अलावा छोटी और बड़ी कंपनियों को टैक्स में राहत दी जा सकती है। संभव है कि कुछ समय के लिए टैक्स हॉलिडे का ऐलान हो जाए।
देश के कामगारों में 80 प्रतिशत हिस्सा असंगठित क्षेत्र का है। संगठित क्षेत्र में काम कर रहे 60 प्रतिशत कामगार एमएसएमई सेक्टर में हैं। लॉकडाउन के चलते इन दोनों सेक्टरों को बड़ा झटका लगा है। माना जा रहा है कि दूसरे पैकेज में सरकार बड़े उद्योगों से ज्यादा छोटे कारोबारी और कमजोर वर्गों पर ध्यान देगी।
लॉकडाउन का बोझ
सेंटर फॉर मॉनिटरिंग ऑफ इंडियन इकनोमी के अध्ययन के मुताबिक देश में 14 करोड़ लोगों की अप्रैल में एक पैसे आमदनी नहीं हुई। वहीं, 45 फीसदी परिवारों की आय घटी है। करीब 6.5 लाख लोगों ने भविष्य निधि खातों से 2,700 करोड़ रुपए निकाले हैं। पहले 21 दिन के लॉकडाउन के दौरान देश की अर्थव्यवस्था को रोज 32,000 करोड़ रुपये की चपत लगी। देश के 53 उद्योग बुरी तरह प्रभावित हुए हैं। सब्जी-फल की खेती करने वाले किसानों को काफी नुकसान हुआ है। इवेंट मैनेजमेंट, रेस्टोरेंट, होटल, पर्यटन उद्योग और एयरलाइंस अस्तित्व बचाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।
पूंजी बाजार
24 अप्रैल को फ्रैंकलिन टैंपल्टन ने अपनी म्यूचुअल फंड की छह स्कीम बंद की, तो पूरे म्युचुअल फंड क्षेत्र पर संकट खड़ा होने की आशंका पैदा होने के दो दिन बाद रिजर्व बैंक ने 50 हजार करोड़ रुपये की लिक्विडिटी इस क्षेत्र को देकर कुछ अनिश्चितता कम करने की कोशिश की है। लेकिन जिस तरह से भारतीय पूंजी बाजार से विदेशी संस्थागत निवेशकों ने पैसा निकाला है वह भारतीय अर्थव्यवस्था की कमजोरी की ओर इशारा कर रहा है।
कृषि संकट और संभावनाएं
उद्योगों से अधिक इस मौके पर जरूरत कृषि और किसान की सुध लेने की है क्योंकि उसमें मांग और खपत बढ़ाने की क्षमता है। फिर, खाद्यान्न, फलों, सब्जियों, डेयरी और प्रसंस्कृत खाद्य उद्योगों के ट्रेड को देखें तो यह जीडीपी के 20 फीसदी को पार कर जाता है। जाहिर है, ऐसे में केवल कृषि ही ऐसा क्षेत्र है जहां गतिविधियां सामान्य बनी रही हैं। पिछले पांच साल में कृषि और सहयोगी क्षेत्र की वृद्धि दर 3.5 से पांच फीसदी के बीच रही है। तमाम प्रतिकूल स्थितियों और बीमारी के संक्रमण की आशंका के बावजूद रबी फसलों की हार्वेस्टिंग जोरों पर है और गेहूं की कटाई अगले कुछ दिनों में पूरी हो जाएगी। महामारी के बावजूद दो बातें होने वाली हैं। एक तो कृषि और सहयोगी क्षेत्र अर्थव्यवस्था का अकेला ऐसा क्षेत्र होगा जो वृद्धि दर बरकरार रखेगा, बशर्ते सरकार किसानों को उनके उत्पादों की सही कीमत सुनिश्चित कर सके। दूसरे, अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्रों के सिकुड़ने से जीडीपी में इसकी हिस्सेदारी मौजूदा 14 फीसदी से बढ़ जाएगी और ऐसा कई दशकों में पहली बार होगा। इसलिए जहां संभावनाएं बेहतर हैं, पहले सरकार को उस क्षेत्र पर फोकस करना चाहिए।
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चीन से कंपनियाँ भारत शिफ्ट कराने की तैयारी
कोरोना वायरस प्रकोप के कारण अमेरिका, जापान, ब्रिटेन आदि तमाम देशों ने चीन से बिजनेस अन्यत्र शिफ्ट करने की बात कही है। इसका सीधा फायदा भारत उठा सकता है। चीन में सबसे ज्यादा अमेरिकी कंपनियाँ काम कर रहीं हैं और उनको भारत अपने यहाँ ला कर रोजगार सृजन के अलावा अपनी अर्थव्यवस्था को मजबूती दे सकता है। अच्छी बाते ये है कि अमेरिका भी ये चाहता है। भारत इस अवसर को कैसे भुनाता है, इसी पर सब निर्भर करेगा। ट्रेडवार के कारण पहले से अमेरिकी कंपनियाँ चीन से हटने का मन बना रही थीं अब कोरोना वायरस ने चीन के लिए स्थिति को और खराब बना दिया है। इस स्थिति में केंद्र और राज्य मिलकर विदेशी निवेशकों को आकर्षित करने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते हैं।
आज वैश्विक प्रोडक्शन में चीन सबसे बड़ा निर्यातक है। 2018 में ही चीन का कुल एक्सपोर्ट 22 अरब डालर था। इसका 18 फीसदी तो सिर्फ अमेरिका को गया था। 1979 में चीन मात्र 100 कंपनियों का निवेश था जबकि आज ये संख्या 3 लाख से ज्यादा हो गई है। भारत में मात्र 3254 विदेशी कंपनियाँ काम कर रही हैं।
मोदी सरकार विभिन्न राज्य सरकारों के साथ मिलकर इस दिशा में तेजी से काम कर रही है ताकि कोरोना वायरस प्रकोप के कारण चीन पर निर्भरता को कम किया जा सके। इसके अलावा सरकार उन सभी कंपनियों को भारत में निवेश करने के लिए रिझाना चाहती है, जो चीन से बाहर अपना कारखाना लगाना चाहती हैं। केंद्र सरकार लगातार विदेशी कंपनियों से संपर्क में है।
सरकारी सूत्रों का कहना है कि एक हजार विदेशी कंपनियाँ अपने संयंत्र भारत शिफ्ट करने के बारे में सरकार से बातचीत कर रही हैं। इनमें से 300 कंपनियाँ मोबाइल, इलेक्ट्रानिक, मेडिकल उपकरण, टेक्सटाइल और सिंथेटिक फ़ैब्रिक क्षेत्र से जुड़ी हुई हैं। वैसे भारत ने चीन को टक्कर देते हुए दुनिया का सबसे बड़ा निर्यातक देश बनने का लक्ष्य निर्धारित किया है। केंद्रीय इलेक्ट्रॉनिक्स व आइटी मंत्री रवि शंकर प्रसाद के साथ देश की सभी प्रमुख इलेक्ट्रॉनिक्स व मोबाइल मैन्यूफैक्चरिंग कंपनियों की बैठक हुई है। वैसे भारत ने स्वदेशी मैन्यूफैक्चरिंग को बढ़ावा देने के लिए बीते सितंबर में ही कारपोरेट टैक्स घाटा दिया था और नए मैन्यूफैक्चरर्स के लिए टैक्स की दर 17 फीसदी कर दी थी जो दक्षिण पूर्व एशिया में सबसे कम है।
सूत्रों के मुताबिक सरकार ने चीन से भारत आने वाली कंपनियों के लिए जमीन तलाश ली है जो अलग अलग राज्यों में स्थित हैं। इसके लिए देश भर में 461,589 हेक्टेयर क्षेत्र की पहचान की गई है। इसमें गुजरात, महाराष्ट्र, तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों में 115,131 हेक्टेयर मौजूदा औद्योगिक भूमि शामिल है। दरअसल जो विदेशी कंपनियां भारत में निवेश करना चाहती हैं, उनके लिए यहां भूमि सबसे बड़ी बाधाओं में से एक रहा है।
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उत्तर प्रदेश में पूरी सहूलियत
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अमेरिका की बड़ी कंपनियों से कहा है कि अगर वे चीन से निकलकर अपनी फैक्ट्रियों और बेस को उत्तर प्रदेश में शिफ्ट करती हैं तो उन्हें मनमुताबिक सहूलियत दी जाएंगी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल ही में राज्यों से कहा था कि कई विदेशी कंपनियां अब चीन से निकलकर भारत आना चाहती हैं, ऐसे में राज्यों को नए अवसरों के लिए तैयार रहना होगा। इसके बाद उत्तर प्रदेश की सरकार ने अमेरिका के 100 निवेशकों और कंपनियों से वीडियो कॉन्फ्रेंस पर बात की है। यूपी के मंत्री सिद्धार्थ नाथ सिंह ने कहा है कि उन्हें इससे संबंधित कई सवाल मिले हैं कि राज्य सरकार कंपनियों को चीन से शिफ्ट करने पर क्या सुविधाएं देगी। कंपनियों को बताया गया है कि उनकी जरूरत के मुताबिक बने प्रावधान किए जा सकते हैं। मिसाल के तौर पर फेडएक्स और यूपीएस को बताया गया कि अपने ऑपरेशंस को शुरू करने के लिए प्रस्तावित जेवर अंतरराष्ट्रीय एयरपोर्ट का इस्तेमाल कर सकते हैं। मेडिकल उपकरण बनाने वाली कंपनी बोस्टन साइंटिफिक बताया गया कि राज्य उनकी जरूरत के मुताबिक बदलावों पर चर्चा करने को तैयार है। लॉकहीड मार्टिन जैसी डिफेंस कंपनी को बताया गया कि वे उत्तर प्रदेश के डिफेंस कॉरिडोर का इस्तेमाल कर सकते हैं।
भारत बनाम चीन
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भारत
- 2019 में निर्यात : 330 बिलियन डालर
- दुनिया के कुल प्रोडक्शन में भारत का योगदान
- भारत की अर्थव्यवस्था में 50 फीसदी हिस्सा सर्विस सेक्टर का
- 2018 में 42 बिलियन डालर का एफडीआई
चीन
- 2018 में निर्यात : 2.499 ट्रिलियन डालर
- दुनिया के कुल प्रोडक्शन में 28 फीसदी हिस्सा
- 2018 में 142 बिलियन डालर का एफडीआई